वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 105
From जैनकोष
सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवं चेव ।
चउरो चिट᳭ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ꠰꠰105꠰।
मात्र भाव ही कर सकने वाले जीव को उपादेय भाव के छांट करने की आवश्यकता―हम आप सब जीव केवल अपने भाव ही बना पाते हैं, इसके आगे कोई इसकी करतूत नहीं है । इन बाह्य पदार्थों में हम कुछ परिणति कर सकें यह बात रंच नहीं है । निमित्त-नैमित्तिकयोग है ऐसा कि हमने कोई इच्छा की, उसके अनुसार कोई प्रयत्न किया और उदय अनुकूल है, ऐसा ही योग जुड़ गया, कार्य हो गया सो भले ही हो गया, पर मेरे करने से कार्य नहीं हुआ, बन गया कार्य ꠰ मैं तो केवल भाव करता इसके अतिरिक्त मेरी करतूत नहीं । जब मैं केवल भाव ही कर सकता हूँ तो यह भी विचार करना होगा कि कौनसा भाव है ऐसा जो व्याकुलता उत्पन्न कर रहा? यद्यपि अनादि परंपरा से कर्म के प्रेरे चलें आये हैं और ऐसे ही भव-भव के बांधे कर्म हैं कि जिनके उदय में हम विवश हो जाते और सन्मार्ग पर भी नहीं चल पाते । कैसी भी स्थिति आये मगर यह कर्तव्य जरूरी है कि हम सही निर्णय कर लें एक बार । उस पथ पर चल सकें या न चल सकें, पर निश्चय हमारा यथार्थ होना चाहिए । आत्मा की आदत भी ऐसी ही है कि वह यथार्थ ही समझना चाहता है । झूठ पसंद नहीं करता, किसी भी वस्तु के बारे में यह सही ज्ञान चाहता है । झूठ ज्ञान नहीं चाहता । और झूठ ज्ञान से सही मार्ग नहीं मिलता । तो इससे हम को सही ज्ञान दिशा पा लेना चाहिए कि बात वस्तुत: है क्या? जब हम भाव ही कर पाते हैं तो कैसा भाव रखें कि वह हमारे हित में हो? और कैसा भाव रखें कि जिससे अहित न हो? दो ही बातें सामने हैं । (1) हितकारी भाव और (2) अहितकारी भाव ।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप में हितकरता का दर्शन―हितकारी व अहितकारी भाव का निर्णय भी केवल दो ही बात में है । परपदार्थ के प्रति लगा हुआ भाव अहितकारी भाव है और स्वकीय सहज शुद्ध आत्मस्वरूप में लगा हुआ भाव हितकारी भाव है । हम रोज मंदिर आकर जिनकी मूर्ति के आगे हाथ जोड़ते हैं और जिनकी श्रद्धा के आधार पर हम आप बड़े आयतन बनाते हैं, द्रव्य खर्च करते हैं, प्रतिदिन आने का नियम रखते हैं, तो जिनकी मूर्ति के दर्शन हम रोज करते हैं वह स्वरूप है ही क्या, सिवाय इसके कि उनका उपयोग अपने आपके आत्मस्वरूप में लगा हुआ है । तो जिनको हम बड़ा मानते और बड़ा मानने के ही कारण रोज दर्शन को आते तो उन्होंने जो किया, जो कर रहे हैं वह बात तो नियम से सारभूत ही होगी । उसका चाव होना चाहिए तब तो हमारा वह दर्शन है । चाव यह होना चाहिए कि हे प्रभो ! जैसे आपने अपने आपके उपयोग को अपने स्वरूप में रमा लिया वही स्थिति मेरे को मिले । दर्शन करने अनेक लोग आते, पर क्या-क्या उद्देश्य रखते हैं और क्या-क्या भगवान के प्रति सोचते हैं वे बातें अनेक हैं, और हैं परपदार्थ के लगाव विषयक बातें और ऐसी प्रभु से प्रार्थना करने से कोई कार्य भी बनता हो सो भी नहीं । जिनके कार्य बनना है सो बनता है, वे मंदिर भी नहीं आते तो भी उनका कार्य बनता है । ये तो सांसारिक बातें हैं, ये सब तो पुण्य-पाप के फल हैं । मंदिर आने का तो एक यह ही लक्ष्य रखना चाहिए कि हे प्रभो ! जैसा आपने किया और जिस मार्ग से चलकर आप अपने में रम गए, सदा के लिए शुद्ध हो गए, बस वही मार्ग मुझे चाहिए । मुझे अन्य कुछ न चाहिए । यह भावना हो दर्शन में तो उसके साथ पुण्य भी सातिशय बनता और तत्काल अलौकिक शांति मिलती है । तो हम भाव के सिवाय और कुछ नहीं कर पाते । तो, उन्हीं भावों की शुद्धता पर ध्यान देना है कि कौनसी विधि बने कि मेरे भाव पवित्र रहें, मलिन न हों, अस्थिर न हों, ऐसा मेरा परिणाम बने । तो ऐसा परिणाम यहाँ इस गाथा में चार भागों में दिया है । (1) सम्यग्दर्शन (2) सम्यग्ज्ञान (3) सम्यक्चारित्र और (4) सम्यक् तप ।
सम्यक्त्वस्वरूप आत्मा की शरण्यता―सम्यग्दर्शन―तो इस भाव के मायने है कि जिसने अपने आत्मा के सहज अपनी ही मात्र सत्ता के कारण जो सुगम स्वरूप है, चेतनामात्र, प्रतिभासमात्र, उस स्वरूप का जिसने अनुभव कर लिया, अपने ज्ञान में उस ज्ञानस्वरूप को अनुभव लिया और जिस अनुभव के कारण अलौकिक आनंद मिला, जहाँ संशय, मोह, विपर्यय आदिक दोष निकल गए, केवल स्वच्छतामात्र लक्ष्य में रह गया, ऐसा भाव बने तो वह कहलाता है सम्यग्दर्शन । जीव का शरण यह सम्यग्दर्शन का भाव है और सम्यग्दर्शन आत्मा से कोई पृथक् वस्तु नहीं है । आत्मा ही इस रूप परिणाम बनाता अपने को अनुभव इसने किया तो यह वह आत्मा ही तो है । तो आत्मा में ही सम्यक्त्व मिला, आत्मा का ही एक परिणमन सम्यक्त्व रहा, सम्यक्त्व पाने के लिए बाहर में किसी भी वस्तु से आशा, प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व किसी परपदार्थ का भाव नहीं । एक निज सहज आत्मा का आश्रय ले, बस यही सम्यक्त्व का परिणमन पाया जाना है । जो बताया गया है कि देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान करना, उनका विनय करना, भक्ति करना, सो यह कार्य उचित है मगर यह कार्य भी किसलिए किया जा रहा है, यह भी तो ध्यान में होना चाहिए । क्या प्रभु की इसी तरह जन्म-जन्म में पूजा करते रहने के लिए ही यह जीवन है? यही एक जिसका निर्णय हो उसने मोक्षमार्ग का रहस्य नहीं पाया । जो आत्मतत्त्व का अनुभवी है उसको देव, शास्त्र, गुरु के प्रति बहुमान का भाव जगेगा ही । किंतु देव की इस तरह भक्ति करते रहना ही मात्र हमारा लक्ष्य है, यह बात यहाँ नहीं है । देव की भक्ति भी अपने स्वरूप में लीन होने के लिए की जा रही है, क्योंकि देव का स्वरूप और मेरा स्वरूप समान है । देव ने उन आवरण और दोषों का क्षय कर लिया है सो वह उत्कृष्ट पद में, सुख में, आनंद में विराजमान हैं । वे अभी निरावरण नहीं हो सके, यही तो अंतर रह गया, पर मूल में अंतर नहीं है । तो प्रभु की भक्ति करते-करते इस जीव की दृष्टि अपने स्वरूप की ओर जाती है और उस स्वरूप के अनुभव के लिए पौरुष बनता है, यह है प्रयोजन देवभक्ति का । शास्त्र का बहुमान ज्ञानी पुरुष को होगा ही, क्योंकि जो कुछ उसने सीखा वह शास्त्र से सीखा, जो कुछ इसे खुद अनुभव में आता है वह शास्त्र में मिलता है, जिसको सुनकर, बांचकर, समझकर हम अपने उद्धार के मार्ग में बढ़ते हैं । तो ज्ञानी पुरुष शास्त्र का बहुमान करता है, पर उसका यह लक्ष्य नहीं है कि मैं शास्त्र पढ़ता जाऊ̐ और इसके लिए ही मुझे भव-भव में मनुष्यजन्म मिलते रहे और मैं हर बार यही काम करता रहूं, यह लक्ष्य नहीं है । इसका लक्ष्य है कि आत्मा के सहजस्वरूप का दर्शन करना । गुरु की भक्ति भी करता है, पर गुरु की इस तरह सेवा वैयावृत्ति भी हम करते ही रहे भव-भव में, यह लक्ष्य नहीं है ज्ञानीजनों का और गुरुभक्ति किए बिना रहेंगे भी नहीं । इनका लक्ष्य है कि गुरु महाराज आत्मस्वरूप में मग्न होने की दिशा पर बढ़े चले जा रहे हैं और यही मुझे चाहिए । तो जैसे जिस लड़के को सिनेमा जाना है और उसके पड़ोसी लड़के सिनेमा जा रहे हों तो उनसे उसे प्रेम होना प्राकृतिक बात है । और उनमें जो प्रभावक बालक हैं उनके प्रभाव में रहकर संग में रहता है, तो जो बात मुझे चाहिए आत्मस्वरूप का सच्चा श्रद्धान और उस ही स्वरूप के अभिमुख होना, यह बात गुरुवों में पायी जाती है । तो वे गुरुवों के प्रति बहुमान करेंगे ही, भक्त बनेंगे ही, फिर भी इस ज्ञानी का ध्येय यह नहीं है कि मैं इस भक्ति में ही भव-भव में रहूं और यही करता रहूं । उसका उद्देश्य है कि मैं आत्मस्वरूप में मग्न होऊ̐ तो एक सही अभिप्राय बने । एक निर्णय लक्ष्य सही बन जाये तो वह जीव की भलाई है, अन्यथा आत्मस्वरूप का परिचय पाये बिना जगत के ये रूपी पदार्थ कितने ही ढेर लग जायें निकट, उससे इस जीव का कुछ भला नहीं होने का । इसकी भलाई तो केवल आत्मस्वरूप के दर्शन में ही है । तो यह सम्यग्दर्शन आत्मा का ही परिणाम है । आत्मा में ही रहता है और वह मेरा मेरे आत्मा में है । इस कारण मेरा आत्मा मेरे को शरण है, अन्य वस्तु मेरे को शरण नहीं ।
सम्यग्ज्ञानस्वरूप आत्मा की शरण्यता―दूसरी आराधना है सम्यग्ज्ञान आराधना । आत्मा का जैसा स्वरूप, परपदार्थ का जैसा स्वरूप वैसा ही ज्ञान में लेना और उसमें भी पर की उपेक्षा करके निज सहज ज्ञान के ज्ञान का आदर रखना ऐसी ज्ञानवृत्ति जिनके जगती है उनके कहलाता है सम्यग्ज्ञान । यह सम्यग्ज्ञान पोथी पुस्तक में नहीं है, हमारा सम्यग्ज्ञान दूसरे जीवों में नहीं है, हमारा सम्यग्ज्ञान हम ही आत्मा हैं, जब ही व्यर्थ विकल्प घटे, बाह्य पदार्थों के लगाव की दृष्टि हटे और अपने आपको निर्भर समझते हुए अपने ज्ञानस्वरूप की ओर ही जाये तो इसका कहलाता है सम्यग्ज्ञान । वह सम्यग्ज्ञान मेरे आत्मा में ही है, मुझ आत्मा का ही परिणमन है, इस कारण मेरे को मेरा आत्मा शरण है, दूसरा कोई शरण नहीं है । सत्य बात समझ लेने के बाद परिस्थितिवश कुछ दूसरी बात भी करनी पड़े तो वे मन लगाकर न करेंगे । करेंगे, परिस्थिति है, करना पड़ेगा, पर उन कार्यों में उनका मन लगा रहे, यह बात नहीं बनती । ज्ञानी का मन तो अपने आत्मा के स्वरूप में लगा हुआ है, तो यह सम्यग्ज्ञान, जो वस्तु जैसी है उसका उसी तरह का ज्ञान यह आत्मा का ही परिणमन है । मेरी ही चीज है इस कारण मेरे को मेरा आत्मा शरण है ।
सम्यक्चारित्रस्वरूप आत्मा की शरण्यता―तीसरी आराधना है सम्यक्चारित्र । जैसा ज्ञान किया उसके ही अनुकूल यह अपने आपके स्वरूप में रमे, निरंतर ज्ञातादृष्टा रहे, रागद्वेषादिक किसी भी विकार में इसका लगाव न रहे, तो निरंतर ज्ञातादृष्टा बना रहना, रागद्वेष का भाव न आना, यह कहलाता है सम्यक्चारित्र । ज्ञानी गृहस्थ को करना कुछ भी पड़ रहा, क्योंकि धन कमाये बिना गृहस्थ का गुजारा नहीं, धर्म कमाये बिना गृहस्थ का जीवन बेकार है, और दूसरे की सुध अर्थात् कामपुरुषार्थ बिना यह रह कैसे सकता गृहस्थी में? उसे तो तीनों बातें (धर्म, अर्थ और काम) करने पड़ते हैं, पर ज्ञानी का चित्त रम रहा है अपने आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप में । मैं यह हूँ और मुझ को ऐसा ही समान ज्ञातादृष्टा रहना है । तो ऐसी जो ज्ञानी की लगन है ज्ञानमात्र रहने के लिए जिसमें कि खोटे मन, वचन, काय के व्यापार नहीं चलते, शुद्ध स्वरूप की ओर ही उत्साह रहता, ऐसी परिणति का नाम सम्यक्चारित्र है और सम्यक्चारित्र कहीं अन्य जगह नहीं है, आत्मा में ही है । आत्मा ही है, इस कारण मेरे को मेरा आत्मा शरण है ।
सम्यक᳭तपोमय आत्मा की शरण्यता―चौथी आराधना है सम्यक्तप । इच्छावों का निरोध होना तप कहलाता है । यह ही भीतरी तप है और जितने भी बाहरी तपश्चरण चलते हैं उन सबका उद्देश्य यही है अंतरंग तप । इच्छा न रहना, अपने स्वरूप में ही मग्न होना, यह है वास्तविक तप । सो ज्ञानी पुरुष को, सम्यग्दृष्टि को बस इस ही सहज सुगम आत्मस्वरूप की ओर ही दृष्टि रहती है । किसी ने अनशन किया याने भोजन न किया, लो तप हो गया, किसी ने भूख से कम भोजन किया तो उसको विषयों में अधिक पड़ने की इच्छा नहीं होती । वह तो अपने स्वरूप में ही रत रहकर खुश रहना चाहता है । तो जितने भी तप हैं―रस छोड़ना, आखड़ी लेना, एकांत स्थान में सोना, रहना बैठना आदि, कितने ही काय-क्लेश हों, उन सबका उद्देश्य है इच्छावों का निरोध होना । इच्छा न रहे, इस ध्येय और वेग के साथ ज्ञानीजन चलते हैं । इसी तरह जो अभ्यंतर तप हैं उन तपों का भी प्रयोग इच्छावों के अभाव के लिए होता है । तो ऐसी ये चार प्रकार की जो आराधनायें हैं सो ये चारों ही आत्मा में ठहराती हैं, इस कारण मेरे को मेरा आत्मा ही शरण है ।