वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 162
From जैनकोष
कि जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खो य ।
अण्ण्णे वि अ वावारा भावम्मि परिटि᳭ठया सव्वे ।।162।।
(595) सर्व अभ्युदयों की भावपरिनिष्ठितता―अधिक कहने से क्या लाभ? अर्थात् अधिक क्या कहना? जितने भी लोक में अभ्युदय है―धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष और अन्य जितने भी व्यापार हैं वे सब भावों में ही याने परिणामों की विशुद्धता में ही स्थित हैं । जगत का सुख कैसे प्राप्त होता? उसका कारण है कि जीव ने भाव विशुद्ध बनाया, पृष्ठ बंध हुआ, उसके उदय में ये सब बातें प्राप्त होती हैं, और मोक्ष भी कैसे प्राप्त होता है? भाव अत्यंत निर्मल हो गए, रागद्वेष रंच न रहे । शुक्लध्यान होता है, केवलज्ञान बनता है । अरहंत हुए तो शेष कर्मों के नष्ट होनेपर सिद्ध हो जाते हैं । तो लौकिक सुख कहें तो वह भी भावों की विशुद्धि पर निर्भर है, और परमात्मपद की प्राप्ति कहें तो वह भी भावों की अत्यंत विशुद्धि पर निर्भर है । इसलिए अपना सदा एक काम है कि भाव गंदे न हों । भावों में निर्मलता रहे, और निर्मलता है भावों में । इसकी पहचान यह है कि सिद्ध भगवान की सुध बनी रहे, अपने आत्मा के अविकारस्वरूप की सुध बनी रहे तो समझिये कि सिद्ध भगवान का ध्यान है, परिणामों में विशुद्धि है । जितना भी जो कुछ चमत्कार है वह सब भावों की विशुद्धि का है । जैसे एक देव, प्रभु । हम मंदिर में आते हैं, प्रभु के दर्शन करते हैं, बतलाओ प्रभु काठ के हैं कि पाषाण के हैं कि धातु के हैं? हमने मूर्ति की स्थापना की, किंतु आपके भाव काम तो कर रहे हैं कि मूर्ति को निरखकर आप भगवान का ध्यान बना लें । तो भगवान आपके भावों से हुआ या यहाँ मंदिर में भगवान बैठे हैं? आपके भावों में भगवान का स्वरूप आया आपका भगवान मिला । यहाँ की भी बात छोड़ो, समवशरण में भी कोई जाये तो वहाँ भगवान कहां मिलते हैं? जो उस अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत वीर्य और अनंत आनंदमय अरहंत परमात्म का, शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है उसको भगवान का दर्शन होता, और जो आंखों से दिखता ही नहीं है तो जैसे यहाँ मनुष्य दिखे वैसे ही वहाँ भी भगवान का शरीर दिख गया, पर भगवान के दर्शन वहाँ भी नहीं हुए । भावों में भगवान बसा है, भावों में भगवद᳭᳭ स्वरूप आया है तो भगवान के दर्शन होते हैं । तो भगवान कहो, देवता कहो, वह कहां है? हमारे भावों में स्थित है, और भगवान जो है वह स्वयं अपने स्वरूप में स्थित है । जिसको भी भगवान के दर्शन हुए उसको अपने ही भावों में हुए ।
(596) भावरहित की चेष्टावों से धर्मलाभ की असंभवता―हे जीव ! यदि तू भावों से रहित होकर अपने सिर को नवाकर जिन भगवान को धारण कर रहा है या सिर के ऊपर अमृत रखकर मानो भगवान को धारण कर रहा है तो तेरे भाव जब नहीं हैं प्रभु के स्वरूप के तो इससे क्या होने वाला है? क्या अमृत को सींचने से पत्थर पर कमल उग सकता है? पत्थर पर कितना ही जल सींचा जाये और बहुत अच्छा अमृत जैसा जल भी सींचा जाये तो क्या कमल उग सकते हैं? नहीं । तो ऐसे ही भावरहित इस जीव पर प्रतिमा भी धारण करा दें, समवशरण में भी चला जाये और स्वयं के भाव ठीक नहीं बनाता है तो उससे प्रभु दर्शन नहीं होता । सो भावों की बात बतला रहे । इस ग्रंथ का नाम भावपाहुड़ है, मानों भावों से आत्मा की विजय है । भावरहित कोई पुरुष मुनि जैसा व्रत धारण करले तो भी उसको मोक्ष मार्ग या शांतिमार्ग मिलने का नहीं । भावसहित हो तो सिद्धि है । जिसका अभिप्राय खोटा है उसको सिर झुकाने से कौनसा लाभ होने वाला है? तब क्या करना कि भगवान के दर्शन, भगवान की भक्ति या आत्मध्यान उपासना में लगते हैं तो भाव विशुद्ध होने चाहिए और आत्मा का जो वास्तविक स्वरूप है ज्ञानमात्र वह दृष्टि में रहना चाहिए । सब कुछ अपने भावों पर निर्भर है । जैसे हिंसा और अहिंसा । जिसने हिंसा के भाव किये उसको हिंसा लग गई चाहे वह जीव मरे या न मरे और जिसका अहिंसारूप भाव रहता है सदा, चाहे किसी प्रकार उसके शरीर से कोई छोटा जीव दब जाये, मर भी जाये तो भी उसके हिंसा नहीं लगती । जैसे कोई शिकारी लोग मछलियों को पकड़ने के लिए पानी में जाल डालते हैं या पक्षियों को पकड़ने के लिए जाल बाहर में बिछाते हैं, तो भले ही उसमें एक भी मछली, या एक भी पक्षी न फंसे, फिर भी उनको हिंसा का पाप लग ही गया और मुनि महाराज जो अहिंसा व्रत की निरंतर भावना रखते हैं, सब जीवों में दया रखते हैं, चले जा रहे हैं ईर्यासमिति से और उनके पग तले कोई छोटा जंतु आ जाये, कदाचित् मर जाये तो भी मुनि महाराज को हिंसा नहीं है । इससे जानना कि जो कुछ है वह सब भावों से होता है । अपने को सुख शांति चाहिए तो यह बहुत ध्यान रखना चाहिए कि हमारे भाव निर्मल रहे । किसी पड़ौसी से ईर्ष्या न हो, किसी से बैर न हो, द्वेष न हो, सबका भला चाहें तो शांति सुख मिलेगा और यदि दूसरे के प्रति बैर हो, क्षमा न हो, बिगाड़ का भाव हो तो उसको शांति नहीं प्राप्त हो सकती ।