वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 41
From जैनकोष
जीवाजीवविहत्ती जोइ जाणेइ जिणवरमएण ।
तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरिसीहिं ꠰꠰41꠰꠰
जीव और अजीव का विभाग―इस गाथा में ज्ञान का स्वरूप कहा है ꠰ जिनेंद्रदेव के बताये हुए सिद्धांत की विधि से जानकर यह समझ लेना कि जीव पृथक् हैं और अजीव पृथक् हैं, जो जीव नहीं सो अजीव । और ज्ञानी की दृष्टि में जीव आया है अनादि, अनंत, चैतन्य स्वरूपमात्र । जो सदा रहे, जो बदले नहीं ऐसा जो स्वरूप है उस रूप अपने को निरखना है । तब उसकी दृष्टि में बाहरी जितने समागम हैं वे तो अजीव हैं ही, शरीर अजीव, कर्म अजीव और कर्म का उदय का निमित्त पाकर जो अंत:रागादिक विकारपरिणमन होते हैं, जीव की विकृति बनती है वह विकार भी अजीव, चैतन्यस्वरूप मात्र जीव । तो उसके मायने ये ज्ञान भी अजीव, जो अधूरे ज्ञान चलते हैं वे भी जीव नहीं । जब यह अपने अनादि अनंत चैतन्यस्वरूप को तक रहा है, यह जीव है तब इस आत्मस्वभाव को ही जीव निरख रहा है । और इस निरख के सामने मति श्रुत आदिक अधूरे जो ज्ञान हैं वे भी जीव नहीं । अजीव के दो अर्थ होते हैं―एक जीव और एक जीव नहीं । उसकी दृष्टि में यह आत्मस्वभाव है सो तो स्व है और शेष जो तत्त्व हैं वे उसकी निगाह में पर हैं, क्योंकि स्व का आश्रय बना और इतना ही नहीं, मिथ्यात्व आदिक जो गुणस्थान कहे वे भी इसके आशय से अजीव हैं । यह मात्र उस चैतन्यस्वरूप को जीव निरख रहा है, यह भी प्रयोग की स्थिति का वर्णन चल रहा है । वैसे व्यवहार से तो सभी जीव हैं, पशु जीव, पक्षी जीव, कीड़ा-मकोड़ा जीव क्योंकि यदि जीव न कहा जाये तो जो चाहे उनकी हिंसा भी कर ले काठ पत्थर की तरह है मानकर मगर परमार्थ जीव क्या है, और किसके आश्रय से पावे ? अपने ही आश्रय से यह समाधिष्ठ बनता है, तो जीव और अजीव की विभक्ति करना, विभाग करना इस बात को योगी जानता है । जीव का स्वरूप है अविनाशी, जो चित्स्वरूप अनादि अनंत है, वह मैं जीव हूँ । इस लक्षण के मुताबिक परख करते जाइये, जो बात मिटती हो वह मैं नहीं, जो स्वरूप अमिट है वह मैं हूँ । इस परमार्थ जीवस्वरूप के निर्णय के प्रसंग में केवल यह चैतन्यस्वरूप ही इसका जीव है और इसके अतिरिक्त जितने भी तत्त्व हैं वे जीव नहीं हैं, स्व नहीं हैं । जिस दृष्टि से निरखना उसी दृष्टि से निरखने पर तत्त्वज्ञान होता है ।
लक्ष्यभूत अंतस्तत्त्व में स्वत्व का अनुभव―जीव और अजीव के भेद की बात कह रहे, समयसार में इसका स्पष्ट विवेचन है, जीव के ये कुछ नहीं हैं । गुणस्थान आदिक भी जीव नहीं, सयोगकेवली अयोगकेवली, जिन्हें हम भगवान कहते हैं वे भी इस योगी ध्यानी के लक्ष्य में जीव नहीं, वह भी जीव का एक परिणमन है । तो जो परमार्थ जीव है उसके आश्रय से ही विशुद्धि बनती है, कर्म दूर होते हैं, तो सर्वज्ञ देव ने इस प्रकार सम्यग्ज्ञान का वर्णन किया ꠰ बढ़ना है अपने को मोक्षमार्ग में तो मोक्षमार्ग में चलने का, बढ़ने का एक ही आलंबन है, एक ही उपाय है कि अनादि अनंत अहेतुक चैतन्यस्वरूप का आलंबन लेना, उसकी दृष्टि वही है । जैसे एक कथा है महाभारत की कि जब द्रोणाचार्य कौरव और पांडवों को धनुर्विद्या सिखा चुके तो एक दिन उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा । तो लिखा तो यों है कि पेड़ पर किसी कागज या लकड़ी वगैरह की नकली चिड़िया टंगवा दी और सभी राजकुमारों से उस चिड़िया की आंख में तीर मारने को कहा । सभी राजकुमार परीक्षा देने के लिए तैयार हुए । वहाँ द्रोणाचार्य प्रत्येक राजकुमार से बारी-बारी से तीर का निशाना लगाते समय पूछते जा रहे थे कि तुम्हें इस समय क्या दिखता है । तो वहाँ प्राय: करके सभी ने यही उत्तर दिया कि हमें तो आप दिखते, सभी राजकुमार दिखते, वृक्ष दिखता, चिड़िया दिखती, जंगल दिखता, मैदान दिखता । सभी के इसी तरह के उत्तर सुनते गए गुरु द्रोणाचार्य और सभी को अनुत्तीर्ण घोषित करते गए । अंत में जब अर्जुन की बारी आयी तो गुरुद्रोण ने पूछा―बताओ तुम्हें इस समय क्या दिखता है ? तो वहाँ अर्जुन का यही उत्तर था कि बस मुझे तीर की नोक और चिड़िया की आंख दिखती है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं । तो ऐसे ही जब समाधि ध्यान योग के प्रसंग में यह ज्ञानी निरखता है तो एकमात्र अनादि अनंत अहेतुक यह चैतन्यस्वभाव ही दृष्ट होता है ।
ज्ञानी की पुण्य से भी उपेक्षा―आप रोज पूजा करते उस प्रस्तावना में एक छंद बोलते हैं―अर्हत्पुराण-पुरुषोत्तमपावनानि वस्तुन्यनूनमखिलान्ययमेक एव । अस्मंजवज्वद्विमलकेवलबोधवह्नो, पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि । हे अरहंत ! हे पुराण !! हे पुरुषोत्तम !!! यहाँ जो इतनी पवित्र चीजें रखी हैं सो ये सारी-की-सारी एक ही चीज हैं याने जब वहाँ केवल एक ही दृष्टि में है, वह क्या दृष्टि में ? यह जाज्वल्यमान केवलज्ञानज्योतिरूप अग्नि । सो यह मैं जाज्वल्यमान केवलज्ञानप्रकाशरूप अग्नि में एकमन होकर समग्र पुण्य को मैं स्वाहा करता हूँ । पुण्य मायने पवित्र वस्तु, अब अर्थ लगाते जाइये―जो थाल सजा रखा है, पवित्र चीज रखी है सो वर्तमान प्रसंग तो यह ही बताता है कि मैं इसको स्वाहा करता हूँ, स्वाहा का सीधा अर्थ है त्यागता हूँ ꠰ अब स्वाहा करने का स्पष्ट अर्थ देखिये―मानो कोई भगवान की ओर से कह रहा कि वाह रे भक्त ! तुम अच्छा बहका लेते हो प्रभु को । यह कोई दो-ढाई रुपये का सामान एक थाल में सजाकर कह रहे हो, एक बड़ी शान बघार रहे हो कि मैं समग्र पुण्य को एकमन होकर स्वाहा करता हूँ, तो पूजक की ओर से उत्तर होता है कि महाराज ! इतना ही नहीं, जितना पुण्य धन वैभव मुझको मिला है मैं उस सबको स्वाहा करता हूँ । याने आपकी भक्ति में वह सब भी अर्पण करता हूँ, तो फिर मानो कोई कहने लगा प्रभु की ओर से कि यहाँ भी तुम बहका रहे, जान तो रहे ही हो कि यह धन वैभव तो सब छूट जाने वाला है, साथ तो कुछ जाना नहीं है, विनाशीक है सो इसको अर्पण करके भले बन जायेंगे; भक्त कहता है कि महाराज !इतनी भी बात नहीं, जिस पुण्यकर्म के उदय से यह वैभव मिलता है उस पुण्य का भी मैं स्वाहा करता हूँ । याने पाप तो इष्ट है ही नहीं, पर मुझे यह पुण्यकर्म भी इष्ट नहीं, मैं तो कर्मों से रहित होकर एक शुद्ध सिद्धदशा पाऊ̐, यह चाहता हूँ । फिर मानो प्रभु की ओर से कोई कहने लगा कि ये जड़ कर्म पौद्गलिक हैं, पाप-पुण्य कर्म ये सब तेरे से भिन्न हैं, ये कोई चीजें तेरे में नहीं हैं, सो पर की बात कहकर तू शान बघार रहा है । तो वह भक्त कहता है कि इतना ही नहीं, जिस भावपुण्य के निमित्त से यह द्रव्यपुण्य आता है उस भावपुण्य को भी मैं स्वाहा करता हूँ । याने मुझे शुभ भाव भी न चाहिए, मुझे तो शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप परिणमन ही चाहिए । तो जिसका स्वाहा किया वे सब चीजें हैं क्या ? परमार्थ दृष्टि से एक वह ज्ञानज्योतिमात्र शुद्ध चैतन्य वह मेरी निगाह में जीव है और बाकी सब ये कोई चीजें जीव नहीं हैं । एक लक्ष्य है ।
सर्वश्रेयों का आधार सहजात्मस्वरूप का परिचय―देखिये, यदि आत्मा के स्वरूप का लक्ष्य परिचय पाया तो आपका यह व्यवहारधर्म, आपके धर्मपालन का सहयोगी बन जायेगा और एक अपने आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है तो व्यवहारधर्म करते हुए भी उसमें जाना क्या गया ? कल्पनायें उसका आधार हैं । तो वहाँ धर्मपालन नहीं होता । व्यर्थ तो यों न कहेंगे कि कुछ मंद कषाय हुई, पुण्यबंध हुआ, तो सद्गति मिलेगी, आगे चेत जायेंगे तो कल्याण हो जायेगा । इसके बजाय यदि पापभाव करते, विषयकषायों में रमते और कीड़ा-मकोड़ा जैसी खोटी गतियों में जन्म लेना पड़ता तो कुछ आगे को कोई अच्छा होने की संभावना भी नहीं है, इस कारण पुण्य और पाप के कार्यों की अपेक्षा तो यह बहुत अच्छा है कि नहीं भी ज्ञान है तो भी मंदिर में आये, कुछ बात सुनी, कुछ समारोहों का आनंद लिया, तीर्थयात्रा का आनंद लिया, रथोत्सव आदिक में भी खूब आनंद लिया, अच्छा है, मगर जन्ममरणमय इस संसार से छुटकारा पाने के लिए तो उसकी दृष्टि में एक यह निर्णय है कि अनादि अनंत अहेतुक शुद्ध चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व के आलंबन से ही मोक्ष मिलेगा । तो यह जीव और अजीव के विभाग को योगी यथार्थ जानता है । जिसके बल से वह परमार्थ सहज स्वरूप तक पहुंचता है, तो ऐसा जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान है, ऐसा जिनेंद्रदेवने यथार्थतया निर्णय किया ।