वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 155
From जैनकोष
धण्णा ते भयवता दंसणणाणग्गपवरहत्थेहिं ।
विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं ।।155।।
(578) दर्शनज्ञानसमग्र भवोत्तारक भगवंतों को धन्यवाद―वे भगवान धन्य हैं जिन्होंने ज्ञान दर्शन रूपी श्रेष्ठ हाथों के द्वारा विषयरूपी समुद्र में पड़े हुए भव्य जीवों को उतार कर पार लगाया । भगवान अरहंतदेव समस्त लोकालोक को जानते हैं, फिर भी वे अपने ही विशुद्ध आनंदरस में लीन हैं । वे परमार्थत: किसी जीव में राग नहीं करते, न किसी का हाथ पकड़ कर मोक्ष में ले जाते, किंतु जो भगवान की शरण में आता है, निर्मल भावों से उनका ध्यान करता है, जिसके प्रसाद से अपने स्वभाव में लीनता बनती है, तो यह भव्यजीव स्वयं पार हो जाता है । तो जिसका आश्रय करके, जिसका ध्यान करके यह स्वभावदृष्टि में आया पार उन्होंने किया, ऐसी कृतज्ञता की भाषा में कहना उचित ही है । प्रभुदर्शन ज्ञान से समृद्ध है । आत्मा का स्वरूप दर्शन ज्ञान है । चैतन्य प्रतिभास वही दर्शन और ज्ञान दो रूपों में प्रकट हुआ है । इसके लिए एक उदाहरण लीजिए आइना का । आइना में खुद की चमक है, खुद की झलक है और उसी खुद की झलक होने के कारण बाहरी कोई पदार्थ सामने आये तो उसकी भी झलक बनती है । आइना में दो झलकें हैं―स्वयं की झलक और बाह्य पदार्थों की झलक। जिसमें स्वयं की झलक नहीं होती उसमें बाह्यपदार्थों की झलक भी नहीं बनती ꠰ जैसे भींत है, घट है, दरी है, इनमें स्वयं में झलक नहीं है तो दूसरे पदार्थों की झलक भी इनमें नहीं आती । आइना में स्वयं की झलक है, वहां फोटो भी आती और जो बाह्य का फोटो है वह है ज्ञान । तो आत्मा ज्ञान से युक्त है । उसके स्वरूप का ध्यान करने से भव्य जीव इस संसारसमुद्र से पार हो जाते हैं ।