वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 105
From जैनकोष
दुज्जणवयणचडक्कं निट्ठुरक्डुयं सहंति सप्पुरिसा ।
कम्ममलणासणट्ठं भावेण य णिम्ममा सवणा ।।105।।
(396) आत्महित के अर्थ निष्ठुर कटुक दुर्जनवचन सह लेने का उपदेश―जिन पुरुषों को आत्मा के सहज स्वभाव की रुचि हुई है उन दिगंबर मुनियों का एक ही लक्ष्य रहता है कि मेरी दृष्टि स्वभाव में ही रमे । ऐसी धुन रखने वाले पुरुष दुर्जन मनुष्यों के वचन की चपेट समता से आनंद पूर्वक सह लिया करते हैं । वचनों की चपेट बहुत कठिन चपेट है । हर एक आदमी की बात सह ली जाये, यह जरा कठिन है जिसको ज्ञानबल है, अपने आत्मा के स्वरूप की सुध है, जो सत्यस्वरूप जानता है । मेरा सर्वस्व मुझमें है, मेरा सब कुछ मेरे ही परिणाम से होता है, सर्व कुछ जिसको भली भांति निर्णीत है उस पुरुष को दुर्वचन की चपेट सह लेना आसान है । वह तो उल्टे वचन बोलने वाले पर भीतर से दया रखता है । क्या करे बेचारा, यह तो बड़ी विपत्ति में फंसा है । इस पर अज्ञान की विपत्ति छायी है । इसको अपने स्वरूप की सुध नहीं है, सो यह सब निमित्तनैमित्तिक भाववश हो रहा है । परमार्थत: तो यह परम ब्रह्मस्वरूप चेतन पदार्थ है, मगर कर्मविपाक का ऐसा संयोग चल रहा कि यह घटना घट रही है इस पर । ज्ञानी पुरुष तो खोटे वचन बोलने वाले पर भीतर में करुणा रखता है, वह उस पर रोष क्या करेगा? तो हे मुने! अपने आपके स्वरूप की सुध रख और किसी पर रोष मत कर ।
(397) कर्ममलविनाश के अर्थ दुर्जन कटुकवचन सुनकर भी ज्ञानी के क्षोभ का अभाव―
जो दुष्ट मिथ्यादृष्टि हैं, नाम मात्र के श्रावक हैं वे गुरु और देव की निंदा करते हैं और अप्रिय शब्दों से उनको संबोधते हैं उनको कोसते हैं, किंतु उनके निर्दयता पूर्ण ये शब्द ज्ञानी जनों को चुभते नहीं हैं । वे जानते हैं कि जैसे किसी मां का कोई बेटा कुपूत निकल गया, तो वह बेटा अपनी मां को अटपट शब्द बकता है पर वह मां उससे बुरा नहीं मानती । वह जानती है कि मेरा बेटा कुपूत निकल गया, इसलिए ऐसे दुर्वचन बोलता है, तो ऐसे ही धर्मात्मा साधु त्यागी ज्ञानी मुनि ये इस धार्मिक समाज के मां हैं, मानों समाज के सब लोग इनके पुत्र हैं उनकी कोई निंदा कर रहे तो वे यह देखते हैं कि मेरे ही परिवार के लोग ये कुपूत पैदा हुए सो उनकी बात का क्या बुरा मानना? वे तो जानते हैं कि ऐसा ही हो रहा । तो ज्ञानी दिगंबर सम्यग्दृष्टि मुनि अथवा धर्मात्मा सम्यग्दृष्टि गृहस्थ अपने कर्ममल को धोने के लिए दुर्जन पुरुषों के दुर्वचनों को समता से सह लेते हैं । वे अपने आपमें क्षोभ उत्पन्न नहीं करते, क्योंकि ज्ञानी जन जिनको आत्मस्वरूप में धुन लगी है उनका लक्ष्य इन बाहरी थोथी बातों में नहीं जाता । इस कारण, इन मुनि जनों को दुर्वचन सुनकर भी क्षोभ उत्पन्न नहीं होता । सो हे महा मुने ! तुमने जब सर्व संगों का त्याग किया है, निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्रा में रहते हो तो कर्ममल के नाश के अर्थज्ञान में रुचि रखकर, ज्ञान की धुन रखकर अपने इन व्रतों को सफल करो ।