वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 67
From जैनकोष
आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु ।
सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम् ꠰꠰67꠰।
मांस की सर्वदशाओं में निरंतर जीवों की उत्पत्ति―मांस ऐसी निंद्य वस्तु है कि चाहें पका मांस हो चाहे कच्चा मांस हो, समस्त मांसों में उस जाति के जीवों का निरंतर उत्पाद होता रहता है । याने मांस कच्चा हो उसमें भी जीव उत्पन्न होते रहते हैं, अत: उसमें भी पाप होता है और पक रहा हो उसमें भी निरंतर उत्पन्न होता रहता है । कितनी विलक्षण बात है कि पके हुए मांस में भी जीव उत्पन्न होते रहते हैं । तो मांस की डलियां सही अवस्था में कच्चा हो तो, पक रहा हो तो उस ही मांसरूप नये-नये जीव उत्पन्न होते रहते हैं तो समस्त जीवों का घात होता है, अत: मांसभक्षण करने वाले के बहुत बड़ी हिंसा चलती रहती है । हिंसा चलती है तो संसार का बंध बढ़ता है और हिंसा दूर रहे तो संसार का बंधन कटता है ।