वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 55
From जैनकोष
णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं ।
इय णाऊण य णिच्चं भाविज्जहि अप्पयं धीर ।꠰55꠰।
(95) आत्मभावनारहित साधु की नग्नता की अकायता―यदि भावशुद्धि नहीं है तो शरीर से नग्न रहना निरर्थक है, उससे मोक्षमार्ग के कार्य की सिद्धि नहीं होती । ऐसा जिनेंद्रदेव ने बताया है । सो हे भव्य जीव, धीर बनकर हैं मुने, तू निरंतर आत्मा की दृष्टि का ही उद्यम कर । मुनि होने पर बाह्यपरिग्रह कोई रहा नहीं, इस कारण झंझट का तो कोई काम ही नहीं । झंझट होते हैं कार्य आरंभ करने में । जहाँ भिक्षावृत्ति बताई गई है और भिक्षा को अमृत बताया है याने जब मुनि को क्षुधा की पीड़ा हुई तो एषणासमिति पूर्वक वह भिक्षा चर्या के लिए भ्रमण करता है, वहाँ किसी श्रावक ने भक्तिपूर्वक पड़गाहा व आदर पूर्वक शुद्ध आहार दे दिया सो ले लिया । इस तरह से आहार लेने को अमृत कहा है क्योंकि वहाँ न पहले चिंता, न बाद में चिंता, न कोई कषाय और आहार करके 24 घंटे अपने ध्यान में रहते हैं । उपवास करें तो महीनों आत्मध्यान में रहते हैं । तो निर्ग्रंथ दिगंबर दीक्षा लेकर झंझट रंच भी नहीं रखते । उस समय आत्मा का ध्यान करने का ही मुख्य काम रह जाता है । सो हे मुने, धीर बन और आत्मा का ध्यान करनेका ही अपना कार्य बना । आत्मा का ध्यान ज्ञानस्वरूप में कर । मैं सिर्फ ज्ञानमात्र हूँ । यहाँ पुद्गल जैसा कोई पिंडरूप नहीं है । सिर्फ ज्ञान ज्योति प्रकाश हूँ । सद्भूत हूँ । जैसे आकाश भी तो सत् है और वहाँ कोई पिंड नहीं है वास्तविक पदार्थ हैं, यह आत्मा भी वास्तविक पदार्थ है । आकाश तो परद्रव्य है, इस कारण उसका अनुभव तो हो नहीं सकता, किंतु आत्मा तो स्वद्रव्य है । आत्मा का जो यथार्थस्वरूप है उसका अनुभव करना कठिन नहीं है । सो अपने को ज्ञानमात्र रूप से तकना और इस ही प्रकार अपने ज्ञान में ज्ञान को विषय बनाकर एकरस होकर इस ज्ञानरस का स्वाद लेना, ऐसी ज्ञानानुभूति से आत्मा का यथार्थ परिचय होता है । जिसने एक बार भी ज्ञानस्वभाव की अनुभूति प्राप्त की, उसे इसमें उत्पन्न हुए सहज आनंद की स्मृति निराकुल रखती है और फिर यह ज्ञानी पुरुष बार-बार इस ज्ञानानुभव का ही उद्यम करता है । अब जैसे यह ज्ञानानुभूत में ही स्थिर होता वैसे ही ज्ञानप्रकाश बढ़ता है और यह मोक्ष के निकट पहुंच जाता है । तो कर्मों के क्षय का साधन, मोक्षमार्ग में बढ़ने का साधन परमार्थ ज्ञानस्वभाव की भावना में बढ़ने का साधन परमार्थ ज्ञानस्वभाव की भावना रखना है । यह मैं ज्ञानमात्र हूँ । ज्ञानरूप परिणमूं, बस इस ही को करता हूँ । ज्ञानरूप अनुभवूं इस ही को भोगता हूँ । यह सहज ज्ञानस्वरूप, यह ही मेरा सर्वस्व है, ऐसे ज्ञानभाव में निरंतर बने रहना यह है मोक्ष का उपाय ।