वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 58
From जैनकोष
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य ।
आदा पच्क्खाणे आदा मे संवरे जोगे ।।58।।
(100) भावलिंगी मुनि की आत्माभिमुखता―यह भावलिंगी मुनि विचार करता हैकि मेरे जो ज्ञानभाव प्रकट हो रहा है यह आत्मा ही तो है, ज्ञानमय आत्मा ही तो है । यह कुछ नहीं है । आत्मा का स्वरूप ज्ञानमात्र है । ज्ञान ही अनन्यभाव है । उस ज्ञान के नाना परिणमनों में नाना बातें कही जाती हैं । पर मूल में सहज यह ज्ञानस्वभावमात्र है, तो ऐसा ज्ञानमय मेरा आत्मा है । ज्ञान कुछ निराली चीज नहीं । ज्ञान हैं सो आत्मा ही है । ऐसा अपने ज्ञानस्वरूप में आत्मत्व का श्रद्धान है इस निकट भव्य का । आत्मा ही दर्शन है, दर्शन में भी आत्मा ही है । दर्शन कहते हैं सामान्यप्रतिभास को । स्व का पर का, वस्तु का जो भेदरहित सामान्य प्रतिभास है, जो प्रतिभास आत्मप्रतिभास के रूप में ही होता है वह दर्शन है । इस जीव के दर्शनपूर्वक ज्ञान हुआ करता है । जब तक केवलज्ञान नहीं हुआ तो पहले दर्शन याने जिस पदार्थ को जानने का यह उद्यम करता उसके लिए पहले यह आत्मबलरूप में आत्मदर्शन करता, बाद में बाह्य पदार्थों को जानता । तो इसका दर्शन ज्ञान क्रमपूर्वक चलता, यों सबके दर्शन चलते । जितने भी जीव हैं, दर्शन बिना कोई नहीं है और उस दर्शन में अपने आत्मा का ही प्रतिभास है, मगर अज्ञानी जीव क्षण-क्षण में आत्मदर्शन करता हुआ भी यह मैं आत्मा हूँ ऐसा निर्णय नहीं बन पाता और जिसके यह निर्णय बन गया कि यह हूँ मैं दर्शन मात्र प्रतिभास स्वरूप, उसको सम्यक्त्व हुआ । तो इस जीव के दर्शन पल-पल में होते रहते हैं । दर्शन हुआ, फिर ज्ञान हुआ । ज्ञान होने में तो वस्तु की पकड़ दिखती है । इसे जाना मायने उपयोग में ग्रहण किया, पर दर्शन में वस्तु की पकड़ नहीं दिखती किंतु अपने स्वरूप का स्पर्श होता है । फिर भी बाह्य ज्ञेय की आसक्ति में यह तथ्य नहीं जान पाता । उसे कोई जान ले कि इस दर्शन में हमने यह आत्मस्वरूप स्पर्श किया तो उसही परिचय को तो सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
(101) आत्मप्रतिभास का निरंतर होते रहने के पक्ष की उदाहरण पूर्वक सिद्धि―जैसे कोई मनुष्य धनी बनना चाहता है ꠰ किसी ने कहा कि अमुक समुद्र के किनारे जावो, वहाँ पर उस पहाड़ में पारस पत्थर है उसे उठा लावो, फिर मनमाना लोहा से सोना बनाकर धनिक बन जावो । अब वहाँ पत्थर तो ढेरों थे और उनमें से पारस पत्थर एक दो ही थे, कैसे उसकी पहिचान हो, सो एक उपाय समझ में आ गया । क्या, कि समुद्र के किनारे सारे पत्थर इकट्ठे करवा लिये, समुद्र के जल के अतिनिकट एक जगह लोहे का खूंटा गाड़ दिया । उस खूंटे पर पत्थर मारना, उस खूंटे को देखना कि सोना बना या नहीं, नहीं तो उस पत्थर को समुद्र में फेंकना । बस यही क्रिया उसने जारी कर दी । पत्थर उठाना, खूंटे पर मारना, खूंटे को देखना और समुद्र में पत्थर को फैंकना । उसने हजारों पत्थर उठाये, मारे फैंके । कोई पारस न निकला, लोहा सोना न हुआ, परीक्षा करता गया । सो एक उसकी तेज धुन बन गई―उठाया, मारा, फेंका । इसी बीच एक पारस पत्थर को भी उठाया, मारा, फेंका । अब खूंटा तो स्वर्ण बन गया, मगर यह पारसपत्थर तो समुद्र में चला गया । यह अपना माथा धुनने लगा―हाय मैंने हाथ लग जाने पर भी पारस पत्थर को व्यर्थ ही खोया, तो ऐसे ही समझिये कि हम आप लोगों को दर्शन बराबर हो रहा, दर्शनपूर्वक ज्ञान होता, मगर ज्ञान ने जिन विषयों को जाना उन ज्ञेय पदार्थों की ओर वह ऐसा आसक्त रहा कि दर्शन आता, निकल जाता और पकड़ नहीं पाता कि यह है दर्शन । तो वह दर्शन जो सामान्यप्रतिभास है उसमें आत्मा है अर्थात् आत्मा दर्शनस्वरूप है ।