वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 3
From जैनकोष
भावविसुद्धिणिमित्तं बहिरगंथस्स कीरए चावो ।
बाहिरचाओ बिहलो अब्भंतरगंथजुतस्स ꠰꠰3।।
(10) भावविशुद्धि के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग―आत्मकल्याण में प्रगति पाने के लिए अथवा मोक्ष लाभ के लिए जो निर्ग्रंथ दिगंबर दीक्षा धारण की जाती है याने समस्त बाह्य परिग्रहों का त्याग किया जाता
है वह भाव की निर्मलता के लिए किया जाता है, यदि किसी जीव के भीतरी परिग्रह तो छूटा नहीं, मोह रागद्वेषादिक में तो लिप्त है और बाह्य परिग्रहों का त्याग करे तो उसका बाह्य पदार्थों का त्याग करना निष्फल है । अंतरंग परिग्रह है मोह राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा आदिक याने जितने-जितने विकारभाव हैं, जो पुद्गल कर्म के उदय का निमित्त पाकर हुए हैं ऐसे इन जीवविकारों में ममता होना, यह ही मैं हूँ, इसमें ही मैं हूँ, इसमें ही मेरा महत्व है ऐसे अपने आपके विकार में ही रमना, उसे छोड़ने का भाव न होना, उससे उपेक्षा न करना, हटना नहीं विकारों से ये ही सब कहलाते हैं अंतरंग परिग्रह । जिनके यह अंतरंग परिग्रह लगा हुआ है उनके लिए बाह्य परिग्रह का त्याग क्या फल दे सकता है ? बल्कि वह बाह्य परिग्रह का त्याग करके जो भेष बना है, जो स्थिति हुई है उसमें अहंबुद्धि करके और भी तीव्र पाप बंध किए जाते हैं । तो बाह्य परिग्रहों का त्याग तो अंतरंग परिग्रह के त्याग के लिए है । भावों की निर्मलता के लिए है । यदि कोई भावों की निर्मलता तो पाये नहीं, भीतर परिग्रह से युक्त रहे और बाह्य परिग्रहों का त्याग करे तो उसका वह त्याग निष्फल है ।