वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 28
From जैनकोष
मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्ण चएवि तिविहेण ।
मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ꠰꠰28।।
मिथ्यात्व का त्याग होने पर आत्मदर्शन की पात्रता―जिसको सच्चा प्रकाश मिला है, अपने आत्मा के स्वरूप का सही बोध हुआ है वह इस संसार में, इस संसार के साधनों में लगना नहीं चाहता । संसार से और सांसारिक समस्त समागमों से सदा के लिए हटना चाहता है । केवल स्वरूपमात्र रहना चाहता है, ऐसा कोई निकट भव्य पुरुष जिसको मात्र अपने स्वरूप की ही लगन है वह क्या करता हुआ क्या करके मोक्ष पाता है इसका वर्णन इस गाथा में किया है । आत्मकल्याण का इच्छुक पुरुष मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य इन चार को मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करके योग में रहता हुआ शुद्धआत्मा का प्रकाश पाता है । जीव का प्रबल बैरी मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व, मोह, अज्ञान, मूढ़ता, बेहोशी, ये सब एकार्थवाचक हैं ꠰ इस जीव का प्रबल बैरी मोह है । वस्तुएं सब अपनी-अपनी सत्ता में रहती हैं, किसी की सत्ता को कोई वस्तु उत्पन्न नहीं करती । इस कारण प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से जुदा-जुदा ही है । एक पदार्थ का दूसरा पदार्थ कुछ नहीं है, लेकिन मोह-अंधकार में यह अज्ञानी प्राणी बाह्य पदार्थों को ऐसा अपनाता है, उनमें ऐसा लगाव रखता है कि मानो उनके संयोग से तो प्राण हैं और उनके वियोग से प्राण खतम होते हैं, इतना तीव्र व्यामोह इस जीव का प्रबल बैरी है ।
धर्महीन मनुष्य का जीवन पशु से भी निम्न―भैया ! आज दुर्लभ मनुष्यभव पाया है जो बड़ी कठिनाई से मिलता है और उसमें भी जैनशासन का मिलना, जिनवाणी का सुनना यह बड़ी कठिनाई से मिलता है और हमारी इस जैनशासन में, जिनवाणी में रुचि न जगे तो मनुष्य हुए, न हुए बराबर हैं, क्योंकि मनुष्य होकर और कौनसा कार्य कर लिया पशुओं से अधिक ? पशु भी खाते हैं, मनुष्य भी खाते हैं, पशु भी सोते हैं, मनुष्य भी सोते हैं, पशु भी विषयों का सेवन करते हैं, मनुष्य भी विषयों का सेवन करते हैं, पशु भी डरते हैं और मनुष्य भी डरते हैं । पशुओं से अधिक ये मनुष्य कर क्या रहे हैं सो तो बताओ ? बल्कि धर्महीन मनुष्य, ज्ञानहीन मनुष्य पशुओं से भी गए बीते हैं । पशुओं का खाना तो उनकी भूख पर निर्भर है । भूख तेज लगी है तो वे खाना खायेंगे, मगर मनुष्यों का खाना ऐसा है कि भूख लगी हो तो, न लगी हो तो, जबरदस्ती खाते ही हैं और यों कह लो कि जब चाहे खाते-पीते रहते हैं । पशु तो पेट भरे के बाद कुछ भी नहीं खाते, चाहे कितनी ही हरी घास रखें, चाहे कितने ही गेहूं चने आदि दाने रखें, वे उनकी ओर देखते भी नहीं, पर मनुष्यों का पेट भरा हो तो भी चाट पकौड़ी खाने के लिए कुछ न कुछ जगह निकल ही आती है, इनकी इच्छा कभी तृप्त नहीं होती । तो बतलाओ भोजन के विषय में मनुष्य पशुओं से भी बुरे हें या नहीं ? अब नींद की बात देखो तो पशु ऐसी नींद लेते हैं कि जरासी आहट होने पर जग जाते हैं मगर मनुष्यों को तो नींद लेते हुए में हाथ झकझोर कर उठाना पड़ता है, इतनी तेज बेहोशी से मनुष्य सोते हैं । तो नींद में भी मनुष्यों से पशु अच्छे रहे । अब डर की बात देखो तो पशुओं को जब कोई लाठी लेकर सामने आ खड़ा हो तभी डरते हैं पर मनुष्य तो गद्दा-तकियों, बड़े-बड़े आराम के साधनों के बीच रहकर भी भय किया करते हैं । कहीं चोरों का भय, कहीं सरकारी कानूनों का भय तो कहीं अपनी इज्जत प्रतिष्ठा में कमी का भय । तो भय में भी मनुष्यों से पशु अच्छे रहे । अब मैथुन विषय की बात देखो तो पशु कोई नियत ऋतु में इन विषयों का सेवन करते हैं, पर मनुष्यों का कोई नियत काल नहीं है । तो विषयसेवन में भी, कामसेवन के विषय में भी यह मनुष्य पशुओं से गया बीता है । कौन-सी बात श्रेष्ठ है । मनुष्य में सो तो बताओ ? तो एक धर्म को छोड़कर श्रेष्ठता की बात कुछ नही है मनुष्य में । धर्महीन मनुष्य पशुओं से गया बीता है । अब शरीर की भी बात देखो तो हम आप यहाँ इन पशुओं को देखकर ऐसा कह बैठते कि ये क्या चार पैरों पर चल रहे, इनकी क्या दशा है ? पर पशु क्या इन दो पैरों पर चलने वाले मनुष्यों के प्रति इस तरह से न सोचते होंगे ? अरे ! वे भी इन मनुष्यों के प्रति न जाने क्या-क्या सोचते होंगे ? सुंदरता का वर्णन जब कवि लोग करते हैं तो मनुष्यों की सुंदरता के लिए पशुपक्षियों के अंगों की उपमा देते हैं, पर पशु-पक्षियों की सुंदरता के लिए किसी कवि ने मनुष्य के किसी अंग की उपमा नहीं दी । तो जिसकी उपमा दी जाये वह श्रेष्ठ कहलाता है । इस मनुष्य की नाक तोते की तरह है, इस मनुष्य का स्वर कोयल की तरह है, इस मनुष्य की कमर सिंह के समान है, आदिक अंगों की उपमा पशु-पक्षियों से दी जाती है । लो सुंदरता में भी ये पशु-पक्षी इन मनुष्यों से बड़े निकल गए । अब जरा शरीर के अंगों के काम की बात देखो तो पशु-पक्षियों के अंग तो कुछ काम आ जाते हैं जैसे हाथी के दांत, गाय, बैल, भैंस आदिक की चमड़ी अथवा रोम, अनेक चीजें पशुओं की काम में आ जाती हैं, पर मनुष्यों का कोई अंग यदि काम में आता हो तो बतलावो । इसे तो मात्र जलाना या गाड़ना पड़ता है । तो मनुष्यों की विशेषता धर्मपालन से है, इस कारण एक भव में भी यदि मोह को त्याग दें तो आत्मा का कल्याण हो जाये । अनंत भव तो गुजर गए मोह कर करके, एक भव यदि बिना मोह के गुजरे धर्मपालन में तो आत्मा का सदा के लिए संकट टल जायेगा ।
मिथ्याभावकर अपने भगवान आत्मा पर अत्याचार करने का फल दुर्गमन―आत्मन् ! कुछ अपने आप पर दया अवश्य करना चाहिए । अपने भगवान आत्मा पर अत्याचार न करें । एक कथानक है कि एक साधु महाराज के पास एक चूहा रहता था, चूहा महाराज से स्नेह भी करने लगा । वहीं पास ही रहा करता था, और उस साधु को भी चूहे से प्रेम हो गया । एक दिन चूहे पर बिल्ली झपटी तो साधु ने आशीष दिया―विडालोभव, तू भी विडाल बन जा । अब विडाल बनने के बाद विडाल से भय न रहा, फिर उस पर कुत्ता झपटा तो साधु ने फिर आशीर्वाद दिया―स्वानोभव, अर्थात् तू भी कुत्ता बन जा । लो वह भी कुत्ता बन गया, अब उसे कुत्ते का डर न रहा । एक बार उस पर झपटा तेंदुवा तो साधु ने आशीर्वाद दिया―व्याघ्रो भव अर्थात् तू भी तेंदुवा बन जा, लो वह भी तेंदुवा बन गया, अब उसे तेंदुवा का भय न रहा । फिर एक बार उस पर झपटा सिंह तो साधु ने आशीर्वाद दिया, सिंहो भव अर्थात् तू भी सिंह बन जा, लो वह भी सिंह बन गया, अब उसे तेंदुआ का भय न रहा । अब लगी उस सिंह को तेज भूख, कुछ खाने को था नहीं, सो मन में आया कि इन्हीं साधु महाराज को खाकर अपनी क्षुधा मिटायें । जब खाने का उद्यम किया तो साधु ने पुन: कहा―पुनर्मूषको भव, माने तू फिर से चूहा बन जा, लो वह फिर से चूहा बन गया । भला बताओ जिसके आशीर्वाद से चूहे से सिंह बना उसके ऊपर हमला करने की ठाने तो उसे फिर से चूहा बनना पड़ेगा । ऐसे ही यह जीव जिस सहज परमात्मतत्त्व के आशीष से निगोद से निकलकर एकेंद्रिय, एकेंद्रिय से निकलकर दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय आदिक से निकलकर संज्ञी पंचेंद्रिय मनुष्य हुए हैं तो आज ये अनेक कलावों के द्वारा इस सहज परमात्मा भगवान पर आक्रमण कर रहा है । विषयों का सेवन, मोह-अज्ञान में रहना, ममता करना यह इस भगवान आत्मा पर आक्रमण है । सो मनुष्य होकर यह अपने ही भगवान आत्मा पर आक्रमण करने लगा । सो यह भगवान आत्मा पुन: आशीष देगा पुनर्निगोदोभव, याने तू फिर से निगोद बन जा । सो भैया ꠰ मिथ्यात्व इस जीव का प्रबल बैरी है ।
अज्ञान को तजकर मौनव्रत से योगस्थ ज्ञानी का आत्मनिरीक्षण―अज्ञान अर्थात् सही ज्ञान न होना । यह मोही जानता है कि ये घर में उत्पन्न हुए हैं, ये ही मेरे सब कुछ हैं, इनके ही लिए मेरा तन, मन, धन, वचन प्राय: अर्पित है । इनको छोड़कर मेरा कुछ नहीं है । यह विकट अज्ञान है और इसका फल संसार में जन्ममरण करके भटकते रहना है । इस अज्ञानी को यह पता नहीं कि जैसे यह मैं आत्मा स्वतंत्र सत् हूँ, ऐसे ही ये घर में आये हुए जीव स्वतंत्र सत् हैं । इनकी करनी इनके साथ है, इनके कर्म इनके साथ हैं । इनका होनहार इनके भावों के अनुकूल है । इनकी किसी भी चेष्टा से मेरे को सुख नहीं होता । मैं अपने ही भावों से सुख और दुःख पाता हूँ । यह प्रकाश इस अज्ञानी को नहीं मिला, सो कुटुंबीजनों में एकदम लीन होता हुआ अपने जीवन को व्यर्थ गमा रहा है । वह अज्ञान इस जीव को पतन की ओर प्रेरित कर रहा है । इसको सुहावने लगते हैं विषयों के साधन । विषय-साधनों में ही इसकी रुचि है, विषय के साधनों में ही इसका मन है, विषय के साधनों में ही यह सारे क्षण बिताता है, इसको ये बाह्य विषय ही प्रिय लग रहे हैं, और जो प्रिय हैं संवेग, ज्ञान वैराग्य, ये इसे रुचिकर नहीं होते । तो यह अज्ञान इस जीव को पतन की ओर प्रेरित करता है । जो आत्मकल्याण के इच्छुक हैं वे जैसे मिथ्यात्व का त्यागकर आत्मकल्याण के मार्ग में बढ़ते हैं ऐसे ही अज्ञान को छोड़कर मोक्षमार्ग में बढ़ रहे हैं । जिसको आत्मकल्याण की धुन है वह क्या करता है, यह बात इस गाथा में कही जा रही है ।
पापपुण्य विकल्पों को तजकर योगस्थ ज्ञानी का मौनव्रत से अंतःप्रेक्षण―पाप―पापों का सिरताज है मोह, मिथ्यात्व । फिर क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये सब पाप हैं । सप्त व्यसनों में रहना यह सब पाप है । ये पाप तो छोड़ने योग्य ही हैं, इन पापों को ही तो पूरी तरह से छोड़कर आत्मकल्याण के इच्छुक जन योगी बनते हैं । पापों को छोड़ो अर्थात् अपनी दुर्भावना को त्यागो । पाप अपने दुर्भाव हैं । बाह्य से कुछ प्रवृत्ति बन जाती है, वहाँ पाप इस कारण कहते हैं कि खोटे भावों के कारण प्रवृत्ति बनी है तो दुनियां को हम किस तरह समझायें कि पाप किसे कहते हैं ? तो खोटी प्रवृत्तियों का नाम लेकर कहा जाता है कि यह पाप है । जो दुर्भाव न हो तो खोटी प्रवृत्तियां कौन करेगा ? खोटे आशय बनाना, अहिंसा के विरुद्ध आचरण करना, विषयकषायों में लीन होना ये सब पापभाव हैं । आत्मकल्याण के इच्छुक पुरुष पापभाव सर्वथा त्याग देते हैं । समय है, जिस समय जो पर्याय होनी है वह उस क्षण होती है, गुजर जाती है, मगर दुर्भाव करके जो खोटी परिणति बनायी है, जिसमें वह मौज जान रहा है, वह कल्पित मौज भी नहीं रहती । और उसके कारण जो पाप का बंध हुआ है उसके उदय में अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं ꠰ तो आत्मकल्याण का इच्छुक पुरुष पापभाव को तजता है और आत्मकल्याण में बढ़ने का उद्यम करने वाला योग पुण्यभाव को भी छोड़ देता है; परीषह विजय, व्रत पालन, उपवास आदिक के विकल्प को छोड़ देता है । उपवास करते हुए वह आगे बढ़ता जा रहा है, पर विकल्प मचाकर उनको वह नहीं करना चाहता । तो पुण्य को छोड़ने का मतलब पाप में आने के लिए नहीं है,किंतु शुद्धोपयोग में पहुंचाने के लिए है । तो ऐसे इन सब दुराशयों को तजकर योगीजन शुद्ध आत्मा के प्रकाश में आते हैं ।