वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 118
From जैनकोष
सीलसहस्सट्ठारस चउरासी गुणगणाण लक्खाइं ।
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किं बहुणा ।।118।।
(464) शील के मूल 9 भेद―हे मुने, अधिक प्रलाप करने से क्या लाभ ? तू प्रतिदिन शील के अट्ठारह हजार तथा उत्तर गुणों के चौरासी लाख भेदों का बार-बार चिंतवन कर यही चिंतन चलेगा, उसकी वृत्ति जगेगी अतएव इसका भाव बनाना अतिआवश्यक है । 18 हजार प्रकार के शील इस प्रकार हैं कि शील कहते हैं दुर्भावनाओं का विनाश करने को ऐसा सद्भाव होना जिससे कि खोटे भाव नष्ट हों, उसे कहते हैं शील । तो दुर्भाव हुआ करते हैं मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से इन दुर्भावनाओं की उत्पत्ति चलती है, उसका मूल कषाय है और भी सभी बातें आयेंगी अभी । तो तीन योग जिनके शुभ अशुभ दो प्रकार के भेद हैं और कुछ ऐसे हैं कि शुभ और अशुभ से मिले हुए हैं । तो तीन तरह की बातें हो गई, शुभ, अशुभ और शुभाशुभ, ऐसे ही तीन होते हैं मन, वचन, काय इस तरह 33=9 भेद हुए । अब इनके शील की व्यवस्था यों है कि अशुभ मन, वचन, काय योग शुभ मन से घाते जाते हैं और वे ही तीनों अशुभ योग शुभवचन में घाते जाते हैं । और वे भी तीनों अशुभ योग शुभ काय से नष्ट किए जाते हैं । ऐसे ये 9 प्रकार के शील हुए । अथवा 9 भेद इस प्रकार हैं । मन से, वचन से, काय से करना, कराना और अनुमोदना तो ऐसे 9 प्रकार के पापों को दूर करें तो ये 9 भेद शील के हुए ।
(465) शीलमूलप्रतिपक्ष नौ के चार संज्ञाओं से हुए छत्तीस कुशीलों पर पंचेंद्रिय के विजय से जीत पाने के कारण शील के एक सौ अस्सी भेद―ये 9 प्रकार के पाप चार संज्ञाओं के वश होकर किए जाते हैं, तो चार संज्ञाओं से ये 9 बातें बनीं तो यों 36 भेद हुए । इन 36 प्रकार के दुर्भावों को पंचेंद्रिय विजय से दूर करना स्पर्शनविजय, रसनाविजय, घ्राणविजय, चक्षुर्विजय और कर्णविजय । हम आप सैनी है तो हम सबमें मन की प्रेरणा रहा करती है । तो पहले तो मनोभावों को ज्ञानबल से परास्त करना, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, स्वरूप में अकेला हूँ, अपने आपमें परिपूर्ण हूँ और अपने में ज्ञानपरिणमन रूप से निरंतर रहा करता हूँ । यही मेरा सारा लोक है और इसमें ही मेरी सारी व्यवस्था है । इस ही को निरखना है । यदि बाहर में मेरा उपयोग कहीं जाये तो वही मेरा घात है । जैसे मछली अपने पानी के स्थान को तजकर बाहर फिक जाये जमीन पर, रेत पर तो वह तड़फ-तड़फकर मर जाती है ऐसे ही यह उपयोग अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर बाहर में किसी भी इंद्रिय विषय पर जाये तो यह भी संक्लिष्ट होकर बरबाद हो जाता है संसार में जन्ममरण के चक्कर लगाता रहता है । आत्मचिंतन यह ही एक बल है कि जिससे हम शांत सुखी हो सकते हैं । और यह बिल्कुल प्रायोगिक बात है । बाहर में उपयोग किसी भी विषय पर गया तो (1) परपदार्थ से हमने अपना जुड़ाव लेना चाहा और जुड़ाव होता नहीं, ये अनहोनी को भी होनी करना चाहते हैं, इसलिए कष्ट है । (2) दूसरे जिस पदार्थ पर यह उपयोग देता है वह पदार्थ स्वयं-स्वयं के आधीन है । वह मेरे आधीन नहीं बनता । तो अपनी कषायवृत्ति के प्रतिकूल निरखकर या कल्पनायें करके यह कष्ट पाता है । (3) तीसरा यह उपयोग अपने शांतिधाम चैतन्यस्वरूप को तजकर अन्य प्रकार चलने लगा तो जैसे कोई कुलीनता छोडकर अन्य ढंग से व्यवहार करे तो उसको संक्लेश होता है । ऐसे ही इस उपयोग ने अपनी कुलीनता छोड़कर बाहर में लगाव बनाया है तो इसमें दुःखी होना प्राकृतिक बात है । तो उन सबका विजय करना । पंचेंद्रिय का विजय जबरदस्ती के त्याग से तो नहीं होता मगर वह भी एक साधन बनता । विजय होती है विशुद्ध ज्ञान के बल से, क्योंकि विषयवृत्ति में भी ज्ञान का ही योग रहा था, वह रहा विकाररूप से । तो ज्ञान के ही प्रयोग से वह दूर किया जा सकता है । तो उन 36 प्रकार के दुर्भावों को पंचेंद्रिय विषयविजयों से दूर करना । यों 36 में 5 का गुणा होने पर 365=180 प्रकार के शील बने ।
(466) शील के 180 भेदों को दस दया से गुणित कर दस धर्मो से गुणित करने पर शील के अट्ठारह हजार भेद―शील में केवल एक ब्रह्मचर्य वाली ही बात नहीं है । वह तो है, पर अहिंसात्मकता आये ये सब शील में गर्भित हैं । तो 10 प्रकार के जीवों की दया के 10 का गुणा उनमें किया जाये । वे 10 कौन हैं? पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, दोइंद्रिय, त्रिइंद्रिय, चारइंद्रिय, सैनी पंचेंद्रिय, असैनी पंचेंद्रिय, इन 10 प्रकार के जीवों की दया करना यह उसके साथ गुणित है । यों 1800 भेद हुए और वे 1800 प्रकार के शील 10 धर्मों से गुणित हो जाते हैं, उनके साथ पाले जाते हैं तो वे 18000 भेद हो जाते हैं । सर्व जीवों पर दया का भाव―खुद को क्षमा करें तो सब पर क्षमा का भाव बनता और खुद में कषाय रखे, दूसरों को पीड़ा पहुंचाने का भाव रखे, चाहे वह खुदगर्जी में हो, चाहे वह किसी विरोध से हो तो वहाँ न खुद को क्षमा है और न दूसरे को क्षमा है । और जहाँ क्षमा नहीं आत्मा का जो स्वभाव है वह स्वभाव जैसे विकसित हो उस प्रकार की वृत्ति उसका नाम है शील । तो उसके विकास के लिए घमंड का त्याग चाहिए । ज्ञानबल से उस घमंड को दूर करना । यदि मैं अपने गुणों पर दृष्टि दूं तो वे गुण हैं प्रभु समान और यदि दोषों पर दृष्टि दूं तो यह हूँ मैं अनेक कषायों से दूषित । घमंड होता है बीच की बात में । अगर अनंत गुणों पर दृष्टि हो तो अभिमान न जगेगा और दोषों पर दृष्टि हो तो अभिमान न जागेगा । जैसे कहते हैं―‘अधजल गगरी छलकत जाय ।’ जो बीच की बातों पर दृष्टि दी तो उससे होती अभिमान वृत्ति । तो शील प्राप्ति के लिए अभिमान का छोड़ना, मायाचार का छोड़ना, सरल रहना आवश्यक है । जैसे किसी को धन की तीव्र तृष्णा है तो वह उस धन प्राप्ति के लिए अपना सब कुछ बलिदान करने के लिए तैयार रहता है ऐसे ही जिसको अपने आत्मस्वभाव में लीन होने की धुन है वह अपनी सब प्रकार की कषायों का बलिदान कर सकता है । यहाँ किसके लिए मायाचार करना? सरल रहना, लोभ का त्याग करना । लोभ धन का भी होता, लोभ अंश का भी होता, लोभ ख्याति का, प्रशंसा का नाम का अनेक तरह के लोभ हुआ करते हैं सभी प्रकार के लोभों का त्याग करना और स्वयं को यथार्थ सत्य और प्रवृत्ति भी सत्य वचन की रखना । अहितकारी वचन नहीं, मृषा वचन नहीं, अपरिमित वचन नहीं, और इस प्रकार से अपने को संयम में रखना तो यही होता है अपने चैतन्य में एक प्रतपन । यह एक बड़ा तपश्चरण है । लोग कहते हैं कि चित्त लगाना है अपने आत्मा में और नहीं लगता है, सो कोई लगाये तो वह तपश्चरण है कि नहीं? वहाँ भी प्रतपन चलता है, चेतन का प्रताप भी चलता है । तो अपने आपके स्वरूप में अपने उपयोग को स्थिर करना यह एक चैतन्यप्रताप है, तपश्चरण है, फिर समस्त परभावों का त्याग स्वयं होता, उनमें उपेक्षा करना, एक भी परभाव मेरे हित के लिए नहीं है । परभाव क्यों कहलाते हैं ये विकार? पर का निमित्त पाकर होने वाले जो अपने भाव हैं वे परभाव कहलाते हैं । जितने भी विकार होते उनमें निमित्त परसंग ही होता है । यदि आत्मा ही निमित्त बन जाये और आत्मा ही विकार करने वाला है तब तो सदा विकार करते रहना चाहिए । परभावों का त्यागी जो होगा वह अपने आपमें अपने को अकिंचन अनुभव करेगा । इसने अपने को न जाने क्या-क्या मान रखा था । मैं पंडित हूँ, त्यागी हूँ, मुनि हूँ, श्रावक हूँ, जैन हूँ, अमुक हूँ, तमुक हूं....इस देह के नाते से इसने अपने को नानारूप मान रखा था । तो हूँ मुनि, अब तू उन सब किंचनों को त्याग और अपने को ज्ञानमात्र अनुभव कर । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ और यह भी एक लक्ष्यरूप में, इस तरह के विकल्प रूप से नहीं, अन्यथा वह भी एक किंचन बन जायेगा । तो ऐसे अकिंचनभाव में जब यह जीव आता है तब इसके ब्रह्मचर्य बनता । जिसे कहते हैं शील की परिपूर्णता । जो आत्मतत्त्व है, ब्रह्मस्वरूप है उसमें मग्न होना, लीन होना, सिद्ध भगवान का स्वरूप विचार कर अपने आपके लिए वही भावना करना यही स्थिति सर्व संकटों से परे की स्थिति है । सो हे मुने, इन अट᳭ठारह हजार शीलों का चिंतन कर अपने को परिपूर्ण शीलमय रखो ।
(467) ब्रह्मचर्य की मुख्यता से शील के अट्ठारह हजार भेद―अट्ठारह हजार शील इस प्रकार से भी परखिये जो ब्रह्मचर्य की मुख्यता से हैं । इनमें 720 तो अचेतनसंबंधी शील हैं और शेष चेतनसंबंधी । अचेतनसंबंधी 720 व चेतनसंबंधी 17280 यों कुल 18000 शील हुए । तीन प्रकार की अचेतन स्त्री एक तो काठ की बनी स्त्री, एक पत्थर की मूर्ति वाली स्त्री और एक कागज आदि पर स्याही आदि का लेप करके बनी स्त्री, इन तीन में मनोयोग और काययोग से वृत्ति होना, तो ये 6 भेद हुए । वचनयोग की यों बात नहीं यहाँ लिख रहे हैं कि अचेतन से वचन कौन बोलता । सभी लोग जानते हैं कि यह सुनेगा नहीं । तो तीन अचेतन स्त्री में मनोयोग व वचनयोग से । इन 6 विकारों को कृत कारित अनुमोदना से किया तो 18 भेद और ये स्पर्श आदिक 5 विषयों से किया तो 90 भेद हुए और इनमें द्रव्यरूप और भावरूप हुआ तो 180 और ये क्रोध, मान, माया, लोभ के वश किए गए इस तरह 180 गुणा 4 करने पर 720 अचेतन संबंधी कुशील हैं । और, चेतन संबंधी कुशील में तीन गति में स्त्रियां हैं देवी, मानुषी और तिर्यंचिनी, नरक में नहीं होती स्त्री । इनमें कृत कारित अनुमोदना से दुर्भाव, तो ये 9 हुए, और मन, वचन, काय से 9 हुए तो 27 गुना फिर पांच विषयों के साथ 135 हुए, 135 ये द्रव्यरूप अथवा भेदरूप होने से 270 भेद हुए । और ये सब बोलना है 4 संज्ञाओं के साथ तो 270 को 4 से गुणा करने पर 1080 भेद हुए, और ये होते हैं 16 कषायों में तो इनमें 16 का गुणा करने से 17,280 भेद हुए । इन कुशीलों का परित्याग हो तो ये 18000 शील के भेद कहलाते हैं ।
(468) मुनियों के चौरासीलाख उत्तरगुण―हे मुने ! इस शील के प्रकारों का चिंतन कर और 84 लाख उत्तरगुणों का चिंतन कर । उत्तरगुण क्या कहलाते हैं कि दोषों में सूक्ष्म से सूक्ष्म दोषों का जो निवारण किया जाता है वे उत्तरगुण हैं । अब उनमें मूल बतला रहे कि 21 दोष छोड़ने योग्य होते हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये सब दोष हैं, क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, रति के साथ हास्य आ गया, अरति के साथ शोक आ जाता, उनको अलग से नहीं गिन रहे, मन की दुष्टता, वचन की दुष्टता, और काय की दुष्प्रवृत्ति, मिथ्यात्व, प्रमाद, चुगली । चुगली―यह बहुत बड़ा दुर्गुण है । यहाँ की बात वहाँ भिड़ाना वहाँ की यहाँ भिड़ाना यह सब चुगली है । अज्ञान और 5 इंद्रिय का निग्रह न करना ये सब 21 दोष त्याज्य है । ये दोष बनते हैं चार ढंगों से―(1) अतिक्रम, (2) व्यतिक्रम, (3) अतिचार और (4) अनाचार । कोईसा भी नियम लिया हो उसका विनाश अतिक्रम से, उससे बढ़कर व्यतिक्रम से, उससे बढ़कर अतिचार से और उससे बढ़ने पर अनाचार से होता है । मन की शुद्धि न रहे तो वह अतिक्रम, फिर विषयों की अभिलाषा जगे तो वह व्यतिक्रम, फिर उन नियम और क्रियावों के करने में आलस्य हो तो वह अतिचार और उनका भंग हो जाये तो वह अनाचार । ये 21 बातें 4 प्रकारों में चलती हैं तो ये 21 गुणा 4 करने पर 84 भेद हुए और ये सब दश कायिकों के दयारूप संयमों का 100 जीवसास से गुणा करने पर 8400 भेद होते हैं कुशील की 10 विराधनायें है―(1) स्त्रीसंसर्ग, (2) सरसाहार, (3) सुगंध संस्कार, (4) कोमल शयनासन (5) शरीरमंडन (6) गीत वादित्र श्रवण (7) अर्थग्रहण (8) कुशील संसर्ग, (9) राजसेवा और ( 10) रात्रिसंचरण इन 10 प्रकार की विराधनाओं से फिर इनकी आलोचना में 10 प्रकार के दोषों का परिहार न हो तो भी ऐब है । उन 10 दोषों का त्याग करें, उनमें इन 10 का गुणा करने से 840000 (आठ लाख चालीस हजार) भेद हुए, फिर ये दस धर्मों से गुणा किए जायें तो यों ये चौरासी लाख उत्तर गुण होते हैं । बतलावो 5 पापों का सूक्ष्म विधि से भी त्याग होना ही तो उत्तर गुण हो रहा है, सो हे मुने ! तू 84 लाख उत्तर गुणों का भी चिंतन कर ।
(469) भावना की सफलता―जो बात विचार में आयेगी बार-बार, वह करने में भी आयेगी । तो यह हुई एक प्रवृत्तिरूप बात और उस सबका मूल साधक है अविकार ज्ञानस्वरूप अपने आपके स्वभाव को निरखना । मैं हूँ । एक ही हूँ । जो सत् हूँ सो स्वयं हूँ । और मैं जो स्वयं हूँ सो अविकार हूँ । मेरे स्वभाव में विकार नहीं । विकार होते हैं पर का निमित पाकर । जैसे द्रव्य गुण से निरंतर परिणमन चलता इस तरह विकार भी स्वभाव से चलता होता असाधारण गुण रूप से या साधारण गुण रूप से तब तो इसके विकार हटना असंभव था । पर मैं स्वयं ज्ञानमात्र अविकार स्वरूप हूँ । ये विकार पर प्रसंग से आते हैं । मैं पर की उपेक्षा कर अपने स्वभाव में दृष्टि रखूं तो ये मेरे सब परप्रसंग दूर हो जायेंगे । इस प्रकार हे मुने ! तू इन शील और उत्तर गुणों का चिंतन कर ।