वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 126
From जैनकोष
तित्थयरगणहराइ अब्भुदयपरंपराइ सोक्खाइ ।
पावंति भावसहिया सखेवि जिणेहिं वज्जरियं ।।126।।
(507) भावसहित मुनियों के अभ्युदयपरंपरापूर्वक मोक्षलाभ―भावसहित मुनि तीर्थंकर गणधर आदि का अभ्युदय परंपरा से प्राप्त करके इस शाश्वत शांति को प्राप्त करते हैं । भावसहित अर्थात् जो-जो ध्रुव है, शाश्वत सहज शुद्ध भाव है, वस्तु के सत्त्व के कारण जो अनादि निधन है उसकी दृष्अि जिन्हें प्राप्त हुई वे भव्य जीव मुनि व्रत धारण करके, नाना अभ्युदय को प्राप्त होते हुए तीर्थंकर गणधर देव जैसे सुखों को प्राप्त करते हैं । प्राय: करके जो जीव मोक्ष जाते हैं वे अभ्युदय के साथ जाते हैं । ऐसे मुनि कम है जो उपसर्ग से सिद्ध हुए या जिन्हें कोई जानता भी नहीं था वे सिद्ध हुए, ऐसों की संख्या कम है और जो देवी देवों से पूजित होकर, गंधकुटी आदि बड़े समारोह मनाये जाकर पूज्य हुए और ऐसे अभ्युदयों में से गुजरकर मुक्त हुए ऐसों की संख्या अधिक होती है । जब घर में से कोई बड़ा बालक पढ़ने या सर्विस करने को विदेश जाता है, जहां से आने जाने में हजारों रुपये खर्च होते हैं । और वह जा रहा हो पहली बार तो उसे कितना ठाइ से भेजते हैं उसके परिवार के लोग, मित्र लोग । उसके जाने का मुहूर्त निकालते लोग जुड़ते, प्रीतिभोज करते और बड़ी मंगल शुभ कामनायें करते और बड़े ठाठ से भेजते । तो भला जो इस संसार में सदा के लिए विदेश जा रहा हो (यह संसार देश है तो मोक्ष विदेश है) और जो कभी लौटकर आयेगा भी नहीं उसे देवगण, मनुष्यगण, विद्याधर और ये पशुपक्षी भी बड़ा ठाठ मनाकर, बड़ी भक्ति करके और बड़े मंगल वातावरण में उसे भेजते है । वह जा रहा है अपने ही कर्मक्षय से मगर जा रहा है, पवित्र है, अच्छी जगह पहुंच रहा है तो यहाँ के प्राणी भी तो उसकी याद रखते हैं । तो जहां जमघट हो जाता है । जो मोक्ष गया वह बड़े अभ्युदय को पाकर मोक्ष गया । चुपचाप मोक्ष जाने वाले तो कम होने चाहिए । वे किसी उपसर्ग आदिक कारण से हुए हैं, मगर सीधे सादे जो मोक्ष गए उपसर्ग के बिना तो लोकपूजित होकर मोक्ष गए ।
(508) तीर्थंकरों का अभ्युदय―भावश्रमण मुनि अरहंत भगवान हो गए और वे ठाठ तो नहीं चाह रहे फिर भी उनके जैसा ठाठ किसी का भी हो सकता है क्या ? जिस समवशरण में विराजें उसकी रचना अद᳭भुत होती है, वह समवशरण की रचना मनुष्यों के द्वारा नहीं बन सकती । इसके रचने वाले देव होते हैं । इस विषय में दो बातें सुनी जाती है । कोई लोग तो कहते हैं कि देव स्वयं मायारूप से समवशरणरूप बन जाते हैं, पर एक यह कहते हैं कि देवों में ऐसी कलायें हैं ऐसी ऋद्धियां है कि यहाँ के ढेला पत्थर रत्न आदिक से ही क्षणभर में समवशरण बना देते हैं । ऐसा उनकी ऋद्धियों का माहात्म्य है । यहाँ भी तो कोई कलाकार जिस काम को 10 दिन में करता है उसी काम को कोई दूसरा कलाकार एक ही दिन में कर देता है, फिर देव तो अत्यंत चतुर कलाकार हैं । वे यहाँ के ही पदार्थों को इस-अस तरह से परिणमा कर बनाकर कुछ ऋद्धि का योग कर समवशरण रच देते हैं । उसकी रचना के विषय में आप लोगों ने सुना होगा कि कितनी अद᳭भुत होती है, कैसे कोट, कैसे उपवन, कैसी ध्वजा, कैसे मंदिर, नाट᳭यशालायें हैं मगर वे सब धर्म के प्रसंग को लेकर हैं । उनमें से गुजरते हुए समवशरण भूमि में पहुंचते हैं । सभायें होती हैं, वहाँ धर्मोपदेश होता है । कितने ही लोग वहाँ विरक्त हो जाते हैं, कितने ही वहीं ध्यानस्थ हो जाते हैं । कितनों ने ही तो वहीं केवलज्ञान पाया । न जाने कैसे-कैसे वहाँ ठाठ है । ऐसा अभ्युदय यह तीर्थंकर प्रकृति के उदय का अभ्युदय है । तीर्थंकर प्रकृति के बारे में जो आदेय समझते हैं उनकी दृष्टि संसारविषयक नहीं है, किंतु मुख्य दृष्टि यह है कि तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाला तो नियम से मोक्ष ही जायेगा अधिक से अधिक तीन भवों में ? समस्त पुण्य प्रकृतियों में सर्वोत्कृष्ट विशिष्ट पुण्य प्रकृति है तीर्थंकर प्रकृति । उसके सुखों को, आनंद को, पवित्रता को भावमुनि प्राप्त करते हैं ।
(509) प्रभु अरहंत देव की धर्मसभा का अभ्युदय―सभा प्रभु के चारों ओर होती है और वहाँ यह गड़बड़ी नहीं बनती कि तुम क्यों उनके सामने बैठ गए , यहाँ तो हम बैठेंगे । हम तो उनके मुख के सामने बैठकर सुनेंगे, ऐसी गड़बड़ी वहाँ नहीं मचती । अरे ऐसा ही वहाँ देवकृत अतिशय है कि चाहे जिस दिशा में बैठो भगवान का सुख चारों ओर दिखेगा । बहुत से लोग तो ऐसा सोचते हैं कि वे सब बातें बढ़ा चढ़ाकर लिखी गई हैं, पर यह बात नहीं है । यहाँ के मनुष्यों की कला से ही अंदाज कर लो, अनेकों जगह ऐसा देखने को मिलता कि कोई प्रतिमा तो एक है मगर कांच वहाँ ऐसा लगा होता कि उस प्रतिमा का मुख चारों ओर दिखाई देता । जब मनुष्यों में ही ऐसी कला देखने को मिलती तब फिर देवों की कला तो कहना ही क्या ? लोग इस पर बड़ा भारी आश्चर्य करते कि भगवान का उपदेश होता अर्द्धमागधी भाषा में और लोग सब अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं । देखो हमने देखा तो नहीं पर सुना है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के पास एक ऐसी मशीन है कि जिसमें किसी भी एक भाषा में बोला जाये तो उसका रूपांतर विभिन्न भाषाओं में तुरंत होता जाता है । मान लो इंग्लिश में व्याख्यान दिया जा रहा तो यहाँ बैठे सभी भाषाओं के लोग अपनी-अपनी भाषा में उसका अर्थ समझ लेते हैं । जब यही इस प्रकार की कलायें देखी जाती तब फिर देवों की कलाओं का तो कहना ही क्या ? यहाँ पर और और भी आश्चर्यजनक कलायें देखने में आती जैसे टेलीविजन, बेतार का तार, रेडियो, टेलीप्रिन्टर आदि, फिर देवता लोगों की कलाओं का तो कहना ही क्या ? वे अगर किसी काम में जुट गए तो न जाने क्या-क्या करके दिखायेंगे ?
(510) प्रभु के निवासधाम के निकट अतिशय―प्रभु जहाँ विराजे होते वहाँ अशोकवृक्ष की छाया रहती है, पुष्पवर्षा होती है । वे ऐसे पुष्प नहीं जैसे कि यहाँ के विकलत्रय जीवों से युक्त पुष्प है । वहाँ के पुष्पों में कोई मकोड़े नहीं होते । कोई मकोड़े तो स्वर्ग पुष्पों में भी नहीं होते, ऐसे निर्जंतु पुष्पों की वहाँ वर्षा होती है और वहाँ के गीत वादित्र का तो कुछ ठिकाना ही क्या? वहाँ बाजों के प्रकार करोड़ों तरह के बताये गए हैं । अब यहीं देख लो―कम से कम 250 तरह के बाजे तो यहाँ भी मिलेंगे । एक बांसुरी को ही ले लो, बांसुरी करीब 40 तरह की मिलेगी । बैन्ड बाजे दूसरी प्रकार के हैं, ढप-ढप बाजे दूसरी प्रकार के हैं । कितनी ही तरह के बाजे हैं । और फिर उनके बजाने वालों की कला का तो कहना ही क्या ? उनके नृत्य तो अजीब ढंग के, क्षण भर में यहाँ और क्षण भर में यहाँ और क्षण भर में दूर, छिन में अदृश्य और छिन में दृश्य और वे देव देवियां ठलुवा हैं क्योंकि उनके पास कोई कमाने धमाने का काम नहीं, खाना भी नहीं पड़ता तो वे इन कलाओं में बड़ा अभ्यास रखते, बड़े निपुण होते । जब और कोई काम नहीं है तो वे इन कलाओं में बड़े कलावान हो जाते, कैसे-कैसे नृत्य, गीत, वादित्र, उनकी शोभा उनकी स्तुतियां ये सब बड़े अनोखे ढंग के होते । संस्कृत भाषा को देववाणी बताया है, सुर भाषा जब बताया है तो होती होगी, कुछ तो मुख से बोलते ही होंगे । एक दूसरे को समझाते होंगे । तो संस्कृत तो सबकी मूल जननी है । आप हिंदी अंग्रेजी, संस्कृत, गुजराती, मराठी पंजाबी बंगाली आदि सभी भाषाओं में देख लो, सबमें संस्कृत भाषा से मेल खाता है । उन देवों की वाणी है बहु संस्कृत भाषा । भगवान की दिव्यध्वनि खिरती है, वह एक योजन तक भव्य जीवों के द्वारा सुन ली जाती है ।
(511) प्रभु के निकट चमर ढुलने व दिव्यपुष्पवृष्टि होने के अतिशय―प्रभु के निकट 64 चमर ढुर रहे भक्ति से, यहाँ चमर ढोरने के लिए कोई सर्वेन्ट नहीं नियुक्त होते, जैसे किन्हीं के यहाँ विवाह के समय दूल्हे के ऊपर चमर ढोरने का रिवाज है तो उसमें चमर ढोरने के लिए नौकर रहता, वह गाय की पूछ का बना चमर ढोरता, पर समवशरण में भगवान के ऊपर शुद्ध चमर ढोरे जाते हैं भक्ति और अनुरागवश । प्रभु की सेवा करके वे अपने को बड़ा भाग्यशाली समझते । जिसके स्तवन में बताया कि जब फूल बरसाये जाते हैं तो ऊपर डंठल करके छोड़े जाते हैं मगर गिरते ही डंठल नीचे हो जाता और उसकी पंखुड़ी ऊपर हो जाती है । वह मानो दुनिया को यह बता रहे कि भगवान के चरणों में जो गिरेगा सो उसका डंठल नीचे हो जायेगा याने बंधन खतम हो जायेगा । ये ढुरते हुए चमर मानों दुनिया के लोगों को यह बता रहे कि जो भगवान के चरणों में आयेगा वह नियम से ऊपर उठेगा । इन सब शोभाओं को विस्तारने वाले कितने ही समारोह होते हैं ।
(512) प्रभुदेहतेज और लक्ष्मीसमृद्धि से विरक्तता―भगवान के शरीर का तेज ऐसा है कि करोड़ों सूर्यों के एक साथ फैले हुए प्रकाश के समान है । वह तेज ऐसा और ढंग का है कि सुखद है, किसी को बाधा पहुंचाने वाला नहीं है । जिसके शरीर के चारों ओर भामंडल बना है वह नेत्रों को अत्यंत प्रिय है । जिसको छूने के लिए लक्ष्मी दौड़ी नीचे से कि मैं सिंहासन बनकर भगवान को छू लूं, रत्नजड़ित सिंहासन है मगर भगवान उससे भी चार अंगुल ऊपर हैं, तो मानो लक्ष्मी ने यह सोचा कि ये भगवान ऊपर उठे जाते तो मैं इनके ऊपर से छू लूं । सो 3 छत्र के बहाने से वह लक्ष्मी ऊपर से भगवान पर आयी मगर वह भी ऊपर लटकी रह गई छू न सकी । ऐसी बड़ी-बड़ी शोभा, बड़े-बड़े अतिशय से सहित पंच कल्याणक आदिक ये सब बाह्य सुख, किसको सुख? भगवान को सुख, देखने वाले मानते हैं सो देखने वालों की ओर से ही कहा जा रहा है कि ऐसे सुखों को प्राप्त है भगवान । अरे प्रभु तो अनंत सहज शाश्वत आनंद को प्राप्त हैं, अनंत चतुष्टय के धनिक हैं ।
(513) भावश्रमण के गणधराभ्युदय का लाभ व प्रभुनामों में प्रभुगुणों का दर्शन―भाव श्रमण मुनि गणधरों के सुख को भी प्राप्त होते हैं । अरहंत भगवान के बाद का पद है तो किसका ? गणधरों का । जितने नाम रखे गए हैं भगवान के वाचक उन सबसे भगवान की शोभा जानी जाती है । आखिर भगवान पशुपति है, मामूली नहीं हैं । जितने जगत में जीव हैं उन जीवों का नाम है पशु । कहीं यह न समझना कि सिर्फ गाय, बैल, भैंसे आदि जानवरों का नाम है पशु । अरे पश्यति इति पशु: जो द्रष्टा हो, देखे उसे पशु कहते हैं । भगवान पशुपति हैं । शिव शंकर जो ज्ञानस्वरूप सो शिव, जो शं सुख को करे सो शंकर, शिवमार्ग की जो विधि बताये सो ब्रह्मा जो सर्व व्यापक सो विष्णु, ये सब भगवान के नाम हैं और आत्मा के भी नाम हैं, क्योंकि ऐसी योग्यता दोनों में है, ये ही आत्मा के नाम हैं । जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु, बुद्ध हरि जिसके नाम । कुछ लोग तो यहाँ जिसके की जगह जिनके बोलते, पर यहाँ जिसके शब्द ठीक है, क्योंकि उसका अर्थ है कि जिस आत्मा के ये सब नाम है, उस धाम में मैं, राग त्यागि पहुंचूं निज धाम, आकुलता का फिर क्या काम? देखिये यह छंद आत्मकीर्तन में कुछ कठिन सा लगता तभी तो बहुत से लोग जिसके की जगह जिनके बोलते । जिस अंतस्तत्त्व के ये सब नाम हैं । जिन-जो रागद्वेष को जीते सो जिन । शिव जो कल्याणमय हो सो शिव, ईश्वर―जो अपने ऐश्वर्य में स्वतंत्र हो । ब्रह्मा―जो सृष्टि को रचे सो ब्रह्मा । राम―रमंते योगिन: अस्मिन् इति राम: जिसमें योगीजन रमण करें सो राम । अब किसमें रमण करते? इस ही अंतस्तत्त्व में । विष्णु जो व्यापक हो सो विष्णु, बुद्ध―जो ज्ञानमय हो सो बुद्ध, हरि जो पापों को हरे सो हरि, कौन? यह आत्मा, सो ये सब जिस अंतस्तत्त्व के नाम हैं सो राग छोड़कर मैं निज धाम में पहुंचूं तो आकुलता का फिर कोई काम नहीं रहता । तो यह सब है परमात्मस्वरूप और उसके निकट हैं गणधर देव । जैसे राजा और युवराजा ऐसे ही अरहंत और गणधर देव । और ऐसे अनेक अभ्युदय हैं, इंद्रादिक पद हैं, जिनको भावश्रमण मुनि प्राप्त करते हैं । उनका लक्ष्य नहीं है कि मैं इंद्र बनूं मगर अपने भाव साधना में बढ़ रहे हैं तो ऐसे पुण्य विशेष बंधते ही रहते हैं और उनके विपाक का ऐसा अभ्युदय प्राप्त होता है ।