वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 48
From जैनकोष
हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा ।
तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ।।48।।
हिंसा का अत्याग व हिंसापरिणमन दोनों स्थितियों में हिंसा का दोष―अब देखिये हिंसा से विरक्त न हो इसका भी नाम हिंसा है और हिंसा की प्रवृति करे इसका नाम भी हिंसा है, क्योंकि जिसने हिंसा का परित्याग नहीं किया उसके भी प्रमत्त योग है जिसने ममता का परिणाम किया उसके भी हिंसा का योग है । माने हिंसा दो तरह की होती है―एक अविरतरूप हिंसा, दूसरी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि परतत्त्वों से विरक्ति न हो तो वह भी हिंसा है और हिंसा कर बैठे, दूसरे को सता बैठे तो वह है प्रवृत्तिरूप हिंसा । जीव की परघात में प्रवृत्ति न हो रही हो, फिर भी हिंसा के त्याग की प्रतिज्ञा नहीं है तो हिंसा हुआ करती है । एक छोटी सी कथा है कि एक सर्प ने एक नियम बना लिया कि मुझे कोई कितना ही सताये पर मैं शांत रहूँगा । तो घर में एक बच्चा दूध पी रहा था तो वह सांप गया बच्चे के पास बैठकर खूब छककर दूध पी लिया । ऐसा ही वह हर रोज कर लेता था । वह बच्चा थप्पड़ मारे तो भी वह सांप चुप रह जाये । कुछ ही दिनों में वह सांप पुष्ट हो गया । दूसरे सांप ने एक दिन पूछा कि भाई तुम कहां से रोज दूध पी लेते हो? उसने अपनी बात बतायी । उस दूसरे सांप ने सोचा कि हम भी ऐसा ही करेंगे । दूसरा साँप भी घर जाये और बच्चे का दूध पी आये । बच्चा थप्पड़ मारे फिर भी वह शांत रहे । सांप ने यह नियम बना लिया कि 100 थप्पड़ तक तो मैं कुछ न बोलूंगा, इसके बाद के थप्पड़ मैं न सह सकूंगा । एक दिन वह दूसरा सांप उस बच्चे का दूध पीने पहुंच गया । दूध पीने लगा । उस बच्चे ने थप्पड़ मारना शुरू किया । पहिले तो वह सांप थप्पड़ बराबर सहता रहा, लेकिन जब 100 वें थप्पड़ के बाद मारा तो झट उस सांप ने उस बच्चे को काट लिया । बच्चा चिल्लाया बड़े जोर से । लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने उस सांप को मार डाला । तो उस सांप को शांति की पूरी प्रतिज्ञा न थी सो यह विडंबना हुई । ऐसे समझिये कि जो लोग हिंसा का त्याग करते हैं । उनमें बहुतों का यही हाल रहता है । बहुत से लोग प्राय: रात्रि भोजन नहीं करते पर वह त्याग पूर्ण प्रतिज्ञारूप न होने के कारण रात्रि को भोजन कर लेते हैं । यह उनकी पूर्ण प्रतिज्ञा न होने की कमजोरी है । यदि संस्कार में मजबूती नहीं है तो वहाँ हिंसा है । हिंसा का त्याग न करना हिंसा से विरक्त न होना, वह भी हिंसा है और अहिंसा में प्रवृत्ति करे, सो भी हिंसा है, क्योंकि दोनों जगह प्रीति योग लगा हुआ है, कषाय और योग दोनों जगह लगे हुए हैं अतएव निरंतर प्राण घात का सद᳭भाव है, हिंसा दो तरह की है―एक अविरतिरूप हिंसा और दूसरी प्रवृत्ति रूप हिंसा । कोई पूछे कि क्रिया तो हमने की नहीं केवल एक भाव बना लिया उसमें क्या हिंसा हुई? तो उत्तर दे रहे हैं कि जिस पुरुष के हिंसा का त्याग नहीं है वह किसी समय भी हिंसा कर सकता है । जैसे किसी ने रात्रि भोजन का त्याग नहीं किया ? तो वह किसी-किसी प्रसंग में रात्रि भोजन कर सकता है । इस रात्रिभोजन में भी हिंसा है । तो ऐसे ही जिसने हिंसा का त्याग नहीं किया वह बाह्य में हिंसा न करते हुए भी अंतरंग हिंसा कर सकता है । यह हिंसा का प्रकरण चल रहा है कि हिंसा का त्याग न हो तो हिंसा में चाहे प्रवृत्ति की हो अथवा न की हो, प्रमाद कषाय योग ये सब मौजूद हैं इस कारण खोटे भाव होने के कारण हिंसा ही है । मेरी प्रवृति करने से दूसरे जीव पर क्या गुजरती है, उससे हिंसा और अहिंसा का निर्णय नहीं है । होता है ऐसा कि अपना परिणाम खोटा है तब ही दूसरों का दिल दुखाते हैं, पर हिंसा होती है अपने स्वरूप का घात करने से । तब समझना चाहिए कि हम विषयों में फंसे रहे तो हमारी हिंसा है । हमारी शुद्धदृष्टि बने तो हम हिंसा से बच सकते हैं ।