वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 169
From जैनकोष
गृहमागताय गुणिने मधुकरवृत्या परानपीडयते ।
वितरीत यो नातिथये सकथं न हि लोभवान् भवति ।।169।।
गुणी अहिंसक अतिथि के लिये दान न करने वाले गृहस्थ के लोभवत्त्व की सिद्धि―ऐसे साधुजनों को जो अतिथि हैं, जिनके किसी से मोह नहीं है, रागद्वेष का परिहार करके जो समताभाव में रहा करते हैं, ऐसे संयमीजन गुणयुक्त और अपनी गोचरी वृत्ति से, दूसरों को पीड़ा न देते हुये श्रावक के घर के सामने आये हुए हैं और उन्हें जो गृहस्थ आहार आदिक दान नहीं देते हैं, उन्हें लोभी कैसे न कहा जाये? एक ऐसा भी प्रश्न रखा जा सकता है कि घर में उतनी व्यवस्था शुद्ध भोजन की नहीं है जितनी देना आवश्यक है, और और कामों में तो बहुत कुछ खर्च कर डालते हैं तो इस मामले में लोभी कैसे कहलाये? लेकिन जो चीज उनके लिये खास रोज दान करने की है आहार आदिक, मान लो और अन्य-अन्य प्रकार की सुविधायें खूब की जाये और आहार न दिया जाये तो मुनि का सत्कार या अतिथि का गुणानुराग क्या हुआ ? यह एक भावों की शिथिलता है । घर पर रहते हुये घर में रहने वाले गृहस्थ चूँकि अपनी 24 घंटे की चर्या ठीक बना सकते हैं, जैसी विधि करे, जैसी प्रक्रिया प्रारंभ करे बराबर वैसी निभा सकते हैं । केवल एकभाव की कमी होने से वह अपने को निभाने में असमर्थ समझता है । तो गुणानुराग से प्रेरित होकर गृहस्थ अतिथि दान किये बिना नहीं रह सकता । जो पुरुष घर पर आये हुए संयमी मुनि के लिए आहार आदिक दान नहीं देता उसे लोभी कैसे नहीं कहा जा सकता?
निर्ग्रंथ साधु की आहारचर्या में गर्तपुरणवृत्ति भ्रामरीवृत्ति―महाराज जो आहार को निकलते हैं, जिस विधि से निकलते हैं उसे 4 विशेषणों से बताया गया है । उनकी चर्या का नाम, भिक्षावृत्ति का नाम है―गोचरीवृत्ति, भ्रामरीवृत्ति, गर्तपूर्णवृत्ति और अक्षमृक्षणवृत्ति । गर्तपूर्णवृत्ति में उनका ध्येय है गड्ढा भरना । पेट को एक गड्ढे का अलंकार दिया है । जैसे किसी बड़े गड्ढे को भरते समय यह नहीं ध्यान दिया जाता कि बढ़िया चिकनी मिट्टी भरें, या कैसी भी मिट्टी भरें ऐसे ही आहार में वे यह ध्यान नहीं देते कि यह आहार बढ़िया स्वादिष्ट है या नहीं । जैसा चाहे रस-नीरस प्रासुक आहार हो उसी से वे मुनिजन अपने उदर गर्त को भर लेते हैं । हाँ, वे केवल भक्ष्य और अभक्ष्य को देखते हैं क्योंकि अभक्ष्य आहार से उनके संयम में बाधा है । तो यह हुई गर्तपूर्णवृत्ति । भ्रामरीवृत्ति का अर्थ है कि भ्रमर की तरह साधुजनों की वृत्ति होती है । जैसे भ्रमर किसी पुष्प से मकरंद लेता है तो थोड़ी मकरंद लेकर उड़ जाता है ऐसे ही साधुजन किसी भी गृहस्थ के यहाँ जो भक्तिपूर्वक आहार दान दे रहा है उसके यहाँ आहार लेकर झट अपनी संयम साधना के लिये चले जाते हैं । खड़े-खड़े आहार लेना साधुवों को बताया है ꠰ तो लोकव्यवहार की दृष्टि में यद्यपि कुछ लोगों को अयोग्य-सा जंचता है कि यह क्या भोजन है खड़े-खड़े ले जाते हैं, लेकिन जिन साधुवों का चित्त लोक से उपेक्षित हो गया है वे लोक को न देखेंगे किंतु जिसमें गुणों की वृद्धि हो उस काम को देखेंगे । खड़े-खड़े आहार लेने में ऐसा समझा जाता है कि स्वल्प आहार लिया जाता है इस प्रकार की पेट की स्थिति रहती है । कुछ ऐसा नसाजाल बना रहता है कि खड़े-खड़े उतना भोजन नहीं लिया जा सकता जितना, बैठे-बैठे लिया जा सकता है । यह हम अपनी समझ से कह रहे हैं । और मुख्य बात तो हमें यह मालूम देती है कि उन साधुवों के पास इतना अवसर नहीं है कि वे बैठकर ढंग बनाकर आहार ले सकें । जैसे जिस बच्चे के खेल खेलने में धुन लगी है उसे उसकी मां जबरदस्ती पकड़ ले जाती है, खाना खिलाती है तो वह थोड़ा-सा खड़े-खड़े खाकर ही भाग जाता है और अपना खेल खेलने लगता है, ऐसे ही ये साधुजन अपने आत्म खेल में रत रहा करते हैं । उनके चित्त में आहार करने जाना है ही नहीं तो मानो यह क्षुधा मां इन्हें जबरदस्ती खींचकर आहार के लिये ले जाती है, पर जल्दी ही खड़े-खड़े कुछ खाकर भग आते हैं और अपने आत्मरमण के खेल में रत हो जाते हैं । तो यों वे साधु खड़े-खड़े ही आहार लेते हैं । साधुजनों को अल्प आहार क्यों बताया गया है? अल्प आहार लेने से साधु का ध्यान साधना में मन लगता है । अधिक आहार लेने पर प्रमाद बना रहता है जिसके कारण सामायिक वगैरह के करने में बाधा होती है । जब अधिक आहार करेंगे साधु तो उन्हें करवट लेकर लेटना ही सुहायेगा । प्रमाद ही बना रहेगा, इससे अधिक आहार उनको ध्यान की साधना में बाधक है, इसलिये उन्हें अल्प आहार लेना बताया गया है । तो वे साधु भ्रमरीवृत्ति से दूसरों को पीड़ा न देकर तुरंत खड़े-खड़े आहार लेकर चले जाते हैं । ऐसे भी पुरुष को जो आहारदान नहीं कर सकते वे क्या लोभवान् नहीं हैं?
साधु की आहारचर्या में गोचरीवृत्ति व अक्षमृक्षणवृत्ति―साधु की एक वृत्ति का नाम है गोचरीवृत्ति । गो मायने गाय, चरी मायने चरे । जैसे गाय घास चरती है तो गाय को चाहे कोई सुंदर महिला भोजन दे जाये, चाहे कुरूप महिला भोजन दे जाये, चाहे बहुत शृंगार की हुई महिला भोजन दे जाये, उस गाय को उनसे कुछ प्रयोजन नहीं है, उसे तो ग्रास अर्थात् घास से प्रयोजन है । ऐसे ही उन साधुजनों को कैसी ही कुरूप अथवा सुंदर अथवा बहुत ही शृंगारयुक्त कोई भी महिला भोजन दे जाये, उससे उन्हें कुछ प्रयोजन नहीं है, उनका प्रयोजन तो सिर्फ ग्रास खाने से है । रूप शृंगार आदिक पर उनकी दृष्टि नहीं है । एक चौथी प्रकार की वृत्ति है अक्षमृक्षणवृत्ति । जैसे गाड़ी का पहिया चलता है तो पहिये में जब तक औंघन न डाला जाये अर्थात् ग्रीस न डाली जाये तब तक पहिया ठीक-ठीक नहीं चलता है, टूट जायेगा, मशीन बिगड़ जायेगी, इसी प्रकार यह शरीररूपी चक्का चल रहा है इसमें कुछ ग्रीस डालने की जरूरत है इस दृष्टि से कि यह शरीर चले, क्योंकि यह संयम का साधन है, शरीर को रखना है, इस भाव से शरीर के रखने के लिए जो औंघन की तरह आहार डाला जाता है ऐसी विधि है इसलिये इसका नाम अक्षमृक्षणवृत्ति है । प्रवचनसार में अमृतचंद्रसूरि ने एक जगह बताया है कि साधु महाराज इतना विरक्त होते हैं कि वे आहार का परित्याग करके ही रहें ऐसा उनका भाव है और ऐसा वे करते हैं लेकिन विवेक साधु का हाथ पकड़कर ले जाता है कि तुम चर्या करो, भोजन करो । जैसे एक किवाड़ इस ढंग का होता है कि उसके बंद ही रहने का स्वभाव है, उसमें स्प्रिंग लगा होता है । उसे कोई जबरदस्ती खोले तो जब तक वह खोले रहता है तब तक खुला रहेगा उसके छोड़ देने पर वह फिर झट बंद हो जायेगा । तो ऐसे ही समझिये कि आहार आदिक की प्रवृत्ति सब बंद हैं साधु के लिये, यह तो सदा के लिए है, मगर यह विवेक पकड़कर खिलाता है । विवेक मानो कहता है कि ऐ साधु तू आहार कर । देख यह आहार शरीर का साधक है और यह शरीर तेरी आत्मसाधना का साधक है । तू आहार ग्रहण कर । देख तुझे संयम पालना है ना, तुझे आत्मसाधना करना है ना ? तू आहार ग्रहण कर तो निराकुलता से तेरे में ध्यान की सिद्धि बनेगी । इस प्रकार यह विवेक मनाता है तब वे आहार को उठते हैं, नहीं तो बंद है । सभी पदार्थो से उनके उपेक्षा वृत्ति है । जो समतापरिणाम की साधना में लगे हैं, जो व्यवहार के कार्यों से अति उदासीन हैं, व्यवहार कार्यों में जिनकी रुचि नहीं जगती है, जो स्वभावमात्र आत्मतत्त्व के मनन में निवास किया करते हैं ऐसे मुनिजन जब कभी आहार के अर्थ इन चार वृत्तियों से घर पर आये हुए हों और उन्हें गृहस्थ आहार न दे सके तो वह लोभवान् कैसे न कहा जायेगा? किसी के मान लो धन का भी लोभ न हो तो शरीर का लोभ तो हुआ मन का लोभ तो हुआ । अतएव श्रावक जो अतिथिसम्विभाग व्रत का पालन करता है वह अहिंसा की सिद्धि करता है । गृहस्थावस्था में रहकर जिस पद्धति से अहिंसाव्रत की साधना हो सकती है उसके योग्य आचरण होना चाहिए, उसमें साधक के बारह व्रत हैं ।