वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 102
From जैनकोष
विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण ।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति ।।102।।
(388) त्रियोग से पंचप्रकारविनयपालन का उपदेशा―आत्मन् ! यदि अपना अभ्युदय चाहता है, सदा के लिए अपने को संसार के सकल संकटों से दूर रखना चाहता है तो मन, वचन, काय से 5 प्रकार के विनय का पालन कर क्योंकि विनयरहित मनुष्य सुविहित अर्थात् विधि से प्राप्त होने वाले अभ्युदय और मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते । विनय 5 प्रकार के कहे गए―(1) सम्यग्दर्शन विनय अथवा सम्यग्दृष्टि पुरुष का विनय, (2) सम्यग्ज्ञान विनय सम्यग्ज्ञान के धारी पुरुषों का विनय, (3) सम्यक्चारित्र विनय―सम्यक᳭चारित्र के धारण करने वाले मुनिवरों का विनय, (4) सम्यक् तपविनय―तपस्वी पुरुषों का विनय, और (5) उपचार विनय―पूज्य पुरुषों के प्रति यथायोग्य हाथ जोड़ना, यह उपचार विनय है । पूज्य पुरुष सामने दृष्टिगत हों तो उस समय क्या हाथ लटकाये खड़े रहकर मेढ़े की तरह देखते रहना चाहिये? भाव विनय से गुरुजनों के प्रति हाथ जोड़कर यथायोग्य वचन कहना यह उपचार विनय है । उनके चरणों में पड़ना, चरणों का स्पर्श करना यह उपचार विनय है । जिनके अभिमान है और अपने आपको कुछ समझ रहे हैं अज्ञानवश, ऐसे पुरुष अभिमान से भरे हुए होते हैं, उन्हें चाहे तुच्छ जीवों के भी हाथ जोड़ने पड़े, जैसे ग्राहक आया कोई नीच है, चांडाल है फिर भी हाथ जोड़ें, विनय करें, मनायें, मगर पूज्य पुरूषों के प्रति उनके हाथ नहीं जुड़ सकते, महापुरुषों के प्रति सद᳭भावना नहीं बन सकती, गुणप्रमोद नहीं हो सकता, सद᳭वचन नहीं कहे जा सकते, यों धर्म के विषय में इतनी तीव्र कषाय होना अनंतानुबंधी कषाय कहलाती है । जिनको अपने उद्धार की भावना है उनका कर्तव्य है कि धर्मीजनों को देखकर उपचार विनय करना । पूज्य पुरुष आ रहे हों उनको आते देखकर उठकर या भले पधारे आदि किसी प्रकार उस शुभागमन के प्रति शब्द कहना, यह उपचार विनय है ।
(389) विनयपालन का माहात्म्य व अविनय का फल―हे निकट भव्य, तू इन सब विनयों का मन, वचन, काय से पालन कर । मन भी विनयशील हो, वचन भी नम्र हों और काय की चेष्टा भी सही हो । विनय का बड़ा महत्त्व है । विनय संपन्नता तीर्थंकरप्रकृति के बंध के कारणभूत सोलह कारण भावनाओं में दूसरी भावना है विनयसंपन्नता । विनय का इतना माहात्म्य है । इन भावनाओं के प्रताप से जिसके तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है वह अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होता है । तीर्थंकर प्रकृति के बंध बिना भी मोक्ष होता है, किंतु एक यह विशेषता है कि उस आत्मा का विशिष्ट सद्भाव है कि जिसके प्रताप से तीर्थंकर होता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है । किंतु विनयरहित पुरुष न तो सांसारिक अभ्युदय प्राप्त कर पाते हैं और न मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं । इस कारण हे निकट भव्य ! तू त्रियोग से पंच प्रकार के विनयों का पालन कर ।