वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 54
From जैनकोष
प्रागेव फलति हिंसाऽक्रियमाणा फलति फलति च कृतापि ।
आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ꠰꠰54।।
आशयवश अकृत व कृत हिंसा के फल का पूर्व, तत्काल व पश्चात् भोग―और भी देखिये विचित्रता किसी ने हिंसा करने का विचार तो किया कि मैं अमुक पुरुष को मार डालूं, परंतु अवसर न मिला तो हिंसा नहीं कर सका तो मैं अमुक को मारू ऐसा परिणाम करते समय ही उसके हिंसा का दोष लग गया, कर्म बंध गया और थोड़े ही समय बाद कर्म का फल भी भोग लेगा । बाद में वह हिंसा कर सका तो हिंसा का परिणाम करने से कहो हिंसा करने से पहिले ही उसका फल मिल जाये । इसी प्रकार किसी ने हिंसा करने का विचार किया और उस विचार से कर्म बंध गया । अब कर्म का फल उदय में आया तब तक वह हिंसा न कर सका तो उसने हिंसा करते ही समय फलभोग लिया । मतलब यह कि जो परिणाम गंदा रखेगा उसके आत्मा का घात हे, उसका उत्थान नहीं और संसार के संकटों से वह घिर जायेगा । तो परिणामों में प्रथम तो मोह न आये, मोह से महाघात है ꠰ पता ही नहीं कि यह दूसरा कौन है और मैं कौन हूँ । अपने स्वरूप का भान ही नहीं है, तो जहाँ अपने स्वरूप का भान नहीं वहाँ विषय कषायों का बंध लद जाता है, जहाँ दुःखी होता है व्यर्थ के संकल्प विकल्प करता है, इसका है कोई नहीं, पर मान रहा है कि यह मेरा है । यों अपने मन में अन्य जीवों के प्रति प्रीति जगती हे । देखो मोह हटाना तो एक सीधी सी बात है । केवल सही-सही ज्ञान कर लिया फिर मोह नहीं रह सकता । सभी जीव जुदे-जुदे कर्मफल भोगते हैं, सभी अपने-अपने उदय के अनुसार अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं । सभी का काम अपना-अपना न्यारा-न्यारा है । ऐसा जब निरखते हैं तो वहाँ मोह नहीं रहता । इतना भी जो निरीक्षण न कर सके उसके तो महामोह है ही । तो सबसे अधिक पाप है मोह का, उसके बाद विषय का । इंद्रिय के विषयों को भोगने की लालसा रखना । कुछ लोग ऐसे होते हैं कि जिन्हें सिनेमा देखे बिना चैन नहीं पड़ती । विषय के साधनों में प्रीति होना, इससे अपने में बसे हुए परमात्मा का घात होता है । पहिला परिणाम मोह है, दूसरा परिणाम है विषय । अब देखो कि विषयों के परिणाम से किसी दूसरे का कुछ घात नहीं किया ꠰ हम अपनी इंद्रिय पोस रहे हैं । हम ही अपने आप बढ़िया दवा पीकर मौज मान रहे हैं मगर उस मौज में आत्मा की भी तो कुछ सुध रहे । अपने चैतन्यस्वरूप का घात हुआ इसलिये सुख में मौज में विषय में हिंसा है । दूसरी है कषाय की चीज । क्रोध बड़े घमंड जगे, माया-चौर हो, पैसों का लोभ हो तो इन कषायों से भी आत्मा का घात है । मोह विषय और कषाय―इन तीनों से अपने परमात्मस्वरूप की हिंसा होती है इस कारण ये परिणाम न जगे तो समझिये कि हमने धर्म पाला और ये परिणाम जग रहें तो समझिये कि हम अपनी हिंसा करते चले जा रहे हैं ꠰