वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 106
From जैनकोष
असमर्था ये कर्तुं निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् ।
तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं परित्याज्यम् ।꠰106।।
अचौर्याणु व्रत का निर्देश―अब चोरी नामक पाप के उपसंहार में कहते हैं कि चोरी का त्याग दो प्रकार का है―एक तो सर्वथा त्याग और एकएक देश त्याग । मुनिधर्म में तो परवस्तु का त्याग रहता है और श्रावक धर्म में एकदेश त्याग रहता है । तो जो कोई सर्वथा त्याग नहीं कर सकते हैं वे एक देश त्याग तो करें ही करें । जो एकदेश त्यागी है वह दूसरे के कुवें का तालाब का जल मिट्टी आदिक ऐसे पदार्थों को जिनका कुछ मूल्य नहीं है, पर दूसरे के अधिकार में हैं तो ऐसे हस्तग्रहण करते हैं गृहस्थावस्था में और इसे चोरी भी नहीं वहां लोकव्यवहार मैं । तो दूसरे के कुवें का मिट्टी पानी आदिक के ग्रहण का त्याग नहीं कर सकते न करें, पर अन्य चोरी का त्याग तो करें ही करें । अगर चोरी का व्यवहार चल उठा तो फिर सारी अव्यवस्था हो जायेगी । किसी ने किसी को हर लिया तो फिर न व्यवस्था रह सकती, न प्रेम रह सकता, न धर्म रह सकता, न चैन रह सकती । विप्लव हो जायेगा, इसलिए व्यवस्था की दृष्टि से चोरी का त्याग रहे तो उससे प्रजाजनों में शांति रहेगी । और आत्मदृष्टि से देखा जाये तो यह आत्मा पर-पदार्थों को अपना स्वीकार करे सो ही चोरी है । जैसे शरीर अपना नहीं है, शरीर भिन्न पदार्थ हैं । पौद्गलिक तत्त्व है, आत्मा उससे न्यारा है फिर भी उस पौद्गलिक देह को अपना मानना कि यह मैं हूँ इसके मायने चोरी है । रागादिक जो आत्मा में उठते हैं कर्मों का उदय पाकर उठते हैं, किसी न किसी परपदार्थ का आलंबन लेकर ही भाव उठते हैं तो वे भी औपाधिक हैं, भिन्न हैं विनाशीक हैं, उनको अपनाना कि यह मैं हूँ, तथा जो रागादिक भाव हैं उन्हें अपनाना कि यह मैं हूँ, यह चोरी है । तो जो अध्यात्मपद्धति से चोरी नहीं करते उनको भी सम्यक् दृष्टि कहते हैं । सभी लोग जो शरीर की मान रहे हैं कि यह मैं हूँ अथवा जो भी बाह्य वस्तुओं को अपना रहे हैं वे चोरी कर रहे हैं । जो चोर हैं वे भी और करते क्या हैं? किसी दूसरे की वस्तु को अपने घर में रखकर अपनी मान लेते हैं इन्हीं परवस्तुओं के नाम अपनाने का नाम चोरी है । अब वस्तुरूप से लगाये । धनादिक परवस्तु हैं, भिन्न हैं, जड़ हैं अपने स्वरूप से बिल्कुल न्यारे हैं, उनको अपनाना, उनको स्वीकार करना इसी का नाम चोरी है । अध्यात्मपद्धति से जो चोरी का त्याग करता है वह ज्ञानी है, मोक्षमार्गी है । निकट भविष्य में ही संसार के सभी संकटों से छूट जाने वाला है । चोरी नामक जो पाप है वह भी हिंसा है, क्योंकि उसमें अपने और दूसरे के प्राण हरे जाते हैं । इस कारण चोरी को हिंसा जानकर इसका परित्याग ज्ञानी पुरुष ही करते हैं ।