वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 88
From जैनकोष
धनलवपिपासितानां विनेयविश्वासनाय दर्शयताम् ।
झटिति घटचटमोक्षं श्रद्धेयं नैव खारपिटकानाम् ।।88।।
लुब्ध अज्ञानियों का शरीरवियोग करने में मोक्ष बताने का कुतर्क और उसका समाधान―कुछ कुतर्की ऐसा तर्क पेश करते हैं कि जैसे घड़े में कोई चिड़िया बंद है और घड़े को फोड़ दिया जाये तो चिड़िया उड जायेगी, स्वतंत्र हो जायेगी, सुख में आ जायेगी, ऐसे ही यह आत्मा इस शरीर में दबा हुआ है, शरीर में बंद हैं तो शरीर फोड़ दिया जाये याने शरीर को काट दिया जाये तो यह आत्मारूपी चिड़िया शरीर से अलग होकर सुखी हो जायेगी । इसलिए जिस चाहे जीव को ऐसी दया करके मार डालना चाहिये ऐसा कुछ लोग कुतर्क रखते हैं, खोटे विचार रखते हैं और देखो इस ही विचारधारा को ही वे लिए थे जो शायद अब तो नहीं करते हैं, जैसे काशी करौत और ओंकारेश्वर में एक ऊंची जगह बना रखा है जहाँ से सीधे नीचे चट्टानों पर गिरते थे, सुनते कि वहाँ से ऊपर से पटककर धक्का दे दिया जाता था और नीचे चट्टान पर गिरकर मरण हो जाता था, उससे लोग समझते थे कि अब मरने वाला मुक्त हो गया । ऐसे-ऐसे स्थान निकट पूर्व में बने हुए थे जो स्थान अब भी दिखते हैं, इस प्रकार धर्म के नाम पर मनुष्यों को मारा जाता था और वे मनुष्य अज्ञानवश धर्म के नाम पर मरने के लिये तैयार हो जाते थे । कोई पंडा किसी को जबरदस्ती न पटकता था किंतु धर्म के आवेश में आकर मिथ्या श्रद्धान से खुद जाकर उन पंडों से प्रार्थना करते थे कि मुझे इस शिला से पटककर मारकर मुक्त करा दो ꠰ इस तरह उनका प्राणांत किया जाता था, उसमें वे अपनी मुक्ति समझते थे । आचार्यदेव कहते हैं कि यह बिल्कुल मिथ्या श्रद्धान् है, मूर्खता भरा अभिप्राय है । यह तो थोड़े से धन की चाह रखने वाले पुरुषों ने एक प्रोपेगंडा किया है और इस तरह मारने की प्रक्रिया बनायी है क्योंकि वे यात्री लोग जो धर्म तथा तीर्थ के लिए निकलते थे वे किसी आवेश में आकर यह चाहने लगे कि झट मेरी मुक्ति हो जाये, झट मैं भगवान के पास पहुंच जाऊं । इस अभिप्राय से वे पंडों को दान दक्षिणा देते थे अपनी मुक्ति के लिये और उन्हें मार डाला जाता था । यह कोई धर्म की बात न थी । यह तो थोड़ा पैसों के लालची पुरुषों ने ऐसा ढोंग रच रखा था । यह तो महापाप वाली बात है । ऐसा विश्वास करके हारपटिक मत के ढंग से शरीर के छुटाने का निषेध किया है कि इस तरह से अपने प्राण घात मत करो । इसमें तकनीक होती थी । पर्वत से गिरकर मरते समय आप अंदाज लगा सकते हैं कि वे कितना तड़प-तड़पकर संक्लेश में मरने वाले प्राणी क्या सद᳭गति को प्राप्त कर सकते हैं? कदापि नहीं । अहिंसा का स्वरूप ही विलक्षण है और मूल में तो यह बताया है कि संकल्प-विकल्प, रागादिक पापों के अभिप्राय उत्पन्न न हों, उसका नाम अहिंसा है । तो इस प्रकार भी अपने प्राणों का घात न करना चाहिये ।