वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 19
From जैनकोष
जे झायंति सदव्वं परदव्वपरम्मुहा दु सुचरिता ।
ते जिणवराण मग्ग अणुलग्गा लहहिं णिव्वाणं ।।19।।
परद्रव्यपराङ᳭मुख स्वद्रव्यध्यानी के निर्वाण का लाभ―जो पुरुष स्वद्रव्य का ध्यान करता है, परद्रव्य से पराङ᳭मुख रहता है, सम्यक्चारित्र का निरंतर पालन करता है वह जिनेंद्र देव के द्वारा कहे गए मार्ग में लगा है, और ऐसा ज्ञानी पुरुष निर्वाण को प्राप्त होता है । स्वद्रव्य क्या ? आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप को स्वद्रव्य कहते हैं । नित्य अंत: अचल, गुप्त ज्ञायक अमल यह है स्वद्रव्य जो सदा काल है और अंतरंग में अचल है ꠰ यह जीव अनादि काल से निगोद भव में रहा आया जिसमें ज्ञान की न कुछ जैसी दशा है, कहने मात्र को स्पर्शनइंद्रिय है ꠰ ऐसे भवों में अनंतकाल व्यतीत किया, किंतु यह चैतन्यस्वरूप न मिट सका, सो यह चैतन्यस्वरूप ऐसा अचल है और गुप्त हैं । गुप्त कहते हैं सुरक्षित को । गुप्त का अर्थ छिपाया गया नहीं है, यह तो लोगों ने अर्थ लगाया है, पर गुप्त शब्द जिस धातु से बनता है उसका अर्थ संरक्षण है, ‘गुपूसंरक्षणे’, गुपू धातु संरक्षण अर्थ में है, जिसका अर्थ होता है सुरक्षित । यह चीज गुप्त है मायने सुरक्षित है । सुरक्षित प्राय: वही होता है जो छुपाकर रखा गया हो । जैसे कोई स्वर्ण का जेवर दिया कि भाई ! इसको सुरक्षित रखना तो वह क्या करता कि बड़ी तिजोरी में किसी ट्रंक में, किसी पोटली में बांधकर छुपाकर रखेगा । छुपाकर रखी हुई चीज सुरक्षित रहती है इस कारण लोगों ने गुप्त का अर्थ छुपा हुआ कह दिया, पर गुप्त का वास्तव में अर्थ है सुरक्षित । यह आत्मा सुरक्षित है क्योंकि स्वयं सत् है, नित्य है । कभी इसका विनाश नहीं हो सकता, गुप्त है, ज्ञायक है, निरंतर जाननहार है । सोया हुआ है कोई मनुष्य तो भी जान रहा है भीतर निरंतर । भले ही उसकी इंद्रियां बेहोश हैं, अनुभव नहीं हो पाता प्रकट कि कुछ जान रहा हूँ लेकिन वह जान रहा है अंदर में और तभी तो जब सोकर उठा तो कहता कि आज तो मैं खूब रातभर आनंद से सोया । तो रातभर वह सोने का आनंदानुभव करता रहा । ऊपर से कुछ विदित नहीं हो रहा मगर भीतर में वह आनंद पा रहा, निरंतर जान रहा, तो जानन निरंतर रहा करता है । तो जो निरंतर जाननहार है वह ज्ञानस्वभाव स्वद्रव्य कहलाता है । स्वद्रव्य की ओर तो अभिमुख होना चाहिए और परद्रव्य से विमुख होना चाहिए । यही सच्चा चरित्र है । विषय-कषायों से हटा हुआ हो और समता ज्ञानप्रकाश इन ही में लग रहा हो तो उसे कहते हैं स्वद्रव्य की ओर रह रहा है और परद्रव्य से पराङ᳭मुख है ꠰
स्वात्माभिमुख की मोक्षनिकटता―गुरुजी एक घटना सुनाया करते थे कि कोई सिमरिया ग्राम के व्यापारी सांभर ग्राम नमक खरीदने गए । अब सिमरिया तो है बुंदेलखंड (म0प्र0) में और सांभर है राजस्थान में । दोनों ग्रामों के बीच में करीब दो-ढाई सौ मील का अंतर होगा । यह बात उन दिनों की है जबकि आवागमन के पर्याप्त साधन न थे, रेल, बस, ट्रक आदि नहीं चलते थे । प्राय: करके ऊ̐टों पर बैठकर या पैदल यात्रा करनी होती थी । सो जब सांभर ग्राम से नमक खरीदकर सिमरिया ग्राम के लिए रवाना हुए, कोई एक दो मील ही चले थे, उनमें से एक भाई बोल उठा―अरे ! इस सांभर ग्राम से सिमरिया ग्राम तो बहुत दूर पड़ता है, इतनी दूर पहुंचने में तो माह दो माह का समय लग जायेगा । तो उनमें से कोई दूसरा भाई बोला―अरे ! अब तो सांभर दूर सिमरिया नीरी ।....कैसे ? ऐसे कि जिधर पीठ हो गयी वह तो बहुत दूर हो गया और जिधर को मुख हो गया वह बहुत नजदीक हो गया । तो यहाँ अपने लिए यह शिक्षा लें कि अपने ज्ञानानंदस्वभाव की ओर जिसकी दृष्टि हो गई उसके लिए संसार दूर हो गया और मुक्ति निकट हो गई । तो जो परद्रव्यों से पराङ᳭मुख हैं और स्वद्रव्य का ध्यान करते हैं वे सम्यक्चारित्रवान हैं और जिनेंद्रदेव ने जो मार्ग बताया उस मार्ग में लगे हुए हैं । जैसे जो पुरुष नदी को पार कर चुका है जिस मार्ग से चलकर वह यदि दूसरों को मार्ग बताये कि तुम इस-इस मार्ग से आवो तो इस पार आ जावोगे, तो उसकी बातपर दूसरों को विश्वास होता है, और वे उस मार्ग पर चलकर नदी के उस दूसरे पार पहुंच जाते हैं ऐसे ही अरहंतदेव, जिनेंद्रदेव इस संसाररूपी नदी में से रत्नत्रय के मार्ग से चलकर पार हो चुके हैं तो उनपर ज्ञानी को पूरा विश्वास है कि जो इस जिनवाणी में शब्द कहे गए हैं वे पूर्ण सत्य है, और उस मार्ग से हम चलेंगे तो अरहंतदेव की तरह हम भी पार हो जायेंगे । तो यही कहलाता है जिनेंद्रदेव के मार्ग में लग गए । सो जो चरणानुयोग के अनुसार अपना बाह्य आचरण बनाता है और द्रव्यानुयोग के अनुसार उपयोग को लक्ष्य पर टिकाये हैं उसके मोक्षमार्ग में प्रगति होती है । कोई यह चाहे कि हमने द्रव्यानुयोग जाना तो लक्ष्य करते रहेंगे, आचरण कुछ न करेंगे तो वे भी पार न पायेंगे । और कोई यों सोचे कि जैसा चरणानुयोग में बताया है उसके अनुसार क्रिया करेंगे, अपने को जानने की क्या बात, तो वे भी पार न पायेंगे । बाह्य में होती है चरणानुयोग के अनुसार प्रवृत्ति और अंतरंग में रहती है निज सहज स्वभाव पर दृष्टि तो ऐसा पुरुष जिनमार्ग में लगा है और वह नियम से निर्वाण प्राप्त करेगा ।