वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 129
From जैनकोष
किं पुण गच्छइ मोहं नरसुरसुक्खाण अप्पसाराण ꠰
जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्खमुणिधवलो ꠰꠰129꠰꠰
(517) भावश्रमण के मोह की असंभवता―जिस भावश्रमण मुनि को मोक्ष का स्वरूप निर्णीत है, केवल स्वभाव मात्र रह जाना, उपाधिरहित हो जाना, जो है सो ही अकेला रह जाये उसे कहते हैं मोक्ष और उस स्थिति में अतुल सहज आनंद रहता है, ज्ञान के द्वारा तीनों लोक को जान रहे हैं, यह महत्त्व की बात नहीं है, वह तो होता ही है, पर सिद्ध में महत्त्व की बात यह है कि वे शाश्वत सहज आनंद का निरंतर अनंतकाल तक निष्कंपतया अनुभव कर रहे हैं ꠰ यह बात महत्त्व की है ꠰ लोगों को चाहिये क्या ? सुख शांति, वह ज्ञान बिना कभी नहीं मिलता यह बात अवश्य है, पर किसी को कहा जाये कि तुमको ज्ञान तो खूब देंगे मगर सुख न मिलेगा, दु:ख ही दु:ख रहेगा तो वह उस ज्ञान को भी पसंद न करेगा ꠰ वह तो यही कहेगा कि मुझे तो ऐसा ज्ञान चाहिए कि जिसमें कष्ट हो ꠰ हालांकि शुद्ध ज्ञान के साथ आनंद का ही अन्वय है पर प्रयोजन की बात देखो, जीवों का प्रयोजन हैं शांति आनंद ꠰ तो आनंदमय में केवल आत्मस्वरूप को जिन्होंने देखा, निरखा, उन पुरुषों का मन कैसे मोहित हो सकता है ? जिनके निरंतर कैवल्य का चिंतन है―मैं हूं, एक हूं, अकेला हूं, यह ही मात्र जिनके चिंतन में है वे श्रेष्ठ मुनि किन्हीं मनुष्यों देवों के तुच्छ सुखों को निरखकर, चमत्कार को निरखकर कैसे विमुग्ध हो सकते हैं ? मोक्ष ही अनंत सुख को देने वाला है ꠰ किसी बाह्य पदार्थ का समागम शांति का देने वाला नहीं ꠰ उस समागम में उपयोग फंसने से कष्ट ही है, वहाँ आनंद नहीं, यह बात जिनके विश्वास में पड़ी है निरंतर, ऐसी ही जिनकी दृष्टि रहती है उनको संसार के चमत्कार कैसे पतित कर सकते हैं? ये तो संसारी जीवों के स्वाद हैं, वे मस्त होते हैं ऋद्धि वैभव में, पर मोक्ष स्वरूप का ज्ञान रखने वाले साधुजनों की इन बाहरी समागमों में कदापि बुद्धि मोहित नहीं होती ꠰ सम्यग्दृष्टि साधु सदैव नि:शंक रहते हैं, जो मेरा स्वरूप है अमूर्त चैतन्यमात्र उसमें पर से कभी विपत्ति आ ही नहीं सकती ꠰ यह खुद में ही गड़बड़ होकर विपत्ति पाता है ꠰ बाहरी पदार्थों से इसमें विपत्ति आ ही नहीं सकती ꠰ स्वरूप ही नहीं है ऐसा कि किसी बाहरी पदार्थ का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रभाव कुछ भी स्व में आ जाये, प्रभाव भी एक का दूसरे पर नहीं होता किंतु जो प्रभावी होता है उसमें स्वयं ऐसी योग्यता है कि वह अनुरूप निमित्त आश्रयभूत पदार्थ को पाकर अपनी कषाय के अनुरूप अपने में प्रभाव पैदा कर लेता है ꠰ प्रभाव और भाव में कुछ अंतर नहीं है ꠰ जैसे आप कहते हैं द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तो भाव का ही नाम प्रभाव उत्कृष्ट भाव ꠰ याने जो परिणमन न था वह परिणमन हो रहा, एकदम नई बात हो रही, उसका नाम है प्रभाव ꠰ एक आश्चर्य करने वाली, चमत्कार करने वाली, एकदम नवीनता जाहिर करने वाली जो परिणति है उसे कहते हैं प्रभाव ꠰ तो प्रभाव उपादान का है, उपादान में होने वाला जो कार्य है वह निमित्त का प्रभाव नहीं, मगर निमित्त के सन्निधान बिना उपादान अपने में वह प्रभाव नहीं पैदा कर सकता ꠰ विकार रूप प्रभाव की बात कह रहे, जो सहज स्वभावरूप प्रभाव है वह तो होता ही है ꠰ वहाँ तो मात्र कालद्रव्य निमित्त है ꠰ तो जो सर्वद्रव्यों के परिणमन में साधारण निमित्त है, उसकी कोई चर्चा नहीं कि जाती, वह तो होता ही रहता है, वहाँ अन्वयव्यतिरेक कुछ नहीं आता ꠰ जहां अन्वयव्यतिरेक हो चर्चा वहाँ की हुआ करती है ꠰ तो ये भावश्रमण सम्यग्दृष्टि मुनि सांसारिक सुखों से सदा विरक्त हैं और अपने आपके निर्णय में, स्वरूप में, मार्ग में नि:शंक रहते हैं ꠰ शांति मिलेगी तो इस ही उपाय से मिलेगी ꠰ शांति का और कोई दूसरा उपाय नहीं है ꠰