वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 68
From जैनकोष
णग्गो पावई दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमइ ।
णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं ꠰꠰68꠰꠰
(131) जिनभावनावर्जित नग्न पुरुष की दुःखपात्रता―जो पुरुष जिनभावना से रहित है वह नग्न होकर भी चिरकाल तक दुःख ही पाता है । वह नग्न होकर भी संसारसमुद्र में डूबता रहता है । वह नग्न होकर भी बोधि को प्राप्त नहीं हो पाता । जिन भाव का अर्थ है सम्यक्त्व । जिन नग्नवेषी साधुवों को अपने आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है, यह मैं अमूर्त हूँ, ज्ञानमात्र परमार्थ पदार्थ हूँ, मेरे में केवल जानन का स्वभाव है, इस जानन स्वभाव में विकार होते ही नहीं हैं, विकार तो कर्मोदय विपाक की छाया है, उससे मैं निराला विशुद्ध ज्ञान वृत्ति वाला हूँ, ऐसा जिसको परिचय नहीं है, जिस अंतस्तत्त्व के परिचय से जब यह देह ध्यान में नहीं रहता, तो फिर-इस देह संबंधी बातें कैसे ध्यान में रहेंगी, ऐसे अंतस्तत्त्व के अनुभव बिना कोई पुरुष नग्न होकर चाहे वह बहुत अच्छी तरह शोधकर चले, शुद्ध आहार ले, बड़े मौन से बैठे, कैसी भी क्रियायें करें, मगर जिसके पास मूल नहीं है, सम्यक्त्व नहीं है वह पुरुष नग्न होकर भी घोर दुःख पाता है । बहुत से शारीरिक, मानसिक दुःख तो यहाँ ही वह अज्ञान से सह रहा है, और मरणकर नारकादिक गतियों में गया तो छेदन भेदन आदिक अनेक घोर दुःख सहता है । फिर जन्म लिया फिर मरण किया । यों संसार समुद्र में गोते लगाता ही रहता है क्योंकि उसने वह मार्ग नहीं पाया । उपयोग कहां लगाना और उपभोग का क्या लक्ष्य रखना? यह अंत: उसकी दृष्टि में नहीं है, इसलिए वह बाहर-बाहर ही डोलता है ।
(132) सम्यक्त्वरहित द्रव्यलिंगियों की मोक्षमार्ग के लिये अपात्रता का सोदाहरण कथन―एक घटना है कि ललितपुर के पास के किसी गांव के कुछ बंजारे ललितपुर के बाजार से अपने गांव जा रहे थे । चलते-चलते रास्ते में रात हो गई, जाड़े के दिन थे सो वे एक पेड़ के नीचे ठहर गए । ठंड तो काफी थी ही, सो उन्होंने क्या किया कि इधर उधर से कुछ सूखी लकड़ियां बीन लाये, एक जगह इकट्ठा किया, किसी माचिस या चकमक से लकड़ियों में आग लगाया, मुख से फूंका फिर आराम से कुड़रू आसन से याने दोनों घुटनों पर अपने दोनों हाथ रखकर बैठ गए, रात्रिभर खूब ताप कर अपनी ठंड मिटायी, और सबेरा होते ही प्रस्थान कर गए । अब शाम हुई तो उस पेड़ पर जितने बंदर बैठे थे, जिन्होंने रात्रि को वह सब हाल देखा था, तो वे बंदर आपस में सलाह करते हैं कि देखो हम आप जैसे ही तो हाथ पैर उनके थे जिन्होंने रात्रिभर आराम से ठंड मिटायी थी, अपन भी वही काम करें । सो कैसे करें? सो एकदम बंदर चारों ओर गये और खेतों के चारों ओर जो सखी लकड़ियों के बाढ़ लगे थे उन्हें उठा उठाकर ले आये, एक जगह इकट्ठा किया । अब उनमें से कोई बंदर कहता है कि एक काम तो कर लिया मगर ठंड क्यों नहीं मिटी? तो कोई दूसरा बंदर बोला―अजी इस तरह से ठंड कैसे मिटे? उन्होंने तो इसमें लाल-लाल चीज डाली थी । अब क्या किया कि वहाँ जो लाल-लाल पटबीजना (जुगनू) उड़ रहे थे उनमें से 50-60 पटबीजना पकड़कर लकड़ियों में डाला, फिर भी ठंड न मिटी । तो कोई तीसरा बंदर बोला―इस तरह से ठंड कैसे मिटे? उन्होंने तो इसे मुख से फूंका था, तब ठंड मिटी थी । मुख से फूंका फिर भी ठंड न मिटी, तो कोई चौथा बंदर बोला अरे इस तरह से ठंड न मिटेगी । वे लोग तो कुड़रू आसन से बैठकर ताप रहे थे तब ठंड मिटी थी । सो वैसा भी किया फिर भी ठंड न मिटी । बताओ सारी क्रियायें कर लीं फिर भी ठंड न मिटी तो क्यों न मिटी? इसलिए न मिटी कि ठंड के दूर करने का जो मूल है उसका परिचय न था उन्हें । वह मूल क्या है? अग्नि । तो जैसे सारे काम कर डाले फिर भी अग्नि का परिचय न होने से ठंड न मिटी, ऐसे ही मोक्षमार्ग का जो मूल तत्त्व है सम्यग्दर्शन, उसका परिचय जिन्हें नहीं है वे ज्ञानी मुनियों की चाहे कितनी ही नकल करें जैसे व्रत तप उपवास आदि करना, ईर्यासमिति से चलना आदि फिर भी उन सारे क्रियाकांडों को करने से उनको मोक्ष मार्ग न मिल सकेगा । उनको अपने आत्मा में शांति तो न मिल सकेगी । सो ही बात कह रहे हैं कि जो सम्यक्त्व भाव से रहित पुरुष हैं वे नग्न होकर भी चिरकाल तक दुःख पाते हैं । निर्ग्रंथ दिर्ग्रंथ भेष रखकर भी वे संसारसागर में डूब रहे हैं और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र को नहीं प्राप्त करते ।
(133) जिनभक्ति व सम्यक्त्व की दुर्लभता―देखिये काल कब से है, समय कब से है ? क्या कोई कल्पना कर सकता है कि अमुक दिन से समय, शुरू हुआ? नहीं, समय तो अनादि काल से है और यह जीव कब से है? क्या इसकी सत्ता के बारे में भी कोई कल्पना कर सकता है कि जीव इस दिन से हुआ है? अगर मानो कल्पना करें कि जीव इस दिन से हुआ है तो जैसे कहते हैं कि घड़ा इस दिन बना है तो वह घड़ा किस चीज से बना? मिट्टी से । इसी तरह बताओ यह जीव बना तो किस चीज से बना? जीव भी अनादि है और यह संसार समुद्र यह अनादि है, अनंत है, यह हमेशा ही रहेगा । यह बहु जीवों की अपेक्षा से कह रहे हैं । तो देखो इस जीव को अनादि काल से अनंत दुःख हैं । इस संसार सागर में भ्रमण करते-करते अनंत काल व्यतीत कर दिया इस जीव ने, पर दो बातें नहीं प्राप्त हुई इसको (1) जिनदेव और (2) सम्यक्त्व । जिनदेव भी क्या चीज है? सम्यक्त्वमूर्ति । खुद का सम्यक्त्व नहीं पाया जिन जीवों ने उनको मुक्ति की प्राप्ति नहीं हुई । ये दो चीजें जीव ने अभी तक, नहीं पायी । यही कारण हैं कि यह जीव अब तक इस संसार में रुल रहा है । यद्यपि यह नियम से नहीं कह सकते कि पहले जिनभक्ति होती है या सम्यक्त्व होता है, तथापि वास्तविक जिनभक्ति याने जिन्होंने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र पाया है ऐसे रत्नत्रयधारी आत्माओं की शक्ति और सम्यग्दर्शन इन दोनों का ऐसा एक संयोग संबंध है कि रत्नत्रयधारियों का स्वरूप चित्त में रहे तो अपने में सम्यक् भावना बढ़ती है, और अपने को सम्यक् भावना हो तब ही तो रत्नत्रयधारी को उसने जान पाया । एक धनी दूसरे धनी की सब बात समझ लेगा, पर एक भिखारी धनी की बात क्या समझ पायेगा । वह तो साधारणरूप से कहेगा कि बड़ा मालदार है । पर क्या ढंग होता, यह तत्त्व उसकी दृष्टि में नहीं है । जिसे को सम्यग्दर्शन नहीं है वह पुरुष भगवान के स्वरूप की भी भक्ति नहीं कर सकता, मोटे रूप से नाम लेता रहेगा, मगर प्रसन्न होकर निर्मल हृदय से उस प्रभु के स्वरूप में उपयोग देकर खुश होवे, तृप्त होवे यह बात न बन पायेगी सम्यग्दर्शनरहित पुरुष में । तो ये दोनों बातें अब तक नहीं प्राप्त कीं । दो क्या एक ही समझ लीजिए―सम्यग्दर्शन । जो सम्यग्दर्शन पा चुका और वह और भी आगे बढ़ जायेगा ।
(134) भगवान का अर्थ सर्वज्ञ वीतराग चेतना―भगवान की भक्ति में भी भक्ति क्या भगवान द्रव्य की है याने प्रभु शरीर की है ? भक्ति है रत्नत्रय की । आदिनाथ भगवान को पूजा कर रहे हैं तो क्या नाभि के नंदन की पूजा कर रहे हैं? जो भगवान है वह नाभिनंदन नहीं, जो नाभिनंदन है वह भगवान नहीं । यद्यपि आदिनाथ भगवान हुए मगर वह नाभिराज के लड़के हैं, ऐसा जब दृष्टि में है तो आपकी दृष्टि में भगवान का स्वरूप नहीं है । और उन्हीं के बारे में यह अमूर्त ज्ञानस्वरूप परम आत्मा है, यह है भगवान । ऐसी दृष्टि जगे तो आपकी दृष्टि के यह बात न रहेगी कि यह नाभिराजा के लड़के हैं । प्रभु का स्वरूप है सर्वज्ञ वीतराग । उसकी खबर कब पड़ेगी? जब स्वयं में उपयोग अपने आत्मस्वरूप को पहिचाने । सो सब माहात्म्य सम्यग्दर्शन का है, जिसके आधार पर यह जीव धर्ममार्ग में बढ़ता है और उसकी साधना सच्ची बनती है । इसलिए सम्यग्दर्शन के द्वारा अपने आत्मस्वरूप की भावना दृढ़ बनाना चाहिए ।