वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 54
From जैनकोष
भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण ।
कम्मपयडीय णियरं णासद भावेण दव्वेण ꠰꠰54।।
(94) भावनग्न के ही वास्तविक नग्नपना―इस गाथा में कह रहे हैं कि जो भाव से नग्न हो सो वास्तविक नग्न है । शरीर से नग्न होने का क्या अर्थ है ? शरीर से नग्न होने के मायने वस्त्र त्याग दिया कोई पदार्थ शरीर पर न रखे, मुनि हो गए, यह तो बाह्यनग्न कहलाया और भावनग्न यह कहलाता कि भीतर में किसी पदार्थ में ममता न रह सके किसी बाह्यपदार्थ में लगाव नहीं है, केवल चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व ही दृष्टि में रहे, आभ्यंतर 14 प्रकार के परिग्रहों का त्याग हो वह भाव से मुनि हुआ । तो जो भावनग्न हुआ अर्थात् ज्ञानस्वभाव की दृष्टि सहित हो वही द्रव्यलिंग में रहकर कर्मप्रकृति के समूह को नष्ट करता है । यदि भावलिंग न रहा तो द्रव्यलिंग से लाभ क्या? मोक्ष मिलता है निर्जरा से । कर्मों की निर्जरा हो तो मोक्ष मिलेगा । अभी थोड़े कर्म झड़े, अब ये झड़े, भवभव के सर्व कर्म झड़ चुके उसी का नाम मोक्ष है । तो कर्म की निर्जरा द्वारा ही मोक्ष होता है और कर्म की निर्जरा द्रव्यलिंग से नहीं होती, किंतु भावलिंग से होती है । याने शरीर से नग्न हो गए उससे कर्म नहीं खिरते, वह तो देह की स्थिति है । आत्मा के भाव बनें, ज्ञान में ज्ञान रहे, ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, कल्पनाओं का एकदम विलय हो, ऐसी स्थिति बने तो इस शुद्ध ध्यान के प्रताप से कर्मों की निर्जरा होती है और कर्मनिर्जरा होने पर ही मोक्ष होता है । सो भावसहित द्रव्यलिंग हो तो कर्मों की निर्जरा का कार्य बने । सिर्फ द्रव्यलिंग से कर्मनिर्जरा नहीं होती, इस कारण भावसहित द्रव्यलिंग को धारण करो, यह जिनेंद्रदेव का उपदेश है ।