वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 124
From जैनकोष
जह बीयम्मि य दड᳭ढे ण वि रोहइ अकुरो य महिवीढे ।
तह कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं ।।124।।
(493) कर्मबीज के दग्ध होने पर भवांकुर की अनुपपत्ति―जैसे बीज के जल जाने पर पृथ्वी पर नया अंकुर उत्पन्न नहीं होता, ऐसे ही कर्मरूपी बीज के जल जाने पर मुनि के संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता । गेहूं का बीज क्या है? गेहूं का दाना, चने का बीज है चने का दाना तो ऐसे ही संसार का बीज है कर्मचेतना, कर्मफलचेतना । ये संसार के बीज हैं । जो बाह्य क्रियायें करके अहंकार करता कि मैं यह सब कर रहा हूँ तो उसे अपने अविचल सहजस्वभाव की सुध नहीं है और उस क्रिया में आत्मत्व जोड़कर अनुभव करता । वह मानता कि इसका मैं करने वाला हूँ, ऐसे ही कर्म के उदय में जो फल प्राप्त हैं, जो प्रतिफलित होता है उसे यह मानता है कि मैं इसका भोगने वाला हूँ उसे अपने सहज ज्ञानस्वरूप की सुध कहीं और उस ज्ञान की सहज शुद्धवृत्ति की सुध नहीं कि शुद्धवृत्ति स्वभाव का अर्थपरिणमन है । अगुरुलघुत्व गुण की षड्गुण हानि वृद्धि होती है, भगवान अरहंत सिद्ध में भी यह शुद्ध वृत्ति का परिणमन चलता ही रहता । उस वृत्ति की हानिवृद्धि बिना द्रव्य की सत्ता ही नहीं रह सकती । केवल ज्ञान के अनंत अविभाग प्रतिच्छेद हैं । कितने अविभाग प्रतिच्छेद हैं उसका कोई उदाहरण जगत में नहीं है । कोई कहे कि आकाश के अनंत प्रदेश होते हैं तो फिर ज्ञान के भी अनंत अविभाग प्रतिच्छेद हो गए । जैसे बताते हैं ना कि भगवान के ज्ञान में लोकालोक के सब पदार्थ झलकते हैं ऐसे ही ये लोकालोक कितने ही हों वे सब ज्ञान में आ जाते हैं । ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद सर्वाधिक अनंतानंत हैं, वहाँ हानि वृद्धि होती है, पर वहाँ यह समस्या न आयगी कि इनमें कहो होकर कभी इतनी कमी हो जाये कि वे पदार्थ जानने में ही न आयें । कुछ सर्वज्ञता में कमी आ जायेगी, ऐसा नहीं होता । उसे यों समझिये कि जैसे मानो समस्त लोकालोक 100 संख्या प्रमाण है और केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद हजार हैं, उनमें हानि हो जाये तो 100 तो हैं ही, उनमें हानि नहीं हुई । उतनी हानि हुई यह अर्थ परिणमन है । और ऐसा होता ही हैं । तो अपने ज्ञानस्वरूप और उस ज्ञान की शरण शुद्ध वृत्तियां यह ही मेरा स्वरूप है, यह ही मेरा काम है इस ओर दृष्टि न होना यह मोह है, अज्ञान है और यह ही संसार का बीज है ।
(494) ज्ञानचेतना के द्वारा अज्ञानचेतना का विनाश―अज्ञानचेतना, संसार का बीज है । बीज अगर जल जाये तो पृथ्वी पर उस बीज की राख बोने से अंकुर पैदा नहीं हो सकते, ऐसे ही यह अज्ञानचेतना समाप्त हो जाये, नष्ट हो जाये, ज्ञानचेतना प्रकट होवे तो फिर संसार का बीज जल गया, अज्ञान चेतना मिट गई । अब संसार अंकुर कैसे पैदा हो? भावमुनियों की यहाँ महिमा बताते हुए आचार्यदेव यह कह रहे कि बीज के नष्ट होने पर इस पृथ्वी के ऊपर उससे नवीन अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता । कर्मबीज के नष्ट होने पर कर्मचेतना, कर्मफलचेतना के पूर्णतया नष्ट होनेपर सम्यक्त्वसहित दिगंबर मुद्रा के धारक भावसंयमी के इस सहज परमात्मतत्त्व की भावना से यह बीज नष्ट होता है, फिर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता । यह अंतस्तत्त्व दुर्लक्ष्य है । बड़ी निष्काम साधना से, जैसे कोई कार्य इतना सावधानी का हो कि थोड़ा भी प्रमाद हो तो वह लाइन से बाहर हो जाने से कार्य बिगड़ ही जायेगा ऐसे ही यह दुर्लक्ष्य सहजपरमात्मतत्त्व की आराधना का काम ऐसी ही सावधानी का है कि एकचित्त होकर उसी मार्ग से वहाँ तक दृष्टि ले जाये तो अपने उपयोग से इसे प्राप्त कर सकें । इसे लोग अलख निरंजन कहते हैं । अलख के मायने आंख से न दिखे अथवा बड़ा प्रयोग करने से बड़ी कठिनाई से लक्ष्य में आये, ऐसा स्वभावत: निरंजन अन्य समस्त पदार्थों से विभक्त केवल सहजनित सत्तारूप है । यह अंतस्तत्त्व है जिसकी भावना से फिर संसार संकट नहीं आते, मायने सहज परमात्मतत्त्व की भावना यह ही एक उत्कृष्ट वैभव है । इस भावना से वासित होकर हमें सदा सहज परमात्मस्वरूप अरहंत सिद्ध भगवंतों का स्वरूप ध्यान में रखना चाहिए ।