वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 59
From जैनकोष
अत्यंतनिशितधारं दुराशदं जिनवरस्य नयचक्रम् ।
खंडयति धार्यमाणं मूर्धांनं झटिति दुर्दिग्धानाम् ।꠰59꠰꠰
नयचक्र के विपरीत प्रयोग से अज्ञानियों की हानिभाजनता―जिनेंद्र भगवान का यह नयचक्र अत्यंत तीक्ष्ण धार वाला है जो कि अज्ञानी पुरुषों को शीघ्र ही काट डालता है अर्थात् अज्ञानीजन इस नय चक्र का सही ज्ञान नहीं कर पाते हैं तो वे संसार में ही रुलते हैं, पर जिसको बोध है इस शासन में वह नय चक्र का ठीक अर्थ लगाता है । जैसे जब कोई बात किसी हिंसा के संबंध में बहुत-बहुत बार आये, एक हिंसा करके अनेक लोग फल भोगें, सुनने वाले तो समझेंगे कि यह क्या कहा जा रहा हैं? जिसने हिंसा की है फल तो वह भोगेगा, पर यहाँ यह समझना कि एक पुरुष को किसी ने मार डाला, उसकी तारीफ करने वाले अगर 10 हैं तो दसों ही उसका फल भोगेंगे । क्योंकि भावहिंसा उन सबने की । उसका समर्थन किया तो हिंसा उन्होंने भी की और उन्होंने अपनी हिंसा का ही फल भोगा मगर मोटे रूप में जो दिखने में बात आयी कि मारा तो एक व्यक्ति ने और फल भोगा दसों बीसों लोगों ने । एक हिंसा करे और अनेक फल भोगे । ऐसे ही अनेक लोग हिंसा करें और फल भोगा एक राजा ने । सेना को दूसरी सेना पर आक्रमण करने का आर्डर दिया तो उन सिपाहियों ने हजारों लाखों जीवों की हत्या कर दी, पर जो प्रकरण की हिंसा है उस हिंसा का फल राजा को लगा । हिंसा न कर सके और हिंसा का फल पहिले भोग लें यह सब नयदृष्टि से ही तो सुलझता है । किसी जीव को मारने का संकल्प करते ही हिंसा लग गयी । चाहे मार सके वह 10 वर्षों में, पर मारने का संकल्प जब किया तभी हिंसा लग गयी और उसका फल भी भोगेगा, यह नयदृष्टि से ही तो लिखा है । हिंसा न करके भी हिंसा का फल भोगे तो यह सब नय भेद समझना बहुत कठिन है । सो जो कोई मूढ़ आदमी बिना समझे ही नयचक्र में प्रवेश करता है वह लाभ के बदले हानि ही प्राप्त करता है ।