वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 60
From जैनकोष
भावेह भावसुद्धं अप्पा सुविसुद्धणिम्मलं चेव ।
लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छहि सासयं सुक्खं ।।60।।
(106) शाश्वतसुखलाभ के लिये निर्मल अंतस्तत्त्व की भावना करने का उपदेश―हैं मुनिजनो, यदि चार गतिरूपी संसार भ्रमण से छूटकर शीघ्र शाश्वत सुखमय मोक्ष को प्राप्त करना चाहते हो तो भावों से जैसे शुद्धि बने वैसे अतिशयकर विशुद्ध निर्मल आत्मा की भावना करो । संसार से निवृत्त होने का उपाय आत्मा के अविकार सहज ज्ञानज्योति स्वरूप की आराधना है और आराधना भी किस तरह ? कि यह मैं हूँ, इस तरह की दृढ़ भावना करके उसमें मग्न हो जाने रूप है, याने अभेद आराधना है । देखो ज्ञान वहाँ अभेद है, अभेद ही आत्मा का ज्ञान करने वाला है उपयोग और जिसकी आराधना की जा रही है वह है अभेद उपयोगमय, सो यों जब ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय तीनों का अभेद बनता है तब ऐसी निर्विकल्प स्थिति में उत्तम ध्यान बनता है, जिसका निमित्त पाकर भव-भव के बांधे हुए सब कर्म कट जाते हैं और समस्त कर्मों के दूर हो जानें से आत्मा में कैवल्य प्रकट होता है । तो अपने आत्मा को सुखी शांत बनाये रहने का उपाय अविकार निर्मल सहज ज्ञानज्योति स्वरूप अंतस्तत्त्व की भावना है । यह जीव अपने आप में अपनी रचना को निहारता है । मैं हूँ, दर्शन ज्ञान आदिक अनंत गुणों का पिंड हूँ, इस ज्ञानदर्शन स्वरूप आत्मा में किसी परपदार्थ का प्रवेश नहीं होता । सो ज्ञानी अपने स्वरूप से अपने आपके प्रतिभास का आनंद लेता रहता है । इस प्रतिभास में पवित्रता है, एकाकीपन है, निराकुलता है । तो ऐसे निराकुल स्वरूप अंतस्तत्त्व के ध्यान से शाश्वत सुखरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है, इस कारण हे भव्य जीव, सहज शुद्ध अत्यंत पवित्र अपने आपके सत्त्व से अपने स्वभावरूप इस उपयोगमय अंतस्तत्त्व की भावना भावो ।