वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 106
From जैनकोष
पावं खवइ असेसं खमाए परिमडिओ य मुणिपवरो ।
खेयरअमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ ।।106।।
(398) क्षमा के लिये ज्ञानी का चिंतन―जो क्षमा से सहित है वह मुनि समस्त पापों का क्षय करता है और जगत में विद्याधर, देव, मुनि सभी उसकी प्रशंसा करते हैं । क्षमा मायने क्या है? क्रोध न आने देना । क्रोध न आने देवे इसका उपाय क्या है? अपने आत्मा का जो स्वरूप है अविकार स्वरूप, ज्ञानस्वरूप, सहज आनंदमय स्वरूप, उस चैतन्यस्वरूप में यह ध्यान रखना कि मैं तो यह हूँ और इस मुझ को यह कोई लोक जानता भी नहीं, जो मेरा वास्तविक स्वरूप है उसे कोई नहीं जान रहा । तो जब मुझे कोई नहीं जान रहा तो कोई मुझे गाली ही क्या दे सकेगा? तो अपने को चैतन्यमात्र अनुभव करें तब ही असली क्षमा आ सकती है । लौकिक क्षमा में तो एक ने दूसरे से माफी मांग ली तो उससे भीतर में क्षमा हो ही गई सो बात नहीं है । पर ज्ञान अपने ज्ञान में आये तो उसने अपने को क्षमा कर लिया ।
(399) क्षमा द्वारा ज्ञाता की मुक्ति―उत्तम क्षमा के द्वारा समस्त कर्म दूर होते हैं । जब 63 प्रकृतियां नष्ट होती हैं तब अरहंत भगवान होते हैं । पूजा में कहते हैं ना―कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाश । कर्मों की 63 प्रकृतियों को नष्ट करके अरहंत भगवान होते हैं, फिर बाकी बची 85, तो उनमें से 72 का तो नाश अरहंत भगवान के उपांत्य समय में होता है सो वे सिद्ध हो जाते हैं । यह सब क्षमा का फल है । जब मुनि थे तब खूब क्षमा धारण किया, अंतरंग क्षमा, बहिरंग क्षमा । उस क्षमा के कारण कर्म का नाश होता है । इसलिए हे मुनिवरो ! क्षमा को धारण करो । क्षमा होने से तत्काल शांति है और भविष्य में भी शांति है । गृहस्थ भी क्षमा धारण करता है तो उसको भी परंपरया मोक्ष मिलेगा । तेज क्रोध अज्ञान में होता जब यह जीव जानता है कि यह देह मैं हूँ और दूसरे को जानता है कि जो देह है सामने वह दूसरा जीव है तो जब ही उसके मुख से कुछ अपशब्द निकले कि तब ही इसने यह माना कि इसने यह मुझसे अपशब्द बोला और उसके चित्त में बुरा लगता है तो वह भीतर कुढ़ता है या उस पर प्रहार करता है । दोनों ही दशा में इस जीव की दुर्गति होती है, इसलिए क्षमाभाव धारण करें । गृहस्थ क्षमा के प्रताप से स्वर्ग जायेगा और वहाँ से चलकर मनुष्य होकर मुनि होकर मोक्ष चला जायेगा ।