वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 166
From जैनकोष
रागद्वेषासंयमददुःखभयादिकं न यत्कुरुते ।
द्रव्यं तदेव देय सुतप: स्वाध्यायवृद्धिकरम् ।।166।।
पात्र के लिये योग्य द्रव्य को देयता का कथन―इस शिक्षाव्रत के वर्णन में हमें दो बातें जानना चाहिए कि इससे अहिंसाव्रत की सिद्धि होती है और मुनिधर्म की शिक्षा मिलती है । तो समस्त व्रत, नियम जितने भी पालन किए जाते हैं वे सब अहिंसा की सिद्धि के लिए होते हैं, अहिंसा की सिद्धि का अगर लक्ष्य नहीं हैं तो उन व्रत नियमों का कुछ महत्त्व नहीं है । सो एक तो यह जानने में आना चाहिए कि इस नियम में अहिंसा की सिद्धि क्या होगी, दूसरे यह शिक्षाव्रत का भाव है यह भी ध्यान में होना चाहिए । कि इसमें मुनिधर्म की क्या शिक्षा मिलती है? दातार के जो ऊपर 7 गुण बताये उनसे दातार की आत्मरक्षा है, यही तो अहिंसा की सिद्धि है और उससे मुनित्व की ओर आकर्षण है । सो मुनिधर्म की शिक्षा है । इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि पात्र को द्रव्य कैसा देना चाहिए । ऐसा द्रव्य चाहिए जो तप और स्वाध्याय में वृद्धि करने में सहायक बने । भोजन श्रावक को न देना चाहिए क्योंकि उससे साधु में प्रमाद आता है, वह स्वाध्याय नहीं कर सकता । त्यागी जनों को भी चाहिए कि वे गरिष्ट भोजन न ग्रहण करें जो स्वाध्याय में बाधक प्रतीत हो । यहाँ यह बात बता रहे हैं कि श्रावक को कैसा आहार देना चाहिये? जब त्यागियों की ओर से प्रकरण चलेगा तो वहाँ यह बताया जायेगा कि त्यागियों को किस तरह का आहार लेना चाहिए? तो श्रावक को ऐसा आहार दान करना चाहिए जो तप और स्वाध्याय में वृद्धि करे । अन्य लोगों में जैसे यह प्रथा है कि साधुजनों को मकान देते, घोड़ा, हाथी देते, सोना चांदी देते, शस्त्र भी देते त्रिशूल वगैरह, उन साधुवों के पास बहुत ठाठ हैं, उनके मठ बने हैं, तो ये चीजें दान देने योग्य नहीं है । जो इन वस्तुओं का दान करते हैं वे पापबंध करते हैं । दान में ऐसे पदार्थ देने चाहिए जो विकारभाव को न उत्पन्न करे और तपश्चरण की वृद्धि करें । वे दान चार प्रकार के हैं―आहारदान, औषधिदान, अभयदान और शास्त्रदान । दान में विशेषता सभी दानों की हैं फिर भी आहारदान मुख्य है । सभी दानों में आहारदान की प्रमुख विशेषता है । आहारदान में औषधिदान भी हो गया क्योंकि क्षुधा रोग तो लगा ही है । अभयदान भी हो गया क्योंकि उसमें धर्म करने की सामर्थ्य जागृत होती है । शास्त्रदान भी है क्योंकि वह ज्ञान ध्यान में अपना अधिक उपयोग लगाने का अवसर पाता है । शास्त्रदान की भी बात देखो तो यह दान भी बड़ा मुख्य है, यही ज्ञानदान है क्योंकि आहार में 24 घंटे की वेदना मिलेगी, पर शास्त्रदान से अर्थात् ज्ञानदान से तो सदा के लिए संसार के संकट छूट जायेंगे । तो ज्ञानदान का भी बहुत बड़ा महत्त्व है । और यों करो कि असली तो ज्ञानदान है, मुख्य चीज तो ज्ञानदान है । उसी ज्ञान की साधना के लिये बाकी शेष तीन दान हैं । वे तीनों दान ज्ञान की सहायता के लिए हैं । एक औषधिदान है । कोई रोग हो गया तो उस समय औषधिदान देना भी आवश्यक है । अभयदान में कोई आपत्ति आवे, उपसर्ग आये, कठिन परिस्थिति आए उस समय जैसे वह साधु निर्भय हो सके वैसा काम करे । वसति का बनवाना भी अभयदान में शामिल है । यों 7 गुण वाला दातार अतिथिसम्विभागव्रत में अतिथि का सम्विभाग करे । यह श्रावक का रोज का काम है । श्रावक सिर्फ साधु के लिए आहार न बनावे । सभी के लिए आहार बना है ऐसा मालूम पड़ना चाहिए । यदि केवल साधु के लिए आहार बना है तो उसमें उद्दिष्ट की बात आती है । साधु यह समझ ले कि हां यह हमारे ही लिए आहार नहीं बना है बल्कि सभी के लिए यह आहार बना है तो इसमें उद्दिष्ट की बात नहीं आती है । तो यों अतिथि सम्विभाग व्रत श्रावक को रोज-रोज करना चाहिए ।