वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 168
From जैनकोष
हिंसाया: पर्यायो लोभोऽत्र निरस्यते यतो दाने ।
तस्मादतिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेवेष्टम् ।।168।।
दान में अहिंसारूपता की सिद्धि―इस अतिथिसम्विभाग व्रत के पालने में इस दान में चूंकि हिंसा का परिहार होता है इसलिये अहिंसा है । लोभ परिणाम में जीव को पर के प्रति अपनायत की दृष्टि होती, आकर्षण बुद्धि होती, संग्रह करने का विकल्प होता है, तो इन विकल्पों से निज परमात्मतत्व का घात होता है, अत: लाभपर्यायें हिंसा है । अतिथिसम्विभाग में चूंकि द्रव्य दान किया है अपना परिणाम विशुद्ध किया है यहाँ मन का लोभ, वचन का लोभ नहीं है, यहाँ कुवचन नहीं बोल सकते । धन का लोभ तो यहाँ रहा ही नहीं है, लोभ चूंकि यहाँ दूर होता इसलिये अतिथिसम्विभाग व्रत में अहिंसा धर्म का पालन होता है । हिंसा नाम है रागद्वेष के उत्पन्न होने का । तो द्रव्य में चूंकि राग था, यह राग अब नष्ट किया जा रहा है इसलिये यह अहिंसा ही है । पात्र में राग होता है वह गुणानुराग है । भक्ति में केवल राग ही राग नहीं हुआ करता । केवल राग ही तो हुआ करता है विषयों में और जहाँ केवल राग ही राग है। हिंसा उसे कहते हैं, और भक्तिरूप जो परिणाम है वह केवल राग से नहीं बनता । राग और वैराग्य दोनों का वहाँ संबंध है । जब भक्ति का परिणाम बना उस भक्ति में भी जो परिणाम बना और उस भक्ति में भी जो यथार्थरूप से परमात्मस्वरूप के गुणों में अनुराग चल रहा है इसमें वैराग्य तो मुख्य है और राग अल्प है । राग शुभ है तो जैसे कुछ लोग ऐसा कह बैठते हैं कि जितने भी राग हैं वे सब हिंसा हैं तो राग का स्वरूप हिंसा में तो आता है मगर इस माध्यम को कहकर भक्ति को भी, ध्यान को भी हिंसा बना देना यह कुछ अनुचित व्यवहार है क्योंकि इस कथन में जो वैराग्य की बात है उसे तो चुरा ले गया और राग की बात को ही सामने रक्खे गया और उसमें हिंसा की सिद्धि की गई । यद्यपि उस भक्ति परिणाम में भी जितने अंश में राग है उतने अंश में बंधन है और बंधन का ही नाम घात है, लेकिन जिनेंद्रदेव की भक्ति, परमात्मस्वरूप की भक्ति और निज कारणसमयसार की भक्ति―इनमें जो राग उमड़ता है वह राग एक वैराग्य के आधार को पाकर उमड़ता है । वह राग राग रहे और प्रभु में भक्ति पहुंचे, यह बात नहीं बनती है । तो जहाँ राग और वैराग्य दोनों का समारोह है वहां वैराग्य की बात को छोटी करके राग की बात ही सामने रखकर उसे हिंसा कहने का चाव रखते, यह सन्मार्गगामी का व्यवहार नहीं बनता । तो इस भक्ति में जो साधुवों के गुणों का अनुराग चल रहा है जिस अनुराग की प्रेरणा पाकर जिसमें ये साधु महाराज भली प्रकार सयंम कर सकें, जिनमें इतनी निराकुलता रहे ऐसी वांछा से जो दान दिया जाता है वह अतिथिसम्विभाग व्रत है ।