वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 67
From जैनकोष
दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया ।
परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता ।।67।।
(128) परिणाम से अशुद्ध नग्न प्राणियों के भावश्रमणपने का अभाव―द्रव्य से अर्थात् शरीर से सभी नग्न हैं, वस्त्रादिकरहित हैं । नारकी तो वस्त्ररहित होते ही है ꠰ तिर्यंच पशु भी वस्त्ररहित हैं, पक्षी भी नग्न है, मगर परिणाम से अशुद्ध हैं तो भावश्रमणता को प्राप्त नहीं होते ꠰ जो पुरुष शरीर से नग्न हो गए, दिगंबर भेष धारण कर लिया, किंतु परिणामों से अशुद्ध हैं तो वे पुरुष भाव श्रमणपने को प्राप्त नहीं होते । शरीर की अपेक्षा देखा ? जाये तो अनेकों जीव नग्न हैं । पृथ्वी के नीचे 7 नरकों के 84 लाख, बिलों में रहने वाले नारक भी सभी नग्न हैं । पशु कीड़ा मकोड़ा सभी नग्न हैं और ये वस्त्रधारी मनुष्य भी जब कभी नग्न हो जाते हैं परंतु ये सब परिणामों से अशुद्ध हैं, रागद्वेष मोह विकार से मलिन है, इसलिए नग्न होने पर भी मुनि नहीं कहलाते । एक प्रश्न किया जाये कि एक तो मुनिभेष में कोई नग्न पुरुष है, एक वहीं पास में खड़ा हुआ बैल आदि पशु भी है तो उस बैल को मुनि क्यों नहीं कहते, क्योंकि वह परिणाम से अशुद्ध है । यदि परिणामों से अशुद्ध वह नग्न भी हो तो क्या उसे मुनि कहेंगे? नहीं, वह भी वास्तव में मुनि नहीं है । बात यह बतलायी जा रही है कि परमेष्ठी 5 होते हैं जिनमें 5वां परमेष्ठी मुनि कहलाता है । परमेष्ठी का दर्जा इतना उत्कृष्ट है कि उसका नाम ही परमेष्ठी है, उत्कृष्टपद में स्थित है । तो वह उत्कृष्ट पद क्या शरीर से होता है? नहीं, परिणाम से होता । यदि बाह्य पदार्थों में ममता है, गीत संगीत ज्योतिष गंडा ताबीज आदिक में रुचि रखते हैं, आत्मतत्त्व का ध्यान नहीं तो ऐसे अशुद्ध परिणाम वाले जीव मुनि नहीं ही पाते । द्रव्य से भले ही वे नग्न रहें ।
(129) प्रकरण का लक्ष्य भावश्रमणत्व की प्रेरणा―यह ग्रंथ है कुंदकुंदाचार्य द्वारारचित भावपाहुड़ । कुंदकुंदाचार्य देव अपने साथी मुनियों में यह उपदेश करते हैं कि अपने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र भावों की वृद्धि करो, उस रत्नत्रय से पवित्र बनो । यदि रत्नत्रय का अंश नहीं है तो तेरा नग्न होना बेकार है । यहाँ गृहस्थ लोग जब यह बात सुनते हैं तो उन्हें कभी-कभी अटपट सा लगता है सुनना कि आखिर हम से तो बड़े है, घर तो छोड़ा है, नग्न तो रहते हैं...., मगर दृष्टि नहीं जगती कि जिनको हम परमेष्ठी कहते, जिनको हम अपने आत्मा का सर्वस्व समर्पण कर दें ऐसे जीव तो कोई उत्कृष्ट भाव वाले ही होने चाहिए । दूसरी बात यह है कि मुनियों की सभा में कोई मुनि अगर दूसरे मुनि को धिक्कारे कि तेरा नग्न होना बेकार है जब अंतस्तत्त्व की दृष्टि नहीं करता तो कुछ नहीं कर सकता, तो क्या यह सुनने में अटपटा लगेगा? न लगेगा, पर गृहस्थ जब अपनी ओर से सोचता है तो अटपटा लगेगा । यहाँ आचार्य देव मुनिजनों को समझा रहे हैं कि नग्न तो पेड़ भी रहते, नग्न तो नारकी भी होते, केवल नग्न होने से सिद्धि नहीं है, किंतु परिणामों में पवित्रता हो तो सिद्धि है ।
(130) पर्यायबुद्धि में भावश्रमणपने की असंभवता―परिणामों की पवित्रता का मूल यह है कि अपने आपको यह तो मानें कि मैं मुनि नहीं हूँ, मैं पुरुष नहीं हूँ, मैं हूँ एक ज्ञानस्वरूप अमूर्त आत्मतत्त्व । जिसने यह नहीं मान पाया और अपने को माना है कि मैं मुनि हूँ वह तो प्रकट मिथ्यादृष्टि ही है, अज्ञानी है, वह देह को ही देखकर कह रहा कि मैं मुनि हूँ । जैसे कि अनेक लोग कहते कि मैं नेता हूँ मैं व्यापारी हूँ, मैं सर्विस वाला हूँ, मैं इतने बच्चों का बाप हूँ, तो ऐसे ही उसने भी कह दिया कि में मुनि हूँ । अंतर कुछ न रहा देह को देखकर अन्य लोग बात करते हैं, तो देह को देखकर ही तो नग्न पुरुषों ने बात की, तो उसमें मिथ्यात्व ज्यों का त्यों रहा । यह ज्ञानी की श्रद्धा है कि मैं आत्मा हूँ, अमूर्त हूं, ज्ञानस्वरूप हूँ इस ज्ञान पर कर्मोदय विपाक के चित्र आते हैं और उससे मैं मलिन हो रहा हूँ उससे अपने को न्यारा समझूं और निरंतर अपने को ज्ञानस्वरूप प्रतीति में लूं और ऐसा ही अनुभवूं, यह मेरा काम है जिससे कि संसार के जन्म मरण के संकट दूर हो जायेंगे । बस जो इस धुन में रहता है तो इस धुन में होने के कारण उसने वस्त्र छोड़ा, घर छोड़ा, क्योंकि इन सबका संग जब रहता था तब कोई न कोई व्याकुलता, चिंता, शल्य रहा करती थी और उससे आत्मध्यान में बाधा थी । तो अविकार ज्ञानस्वभाव को, निरंतर ध्यान में लें इसलिए उसने सब कुछ छोड़ा है । उसकी उस छोड़ने पर दृष्टि नहीं है । छोड़कर भी छोड़ने में दृष्टि नहीं है सच्ची दृष्टि से । यदि कोई ऐसा माने कि मैंने घर छोड़ दिया, मैंने परिवार छोड़ दिया ऐसी दृष्टि रखे तो वह भी मिथ्यादृष्टि है । मैंने घर ग्रहण किया, ऐसा माने तो वह भी अज्ञानी है, मैंने घर छोड़ दिया, ऐसा माने वह भी अज्ञानी है, किंतु आत्मा की धुन में रहकर आत्मसाधना में जुड़ने पर घर छूट गया । उसका मात्र ज्ञाता है, न कि घर छोड़ने का अभिमान रखता है । वह तो एक प्रबल कषाय है । जिसके चित्त में यह अभिमान होता है कि मैं मुनि हुआ हूँ, मैंने ऐसी संपत्ति छोड़ दी है, ऐसे-ऐसे वैभव पर मैंने लात मार दी, उसके प्रकट अभिमान कषाय है और छोड़कर भी न छोड़ने की तरह है, क्योंकि उस संबंध की ऐंठ नहीं छोड़ा । अहंकार तो चल ही रहा है । तो यह साधुवृत्ति बड़ी पैनी है । जैसे कहते हैं कि हथियार पर से चलना बड़ा कठिन है, ऐसे ही सही साधुपन से चलना यह भी कठिन है । इस साधुपद मैं आत्मा को अत्यंत सम्हालकर रखना होता है, अपने आपके इस बाह्यस्वरूप का बड़ा स्थान रखना होता है । जहाँ अपवित्रता न आ सके, ऐसे रत्नत्रय वृत्ति से जो पवित्र हो वह भावश्रमण है, भावमुनि है । तात्पर्य यह है कि आत्मा की शुद्धि के बिना केवल नग्न हो जाना परिणामों को अशुद्ध बनाये रखना यह कोई जानकारी नहीं है । उससे कोई ऐसा माने कि मुझे स्वर्ग मिले, मोक्ष मिले, सद्गति मिले तो उसकी यह आशा करना व्यर्थ हैं । भावों पर दृष्टि होनी चाहिये । जो अपने भावों को कठोर रखे, कषाययुक्त रखे, वह अपने आपका घात कर रहा है । जीव का कल्याण तो वीतरागभाव में है । रागद्वेष मोह आदि विकार से संपर्क रहने पर कल्याण नहीं हो सकता ।