वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 59
From जैनकोष
एगो मे सस्सदो अप्पा णाण दंसणलक्खणो ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ꠰꠰59।।
(103) आत्मा का स्वरूप सामान्यविशेषात्मक―भावलिंगी साधु ज्ञानी अंतरात्मा अपने आपमें ऐसा निरख रहा है कि मैं एक शाश्वत ज्ञानमात्र आत्मपदार्थ हूँ ꠰ ज्ञानदर्शनरूप हूँ । आत्मा का स्वरूप चेतना है । यह चेतना सामान्यविशेषात्मक है । आत्मपदार्थ है ना? जितने भी पदार्थ होते वे सब सामान्यविशेषरूप होते । तो आत्मा का जो स्वभाव है, चैतन्य, तन्मय ही तो आत्मा है । तो आत्मा सामान्यविशेषात्मक है । इसका अर्थ यह ही तो हुआ कि चेतना सामान्यविशेषात्मक है । अब इस चेतना में बाह्यपदार्थ का भेद न करके जो प्रतिभास हुआ है, वह तो है दर्शन और बाह्यपदार्थ को जाना है विशेष रूप से निर्णय किया है, वह सब है ज्ञान ।
(104) परपदार्थ व औपाधिकभावों की बाह्यरूपता―आत्मा ज्ञानदर्शन स्वरूप है और बाकी जितने भी बाह्यभाव हैं सब संयोग लक्षण वाले हैं । बाह्य भावों में धन, वैभव परिजन मित्रजन ये सब आये । और बाह्यभावों में कर्म व कर्मविपाक तथा कर्मविपाकरस जो झलका है वह माया छाया प्रतिफलन विकल्प, वह भी अन्य भाव है । तो एक ज्ञानस्वभाव भाव को छोड़कर अन्य जितने भी परिणमन हैं वे सब बाह्य भाव कहलाते हैं । वे सभी के सभी संयोग लक्षण वाले हैं । जैसे विषय कषाय के भाव, ये जीव में क्या अनादि अनंत व एक समान रहते हैं? नहीं रहते । जैसा इनका अनुभाग उदय में होता है उस रूप यह क्षण-क्षण में बदलता हुआ चलता है । तो यह संयोगरूप भाव है जिसकी आत्मा में प्रतिष्ठा नहीं है, जैसे दर्पण के सामने हाथ किया तो वह हाथ परभाव है और हाथ का सामना पाकर जो दर्पण में प्रतिबिंब आया है, हाथ जैसा ही वह प्रतिबिंब भी दर्पण का बाह्यभाव है, संयोगरूप भाव है । जो भाव तन्मय होता है वह शाश्वत होता है, समान-समान होता है और जो भाव परपदार्थ का निमित्त पाकर होता है वह असमान भाव है, विषमभाव है । यहाँ सब संयोग रूप भाव है । तो जो संयोगरूप भाव है वह मैं नहीं हूँ । और जो मैं सहजभाव हूँ सो मैं हूँ ऐसा विवेक जिनके बनता है वे अपने अंतस्तत्त्व को प्राप्त करते हैं । इस जीबन में बाहर कहीं कुछ सार नहीं रखा । कुटुंब का संयोग, मित्र का संयोग अथवा कहो मनुष्यों का संयोग यह एक अटपट विकल्प का कारण है और वहाँ स्थिरता नहीं होती । ऐसे अटपट विकल्पों से इस जीव को चतुर्गति भ्रमण करना पड़ता है । वहाँ यह पहिचानना चाहिए कि मेरा तो भाव वह है जो मेरे केवल से ही उत्पन्न हुआ । किसी भी परपदार्थ का निमित्त न हो, केवल एक आत्मा ही हो तो उसका जो प्रकाश है वह है स्वभाव और बाह्य पदार्थ का संबंध पाकर जो विभाव बना है वह है विकार । विकार है दुःख का घर, और स्वभाव विकास है आनंद का धाम ।
(105) आत्मत्वचिंतन का महत्त्व―भैया ! अपने को तो अपनी रक्षा करनी है और अपने ही आत्मा पर अपना वश चलता है । अन्य पर वश नहीं चलता । संसारी जीव सभी अपना-अपना कषायभाव लिए हुए हैं, ये हम आप भी अपना-अपना कषायभाव लिए हुए हैं, तो किसी की कषाय के अनुसार बाह्य में कोई बात नहीं बनती तो वह अपने में खेद मानता है । तो आनंद तो तब हो कि जैसा चाहें, वैसे सब पदार्थ तुरंत मिले, यह बात बने । या यह बात बने कि किसी भी बाह्य पदार्थ की मेरे को चाह ही न रहे । इन दो में से कुछ हो सके, उसको तो वहाँ आनंद प्राप्त हो सकता है । अब यह तो बड़ा कठिन है, असंभव है कि जैसा मैं चाहूं वैसा ही बाहर में परिणमन हो । ऐसा पुण्यवान कोई नहीं है कि जिसने जो चाहा उसको तुरंत वह चीज प्राप्त हो । बड़े-बड़े तीर्थंकर भी हुए, उन्होंने भी जिस समय चाहा उस समय वह पदार्थ हाजिर नहीं रहा । भले ही देव देवेंद्र उनके सेवक रहे, वे परपदार्थों को हाजिर करते रहे, पर सिद्धांततया तो विचारो कि जिस समय चाह का परिणम है उस समय उस पदार्थ का उपभोग कहां है । यदि उस पदार्थ का उपभोग होता तो उस विषय को भोगने की चाह ही क्यों जगती? तो जब चाह है तब उपभोग नहीं और जब उपभोग मिला तब वह पहली चाह रही नहीं, तो इस जगत में आनंद कहां कब आ सकता है? जैसे कोई इतना गरीब हैं कि जब तक जवानी है, दांत मजबूत हैं तब तक उसे चने नहीं नसीब हुए और जब दांत टूट गए तब कुछ धनिक बने और चने सुलभ हुए, तो बताओ वह उन चनों को कब खाये? जब चाहा तब उस योग्य नहीं और जब उस योग्य हुआ तो वहाँ चाह नहीं । तो ऐसे ही जीव को जो परपदार्थविषयक इच्छा चलती है तो इच्छा के समय भोग उपभोग नहीं है । चाहे तीर्थंकर भी क्यों न हों, गृहस्थ तीर्थकर की बातें कह रहे, वीतराग में तो चाह का सवाल ही नहीं । तो बाह्यपदार्थ की चाह करना बिल्कुल व्यर्थ है । ये बाहरी पदार्थ व इन बाहरी पदार्थों का निमित्त पाकर होने वाले अपने में जो विकारभाव हैं, ये सब संयोगरूप हैं । जो संयोगरूप हैं वे सब बाह्य भाव कहलाते हैं । जो ज्ञानी पुरुष हैं वे सब इन बारह पदार्थों से हटते हैं और अपने परमार्थ ज्ञानस्वरूप में लगते हैं ।