वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 127
From जैनकोष
ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरणसुद्धाणं ।
भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणट्ठमायाणं ।।127।।
(514) दर्शनज्ञानचारित्रशुद्ध भावसहित श्रमणों को नमस्कार―वे भावश्रमण धन्य हैं जो दर्शन ज्ञान और चारित्र से शुद्ध हैं और मायाचार से रहित हैं, उन भावमुनियों को मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार हो ꠰ कुंदकुंदाचार्य स्वयं ऐसा कह रहे हैं ꠰ दो बातें यहाँ बतायी हैं कि दर्शन ज्ञान चारित्र से शुद्ध होना, गुण निर्दोष विकसित होना, जिसके लिए उनका दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का पालन होता है ꠰ तो कितना विरक्त और स्वभाव केअभिमुख कि इन आचरणों के प्रति यह श्रद्धा है कि हे आचरणो ! मैं तुमको अब तक पाल रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से इन आचरणों में भी परे निष्कंप ज्ञानस्वरूप न हो जाऊं ꠰ कहते हैं ना, विरक्त गृहस्थ घर के पाये हुए समागमों से विरक्त है तो मुनि संघ प्राप्त समागमों से विरक्त है और जिन आचरणों का पालन करता है सो जानता तो है कि इन आचरणों के पाले बिना गति नहीं है किंतु स्वभावदृष्टि अभिमुख होने से जानता है कि अंततोगत्वा प्राप्त करना है यह निष्कंप ज्ञानस्वभाव ꠰
(515) निर्माय भावश्रमणों को नमस्कार―भावश्रमण दर्शन ज्ञान चारित्र से विशुद्ध है, सम्यक्त्व सहित है और माया से रहित है ꠰ मायाचार जैसे किसी गृहस्थ में पाया जाता है, धर्म की जगह भी मायाचार ꠰ जाप करने बैठे तो कमर झुकाये सीधे सादे जैसे चाहे अटपट टेढ़े मेढ़े बैठे हुए जाप दे रहे हैं और अगर कोई दो चार लोग दर्शन करने वाले पास में आकर खड़े हो गए हो तो झट अटेन्सन हो गए मायने खूब तनकर ध्यान करने बैठ गए ꠰ दूसरी बात जैसे कोई मंदिर में भगवान के समक्ष स्तुति पाठ कर रहा था तो जब तक उसे कोई देख नहीं रहा था तब तक तो वह जैसा चाहे बेतुके बेढंगे स्वर में स्तुति कर रहा था, पर जब देखा कि कोई दो चार लोग दर्शन करने वाले आ गए तो झट उस स्तुति पाठ के लय में परिवर्तन हो गया मायने बड़े राग से अलाप कर स्तुति करने लगे, तो यह मायाचारी नहीं है तो क्या है? गृहस्थों की तो बात छोड़ो, साधुजन भी बड़ी-बड़ी मायाचारी करते हैं ꠰ पुराणों में एक घटना आयी है कि किसी मुनिराज ने किसी नगर में चातुर्मास किया सो बराबर चार महीने का उपवास ठान लिया, उनकी बड़ी प्रसिद्धि चारों और फैल गई ꠰ खैर वह तो चातुर्मास व्यतीत होते ही विहार कर गए ꠰ बाद में क्या हुआ है कि उसी जगह से कोई मुनिराज निकले तो श्रावकों ने उनकी तपस्या की प्रशंसा कर दी, धन्य है इन महाराज को जिन्होंने चार माह का उपवास किया ꠰ तो इस प्रशंसा को सुनकर वह मुनि बड़ा खुश हुआ और मौन ले लिया, इसलिए कि कहीं बोलने से हमारा भेद न खुल जाये ꠰ उस मायाचारी के फल में वह मरकर हाथी बना ꠰ शायद त्रिलोकमंडल हाथी की यह कहानी है ꠰ माने जो अपना मान चाहता है उसकी यह दशा होती हे कि हाथी जैसा जानवर बनना पड़ता ꠰ मान नाक को भी कहते, बोलते ना इसने हमारी नाक रख ली ꠰ तो मानो मान रखने वाले को ऐसी नाक मिलती जो कि जमीन पर लटकती याने सूंड ꠰ तो जहां यह मान मायाचार है वहाँ कहां से सरल भाव होंगे ? किसके लिए यहां मायाचारी करना ? तो जो माया से रहित हैं, सम्यक्त्व से सहित हैं, दर्शन ज्ञान चारित्र से विशुद्ध है उन मुनिजनों को, उन आत्माओं को मन, वचन, काय से नमस्कार हो ꠰