वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 103
From जैनकोष
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि ।
तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ।।103।।
(380) मुनिवरों को दसनिध वैयावृत्य करने का उपदेश―हे महायश, हे साधुजन अपनी शक्ति के अनुसार भक्ति से, अनुराग से जिनभक्ति में तत्पर पुरुषों की वैयावृत्ति करो । पहले बताया गया था, वैयावृत्ति के 10 भेद हैं―आचार्यवैयावृत्य, उपाध्यायवैयावृत्य आदि । उन 10 प्रकार के धर्मात्माजनों की तू विनयपूर्वक वैयावृत्ति कर । जिसको धर्म के प्रति प्रेम होता है उसका धर्मात्माजनों से लगाव होता है । यह एक प्राकृतिक बात है । जिसको पुत्र में मोह है उसको पुत्र ही पुत्र का स्वप्न आता है । जिसको धर्म की धुन है उसे धर्मभाव और धर्मभाव के धारण करने वाले धर्मात्मा पुरुष इनमें भक्ति पहुंचती है । और जिनमें भक्ति पहुंची उनकी हर प्रकार से सेवा करने का परिणाम रहता है । तू यह तो निर्णय कर कि अपना साथी वास्तव में है क्या? “धर्म बिन कोई नहीं अपना ।” खूब निर्णय कर लो, जगत में अनेकों मनुष्य मिलेंगे, मगर उनसे क्या लाभ होता है अपने आपमें विशुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और संयमी जनों के प्रति रुचि करते हैं तो उसका फल उत्तम है शांति है । मगर अवशिष्ट रागवश कर्मबंध चल रहा है तो ज्ञानी के सातिशय पुण्यबंध चलता है । जिसके उदय में स्वयं ही अनेक ऐसे साधन मिलते हैं कि जिनमें निश्चिंत रहते हुए आगे धर्मसाधना में बढ़ते रहते हैं ।
(391) सर्व परतत्त्व की उपेक्षाकर ज्ञानानुभव में लगने का कर्तव्य―एक बात यहाँ यह जानें कि इस समय भी कोई असुविधा वाले पुरुष नहीं हैं, जो भी बैठे हैं सभी समाज के बंधु यथायोग्य सुविधा वाले हैं और तृष्णा के द्वार से देखें तो किसी को भी शांति नहीं है और शांति रखकर मोक्षमार्ग में बढ़ने की रुचि हो सो सबके लिए सुविधा है । जितना जो कुछ अर्जन होता है उतने ही में गुजारा करते हुए धर्ममार्ग में आगे बढ़ सकते हैं । कोई कहे कि हमारे पास कुछ सामग्री नहीं है कि हम भले प्रकार गुजारा कर लें तो जरा अपने से अधिक गरीबों पर दृष्टि करके तो देखें, कम में भी गुजारा होता कि नहीं । अरे संसार की अन्य स्थितियों पर क्या ज्यादह ध्यान देना । जो कर्मोदय को मंजूर है सो हमें मंजूर है, क्योंकि उसमें मेरा कुछ लगाव नहीं । मुझमें यह कला है कि जो भी स्थिति होगी उसी में गुजारा कर सकेंगे । आत्मानुशासन में बताया है कि कर्म ज्यादह से ज्यादह कष्ट की बात कोई कर सकेंगे तो दो बातें कर सकेंगे (1) निर्धनता और (2) मरण, किंतु ज्ञानी यह कहता है कि मैं तो निर्धनता और मरण दोनों का स्वागत करता हूँ । उसको अंतरंग में ऐसा ज्ञानबल मिला है कि वह निर्धनता में अधिक आनंदमग्न रह सकता है । और मरण को समझता है कि यह तो माया स्वप्न की बात है, मेरा कहीं मरण हो सकता है क्या? मैं तो सद्भूत पदार्थ हूँ । किसी की भी सत्ता का कभी नाश नहीं हो सकता । मेरा मरण ही नहीं है । जैसे कोई पुराना कमरा बदलकर नये कमरे में पहुंचता है, ऐसे ही यह मैं पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर में पहुंचता हूँ । फिर एक बात और समझें―जन्म के बाद किसी का कल्याण नहीं होता, मरण के बाद कल्याण होता है । जन्म के बाद मोक्ष कभी नहीं मिलता, मरण के बाद मोक्ष मिलता है । मरणशून्य जन्म कोई नहीं होता, पर जन्म शून्य मरण हुआ करता है । तो जन्म और मरण इन दोनों की तुलना करें तो मरण का महत्त्व विशेष है । जो निर्धनता की ही वास्तविक धनिकता समझे और मरण को ही अपना सत्य जीवन समझे उनके लिए कर्म और क्या करेंगे? तो धर्म के प्रति जिनको अनुराग है उन धर्मात्मा जनों की भक्ति सेवा में रहें । सेवा का विशिष्ट पुण्य भी होगा और परंपरा में मोक्ष भी प्राप्त होगा ।