वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 100
From जैनकोष
हैतौ प्रमत्तयोगे निर्दिष्टे सकलवितथवचनानाम् ।
हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवसि नासत्यम् ।।100꠰।
प्रमत्तयोग के अभाव में कहे गये हेयोपादेय के उपदेश में असत्य का अभाव―यहां कोई ऐसा प्रश्न कर सकता है कि यदि अप्रिय वचन बोलना भी झूठ है तो मुनिजन जो उपदेश करते हैं कि अमुक चीज छोड़ो, अमुक चीज ग्रहण करो तो जो अज्ञानी जन हैं उनको तो दुख होता है । जैसे आचार्य ने कहा कि रात्रि भोजन त्याग करो तो उन्हें दुःख होता है तो फिर यह झूठा हुआ, ऐसी यहाँ शंका होती है । उसके उत्तर में कहते हैं कि जितने भी झूठ वचन होते हैं उनका कारण क्या है याने वे झूठ कहलाते क्यों हैं? उसका हेतु है कषाय भाव । तो साधुजन कषाय करके उपदेश नहीं करते । चाहे वे वचन अज्ञानी जनों को बुरे लगे, उनके प्रतिकूल पड़ें मगर आचार्य महाराज कषायभाव से ऐसा नहीं करते । उनके चित्त में तो करुणा भाव ही है कि अमुक जीव का भला हो, उसके भव मिटे, सम्यक्त्व मिले । उनके चित्त में तो कृपा ही है । अज्ञानी जीव अगर बुरा मानते हैं तो मानें, उससे ज्ञानी साधुजनों को झूठ का दोष नहीं लगता । आचार्य महाराज के उपदेश में कोई-कोई बात तो अज्ञानीजनों के तीर की तरह चुभती है । जैसे शास्त्र वचन कर रहे हों । सब सुन रहे हैं और वहाँ कोई परस्त्रीगमन त्याग का उपदेश कर रहे हों तो जो परस्त्रीगामी पुरुष होंगे उन्हें वे वचन बड़े तीव्र लगते हैं । ऐसे ही अगर जुवां खेलने का त्याग का उपदेश हो तो जुवां खेलने वालों को वे वचन तीर की तरह लगते हैं । तो साधुजनों के इस प्रकार के वचनों में उन्हें दोष नहीं लगता । जिनके चित्त में दूसरों का दिल दुखाने का परिणाम है उनके हिंसा लगती है और जहाँ दूसरों के भले का ही परिणाम है वहाँ झूठ दोष नहीं लगता है ।