वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 41
From जैनकोष
निरत: कार्य निवृत्तौ भवति यति: समयसारभूतोऽयम् ।
या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपास को भवति ꠰꠰41।।
यति और उपासक की विरति के भेद से चारित्र की द्विविधता―जो 5 पापों का सर्वथा त्याग करता है सर्व प्रकार से पापों के त्याग में लवलीन है वह मुनि तो समयसारभूत है । समयसारभूत का अर्थ है शुद्धोपयोग में आचरण करने वाला और जो 5 पापों से एकदेश विरत है, एकदेश निवृत्ति में जो लगा हुआ है वह उपासक होता है । साक्षात् मोक्षमार्ग तो मुनि का है और उपासक मुनि की वृत्ति करना चाहता है, उसका उपासक है । श्रावक अर्थात् श्रावक मुनिधर्म का उपासक है तो उपासक तो परंपरा से मोक्षमार्गी है और साधु जो खुद समयसारभूत है वह स्पष्ट साक्षात् मोक्षमार्गी है । इन 5 पापों के त्याग में आत्मा के परिणामों की विशुद्धि बनती है वह सब प्रतिपादन होगा । वास्तव में तो आत्मा के स्वभाव से चिगकर किसी परतत्त्व में उपयोग को फंसाना वह सब पाप है, उस पाप का त्याग करता है, अथवा उत्तम अंतरात्मध्यानी साधु पुरुष वह साक्षात् समयसारभूत शुद्धोपयोग को निरखता है उसमें वह आवृत है और वह वंदनीय है, अपने आपका निःसंदेह उद्धार करने वाला है तो इसमें बताया कि चारित्र दो प्रकार के हैं―एक सकलचारित्र और दूसरा विकल चारित्र । सकलचारित्र का स्वामी मुनि है और देशचारित्र का स्वामी श्रावक है ।