वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 27
From जैनकोष
इय तिरिय मणुय जन्मे सुइरं उववज्जिऊण बहुवारं ।
अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तोसि तं मित्त ।꠰27꠰꠰
(37) अपमृत्यु का परिचय―इन तीन गाथाओं से पहले की गाथा में यह बताया गया कि है जीव तूने इस अनंत संसार सागर में अनंत बार अनंत शरीर ग्रहण किया और उन शरीरों को छोड़ा और ग्रहण करता चला आ रहा है । तो उन शरीरों में यह जीव अपने उस भव की आयु पर्यंत रहता है, पर अनेक अनंतभव ऐसे गुजरे कि जिन भवों में यह जीव अपनी आयु प्रमाण पूरा न रह सका, बीच में ही मरण हो गया याने अपमृत्यु हो गई, अकालमृत्यु हो गई । इस संबंध में कुछ लोग ऐसा ख्याल करते हैं कि जिस समय सर्वज्ञदेव ने जाना उस समय वही होता है ꠰ मृत्यु भी ज्ञात हुई तो जिस समय में मृत्यु हुई ज्ञात है उस समय हुई, अकाल मौत कैसे ? तो समाधान यह है कि अकाल मौत का यह अर्थ नहीं है कि भगवान ने जिस समय जाना है उससे पहले मृत्यु हो जाये । जब मृत्यु होनी है तब ही तो ज्ञात हुआ है मगर जो ऐसी मृत्यु होती है कि जहाँ आयुकर्म के निषेक तो इतने होते कि 100 वर्ष तक निकलते जाये । आयु के निषेक एक-एक समय में एक-एक खिरते हैं और जैसे मानो किसी की 100 वर्ष की आयु है तो 100 वर्ष में जितना समय लगता है उतने निषेक बंधे होते हैं । तो एक-एक समय के एक-एक निषेक खिरने का नाम आयु का खिरना है । अब किसी जीव के निषेक तो इतने भरे कि 100 वर्ष तक निकलेंगे मगर 40 वर्ष की उसमें ही कोई टक्कर लगी, किसी ने शस्त्र मारा या खुद जहर खा लिया, कोई ऐसे कारण बन गए तो उसकी मृत्यु तुरंत हो जाती है । तो तुरंत होने के समय होता क्या है कि शेष जो 60 वर्ष के निषेक हैं, बची आयु के निषेक हैं वे सब अंतर्मुहूर्त में खिर जाते हैं । तो शेष निषेकों का अंतर्मुहूर्त में खिर जाने का नाम अकालमृत्यु है, क्योंकि आयु के निषेक तो बहुत थे, पर वे 40 वर्ष ही व्यतीत हो पाये कि शेष 60 वर्ष के निषेक खिर गए तो यह कहलाती है अकालमृत्यु । अब यह बात रही कि भगवान ने जाना है, जैसा होना था सो जाना है । सो जो जाना है सो ही तो हुआ है । तो इसके मायने हैं कि भगवान ने यह जाना है कि इस ढंग में इसकी मृत्यु इस समय हो जायेगी । उन्होंने अकालमृत्यु का उस समय होना जाना है, सो मृत्यु तो हुई मगर वह अपमृत्यु ही कहलाती ? तो ऐसी अकाल मौत, अपमृत्यु अनेक घटनाओं के कारण हो जाया करती है ।
(38) विष, वेदन, रक्तक्षय, भय, शस्त्रग्रहण द्वारा अपमृत्यु―हे जीव तुझे जीवन का लाभ क्या रहा ? अनंत तो भव धारण किये और उन भवों में भी आयु प्रमाण ही रह ले सो नियम रहा नहीं । अनेक बार आयु बीच में ही नष्ट हो गई, किन कारणों से ? विष का भक्षण करने से । विष खा लिया बस मर गए । होते होगे कोई विष । सुनते हैं कि कोई अफीम भी अधिक खा ले तो वह भी विष का ही काम करता है । और भी अनेक चीजें विष वाली होती हैं जिनका भक्षण कर लेने के कुछ ही क्षण में यह जीव शरीर से निकल जाता है, तो विष के भक्षण से आयु क्षीण हो गई । किसी के कोई कठिन वेदना हुई, शारीरिक रोग हुआ, जैसे हार्टफेल हुआ या वायुगोला बड़ा तेज उठा या लकवा बना या कोई नस फट गई, ऐसी कोई वेदना के कारण से आयु क्षीण हो जाया करती है । रक्तक्षय से आयु क्षीण हो जाती है । रक्त गिरने लगा अथवा रक्त किसी अन्यरूप परिणमने लगा, जलोदर आदिक रोग हो गए, रक्त अब नहीं बन पा रहा, तो इस कारण से भी आयु क्षीण हो जाती है । किसी की भय के ही कारण आयु क्षीण हो जाती है कोई तेज आवाज आये, कोई कठिन भय की बात सुनने में आये, मानो किसी के इष्ट वियोग की बात एकदम सुनने में आयी तो उस भय से भी आयु क्षीण हो जाती है, शस्त्र के प्रहार से, विघात से, किसी ने तलवार मार दी, बरछी छुरी आदिक घुसेड़ दी, और-और नाना प्रकार के प्रहार किये, उन प्रहारों से आयु क्षीण हो जाती है, जीव शरीर छोड़कर चला जाता है ꠰ ऐसे-ऐसे अपमृत्यु होती है इस भव में भी होती और अनेक भवों में भी होती । तो हे जीव, तूने संसार में शांति और आनंद पाया ही कहां है ?
(39) संक्लेश आहारनिरोध व श्वासनिरोध से अपमृत्यु―कभी संक्लेश परिणाम से आयु नष्ट हो जाती है । कोई तीव्र दुःख आया, कठिन संक्लेश परिणाम हुआ तो उस संक्लेश परिणाम के कारण आयु का क्षय हो जाता है । श्वास के निरोध से भी आयु का क्षय हो जाता जैसे पशु-पक्षियों को बंद कर देना, अब उनको आहार का निरोध हो गया, नहीं मिल सका तो उनका प्राणघात हो जाता है । किसी पर धर्म का बहाना लेकर कि हमने अब दूध छोड़ दिया अब पानी छोड़ दिया यों छोड़ता जाये तो उसमें भी संभव है, होता ही है कि जितनी आयु है उससे पहले आयु क्षीण हो जाये । तो यों आहार के निरोध से भी आयु क्षीण हो जाती है । एक बार की ऐसी घटना हुई कि कोई छोटासा 4-5 वर्ष का बालक किस विद्यालय में पढ़ता था । वह बड़ा ऊधमी था, सो उसे यों ही किसी अध्यापिका ने कुछ भय देने के लिए ऐसा दंड दिया कि एक कमरे में बंद कर दिया और बाकी बच्चों को पढ़ाना शुरु कर दिया । इसी प्रसंग में उसे कमरे से निकालने का ध्यान न रहा और छुट्टी हो गई कोई तीन चार दिन की । वह बालक कुछ लिखना पढ़ना भी सीख गया था । सो जब उसको तेज भूख लगी तो वह बहुत-बहुत चिल्लाने लगा, आवाज देने लगा सर हमें निकाल लो, हमको भूख लगी है, अब ऊधम नहीं करेंगे....। पर उसकी उस आवाज को सुनने वाला वहाँ कौन था ? वह इन्हीं बातों को दीवार पर लिखता भी गया, पर उसे कौन देखने वाला था ? आखिर वह बालक उसी कमरे के अंदर मर गया ꠰ तीन चार दिन बाद जब विद्यालय खुला तब उसका पता पड़ा । तो यों कितनी ही अपमृत्यु अनेक कारणों से हो जाया करती हैं । जैसे कहीं बंद कर दिया गया, श्वास लेने को जगह न रही तो वह वहीं घुट घुटकर मर जाता है । सो इन अनेक कारणों से आयु का पहले ही विनाश हो जाता है । तो अनंत तो जन्म मरण किया और वहाँ भी ऐसी वेदना में मरण हुए तो हे जीव ! अब इस शरीर का क्या मोह करता, मोह छोड़कर आत्मा के सहज स्वभाव की उपासना कर ।
(40) हिम, अग्नि व जल के मध्य में अपमृत्यु―अन्य भी अनेक कारण हैं जिन कारणों से आयु बीच में ही नष्ट हो जाती है । जैसे बड़ी तेज ठंड पड़ रही है, शीत लहर चल रही है तो प्राय: अनेकों जीव उसमें मरण कर जाते हैं । भैया, ठंड की वेदना गर्मी की वेदना से भी कठिन वेदना होती है । यद्यपि जब गर्मी आती है तो लोग कहते हैं कि गर्मी से ठंड अच्छी होती है, मगर जब ठंडी होती तो कहते कि ठंड से तो गर्मी अच्छी होती है । अगर कोई तुलनात्मक अध्ययन करे तो वह जान सकता है कि गर्मी के समय के दुःख से ठंड के समय का दुःख अधिक कठिन होता है । उसका एक सैद्धांतिक प्रमाण यह है कि ऊपर के 3-4 नरकों में वह गर्मी की वेदना बतायी गई और नीचे के नरकों में उत्तरोतर कठिन-कठिन शीत की वेदना बतायी गई है । 7वें नरक में जो कुछ नारकी रहते हैं वे महा शीत वेदनायें सहते रहते हैं । 7वें नरक में प्रकृत्या ही दुःख सबसे अधिक हैं, तो उससे यह ज्ञात हुआ कि शीत की वेदना कठिन वेदना होती है, तो अनेक लोग शीत, पाला पड़ने से मर जाया करते हैं, अनेक लोग अग्नि से मर जाया करते हैं । घर में अग्नि लग गई, निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है, निकल ही नहीं सकता है, अथवा रास्ता भी है, देखते भी हैं मगर अग्नि तो लगी पड़ी है, उसमें निकल ही नहीं सकता है । जंगल में अग्नि लग गई, उसमें फंस गए, इस तरह से मर जाते हैं, अनेक पशुपक्षी मर जाते हैं । मनुष्य भी फंसे हों तो मर जाते हैं, तो कोई अग्निदाह से भी मरण कर जाते हैं । कितने ही लोग तो स्त्री या पति के वियोग पर दाह संस्कार में कूदकर मर जाते हैं, इस प्रकार के मरण को सती होना कहते हैं, तो यह बात गलत है, क्योंकि इस तरह के मरण से आत्मा का कुछ भी कल्याण नहीं है, अकल्याण है, खोटी गति मिलती है । और इतना मोह किस काम का पर जीव से कि अपने आत्मा का भी घात कर लिया जाये । सब परद्रव्य हैं, कोई जीव किसी का नहीं है । ज्ञान में, ध्यान में, विवेक में आना चाहिए, मगर कुबुद्धि होने से ऐसी पृथा थी, तो वह भी अपघात है, अपमृत्यु है । तो अग्नि से आयु बीच में ही नष्ट हो जाती है, जल में पड़ने से भी आयु नष्ट हो जाती है । किसी को समुद्र में गिरा दिया या नदी में जा रहे थे तो एकदम से बाढ़ आ गई, तो उस बाढ़ में मर गए । तो जल में पड़ने से भी अपमृत्यु हो जाती है ।
(41) पर्वतारोहण, गिरिपतन, वृक्षपतन अंगभंग आदि से अपमृत्यु―किसी की अपमृत्यु पर्वत पर चढ़ने से हो जाती है, चढ़ रहे हैं, हांफते जा रहे हैं कहीं श्वास चलते-चलते ही रुक गया तो वहीं अपमृत्यु हो जाती है । कितनें ही लोग पर्वत से गिरते समय मर जाते हैं, गिरते में भी श्वास तेज चली और दम टूट गई, अथवा अनेक लोग पर्वत से गिरने में धर्म मानते हैं । जैसे काशी करवट कुछ दिन बहुत प्रसिद्ध रहा याने ऊंचे पहाड़ पर चढ़ गए और नीचे कूद गए, जहाँ नीचे कूदते ही शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, तो पर्वत से गिरने में आयु का बीच में विनाश हो जाता है । वृक्ष पर चढ़ने और गिरने से आयु का बीच में ही विनाश हो जाता है । शरीर भंग हो जाते से आयु का विनाश हो जाता । किसी तरह शरीर का भंग हो गया तो प्राण भी निकल जाते हैं । कभी रस संयोग से पारा या कोई रस खो लिया तो उससे ही मरण हो जाता है । किसी का अन्याय कार्य व्यभिचार चोरी आदिक के निमित्त से आयु का विच्छेद हो जाता है, लड़ाई हुई अथवा चिंता ही चिंता कर रहा तो दिल धड़क गया या रक्त बंद हो गया या किसी ने मार डाला तो ऐसे इन कारणों से बीच में आयु का विच्छेद हो जाता है और इस तरह कुमरण हो जाता । इस संसार में भ्रमण करके अनंत जन्म तो पाये, मरण किया और वह भी खोटे मरण से मरें तो अब उस शरीर में अब तू स्नेह क्यों करता ? जो शरीर रहने का नहीं, जो शरीर तेरे स्वरूप से अत्यंत विरुद्ध है उस शरीर के प्रति ऐसी ममता करके तू शरीर को पाता रहता है और अपनी मृत्यु करता रहता है बुरी तरह से । इस कारण हे मित्र, ऐसे तिर्यंच मनुष्य जन्म में तू बहुत काल उत्पन्न हो होकर कुमरण को प्राप्त किया सो अब इस शरीर में ममत्वबुद्धि न कर ꠰
(42) देह के ममत्व में शांति की असंभवता―अपमृत्यु होती है दो भवों में मनुष्य और तिर्यंच में । मनुष्यों में भी भोगभूमि के मनुष्यों की अपमृत्यु नहीं होती जो ऊंचे शलाका पुरुष हैं जिनकी अपमृत्यु नहीं होती । जो मोक्ष जाने वाले पुरुष हैं उनकी अपमृत्यु नहीं होती । और तिर्यंचों मे भोगभूमिया तिर्यंचों की अपमृत्यु नहीं होती । इसके अतिरिक्त सभी मनुष्यों की और सभी तिर्यंचों की अपमृत्यु संभव है । हाँं देव और नरकभव में अपमृत्यु कभी नहीं होती । वे पूर्ण आयु भोगकर ही मरण करेंगे । सो वहाँ भी देखो नारकी तो यह चाहते हैं कि हम जल्दी मर जाये क्योंकि उनसे वहाँ का दुःख सहा नहीं जाता ꠰ वे मरण चाहते हुए भी नहीं मर पाते अंतिम आयु से पहले । वे यों देख रहे और देव लोग चाहते हैं कि मेरी कभी मृत्यु न हो, देवों के कितना सुखसाधन है कि जहाँ विक्रिया का शरीर है खान पान का कोई कष्ट नहीं । भोजन करते नहीं । हजारों वर्षों में कभी भूख लगती है तो कंठ से अमृत झड़ जाता है । शारीरिक कोई वेदना होती नहीं, तो ऐसे सुंदर जीवन को देव क्यों छोड़ना चाहेगा ? तो वे देव चाहते हैं कि मेरी मृत्यु न हो, लेकिन समय उनका आ जाता है, बीच में वे नहीं मरते, फिर भी समय तो आ ही जाता है और उस समय जब मृत्यु होती है तो उससे पहले से ही इनके बड़ी वेदना चलती है कि हाय अब हम मरने वाले हैं और मर करके हमको मनुष्य या तिर्यंचों के खोटे शरीर में जन्म लेना पड़ेगा । वे जानते हैं कि खून, पीप, मल, सूत्र आदिक महा अपवित्र चीजों से भरे देह में रहना पड़ेगा । वे इस तृष्णा से दुःखी रहा करते हैं । तो चारों ही गतियों में कोई भी जीव अपने को सुखी शांत अनुभव नहीं कर पाता । इन सबका कारण क्या है कि जो शरीर पाया है उस शरीर में ममता बसायी हैं, यह मैं हूँ, सो यह आत्मा तो स्वयं परमेश्वर है, तो अपने उस ऐश्वर्य के प्रताप से जब यह शरीर चाहता है तो इसको शरीर मिलते रहते हैं ।
(43) आत्मीय ऐश्वर्य के दुरुपयोग में शाश्वत आनंद की अनुपलब्धि―इस जीव ने अपने ऐश्वर्य का दुरुपयोग किया । यदि यह शरीर से निराले ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की सुध लेता और इस ही सहज ज्ञानस्वरूप में यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करता तो इसको फिर शरीर न मिलते, मुक्त हो जाता । सदा के लिए आत्मीय आनंद का अनुभव करता । तो यह अपराध किसका है जो संसार के अनेक शरीरों का ग्रहण करना पड़ता और उन शरीरों से बिदा होना पड़ता वह अपराध मूल में जीव का है, सो इस संसार में इस प्राणी की आयु तिर्यंच और मनुष्य पर्याय में अनेक कारणों से बीच में ही छिद जाये, कुमरण हो जाये तो उस मरण से जीव को तीव्र दुःख होता है । खोटे परिणाम से मरा तो दुर्गति में जायेगा । तो ऐसे यह जीव जन्म लेता, मरण करता, बारबार दुःख पाता रहता है । इसी कारण से तो दया के वश होकर आचार्यदेव बार-बार यह समझाते हैं कि तू संसार से रत्नत्रय के प्रताप द्वारा मोक्ष जायेगा, सो अपने आपके उस सहज सम्यक्त्व, ज्ञान चारित्रभाव को अपना और अपने स्वरूप में मैं यह हूँ, यह ही मेरा सर्वस्व है, यह ही मात्र अनुभव कर । इस अनुभव के प्रताप से तेरे कर्म अपने आप ही खिरेंगे और जन्म मरण भी कटेंगे । सर्वकर्म विमुक्त होकर अनंतकाल के लिए तू सिद्ध प्रभु रहेगा जहाँ किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हो सकता । तो संसार से मुक्त होने का उपाय है भावों की विशुद्धि । उसी का ही भावपाहुड़ ग्रंथ में वर्णन किया जा रहा है ।