वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 153
From जैनकोष
ते च्चिय भणामि हं जे सयलकलासीलसंजमगुणेहिं ।
बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो ।।153।।
(575) दोषावास मलिनचित्त को संबोधन―ये कुंदकुंदाचार्य कह रहे कि मैं सत् पुरुषों की, उन्हीं कलाओं को कहूंगा जिन कलाओं के कारण यह भव्य जीव विषयकषायों में नहीं लगता । वे कलायें क्या हैं? शील और संयम । शील कहलाता है आत्मस्वभाव । चेतना मात्र अविकार और उस ही स्वभाव में अपने उपयोग को जुटाना, यह है संयम । तो इन शील संयम गुणों के द्वारा यह पूर्ण कला प्रकट होती है । जैसे कि स्वर्ण की परीक्षा 4 बातों से होती है, (1) निघर्षण―याने कसौटी में कसना, उसमें भी यदि संदेह रहा तो (2) दूसरा उपाय है छेदन―उसको थोड़ा छेद करके, काट करके देखा जाये और इतने पर भी शंका रहे तो (3) तीसरा काम है तपन―उसको आग में तपाकर देखा जाये और उसके बाद (4) चौथा है ताड़न । इन चार प्रकारों से स्वर्ग की स्वर्णमयिता की परीक्षा होती है । ऐसे ही धर्म की परीक्षा चार प्रकार से है―श्रुत, ज्ञान, तर्क, और युक्तियां इनसे धर्म की परीक्षा होती है । शील, स्वभाव, शांति, ब्रह्मचर्य, अपने आपकी ओर झुकना, इन बातों से धर्म की परीक्षा होती है ꠰ तीसरी बात है तपश्चरण । तपश्चरण से धर्म की परीक्षा होती है । और चौथी चीज है दया गुण । चित्त में दया का भाव है । उससे धर्म की परीक्षा होती है । दयाशून्य हृदय में धर्म नहीं बसता । तो इन चार उपायों से धर्म की परीक्षा होती है । धर्म की परीक्षा कहो या धर्मात्मा की परीक्षा कहो, एक ही बात है । क्योंकि धर्मात्माओं को छोड़कर धर्म और क्या चीज है? कोई अलग पड़ी हुई चीज तो नहीं है कि यह रखा है धर्म । यह गिर गया धर्म । जो पुरुष निज सहज ज्ञानस्वभाव की आराधना में रत रहता है वह स्वभाव विकासरूप बनता है, वही धर्म कहलाता है ।