वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 47
From जैनकोष
जिणमुद्दं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिट᳭ठं ।
सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे ꠰꠰47।।
जिनमुद्रा व मुक्तिसुख के अरुचियों का भवगहनवनभ्रमण―जिस जीव को यह जिनमुद्रा नहीं रुचती है वह संसारवन में घूमता ही रहता है । जिनमुद्रा के मायने अपने आपके अविकार स्वरूप पर दृष्टि रहना । मैं स्वयं हूँ, स्वभावत: विकाररहित केवल ज्ञानमात्र आत्मा । ऐसे अविकार स्वभाव की दृष्टि के बल से मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, आदिक अंतरंग परिग्रह नहीं आ सकते । यह है वास्तविक जिनमुद्रा, और भीतर में ऐसा निर्मल भाव बने, उसके लिए आवश्यक है कि बाह्य पदार्थों का भी त्याग कर दिया जाये । तो बाह्य में दिगंबर नग्न और अंतरंग में अविकार स्वभावमात्र आत्मतत्त्व, उसी को यह ही मैं हूँ, ऐसा अनुभव करते रहना यह है जिनमुद्रा । ऐसी जिनमुद्रा जिसे नहीं रुचती है वह संसारवन में भ्रमण करता है । जिनमुद्रा या मुक्ति का सुख लोगों को रुचता क्यों नहीं है ? अनादिकाल से यह जीव कर्मबंधन में पड़ा है । कर्म के उदय में आत्मीयता मानता है, सो अपना स्वरूप ढक गया, अपना स्वरूप अपने को विदित नहीं हो रहा और बाहर के ये विषयसुख साधन इसको रुचते हैं । सो इसको विषयों में प्रीति होने लगी और विषयों के साधनभूत यह सारा भौतिक समागम इसको रुचने लगा ꠰ सो दो ही मार्ग हैं, या तो भौतिक समागम रुचते जायें, संसार में घूमते जायें या भौतिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर आयें, मैं ज्ञानमात्र हूँ, ऐसा इसको प्रकाश मिले तो यह संसार जाल से हटकर मोक्षमार्ग और मोक्ष की ओर लगने लगे । इससे आत्मा का सही परिचय होना अति आवश्यक है, और इसी परिचय से यह विषय सुख से हटेगा और आत्मीय सहज आनंद इसको रुचेगा । जिसको जिनमुद्रा मुक्ति का सुख स्वप्न में भी नहीं रुचता वह जीव संसार-गहनवन में भ्रमण करता रहता है ।
भौतिकता, मानवता व आध्यात्मिकता का विश्लेषण उपादेयपन―विद्वानों का व्याख्येय एक विषय है भौतिकता और मानवता । इन दो के साथ में एक चीज और मिला दीजिए―आध्यात्मिकता याने भौतिकता, मानवता और आध्यात्मिकता । अब इनका वास्तविक अर्थ लगा लीजिए जो अपने काम आये । भौतिकता के मायने है आज का दिखने वाला यह बाहरी चमकधमक तड़क-भड़क, भोग, विषयों के सुख-साधन अथवा समस्त बाह्य प्रसंग । लोग कहा करते हैं ना, इस भौतिकता से हटो और मानवता की ओर आवो ꠰ अब विचार कीजिये वह मानवता क्या है ? दया, दान, विनय, भक्ति आदिक गुणों से युक्त होना । और आध्यात्मिकता क्या है ? इन समस्त गुणों का आधार आध्यात्मिकता है । अगर आध्यात्मिकता का प्रकाश नहीं है तो वहाँ मानवता आ नहीं सकती । एक बात और भी जानो कि मानवता के मूल में आध्यात्मिकता भी चल रही है । अब यह देखो कि जो विषयों से अनुरागी हैं, अपने ऐश-आराम के साधन जो बहुत चाहते हैं और उन सुख-साधनों से अथवा यश प्रतिष्ठा की चाह मन में होने से दूसरों को न कुछ जैसा समझते हैं । खुद को तो सब कुछ होना चाहिए पर दूसरों के लिए कुछ नहीं ऐसा जो भौतिकता में बड़े चले जा रहे हैं वे कितना भूल में हैं । उस भूल को भी वे भूल नहीं समझते, भूल में भूल करते जा रहे हैं । अरे ! यहाँ कुछ भी मनचाहा करलो पर यह मनमानी सदा न चलेगी, देर है पर अंधेर नहीं, भौतिकता का अनुरागी होने के मायने है पंचेंद्रिय के विषयों का अनुरागी होना । भला बताओ इन पंचेंद्रिय के विषयों के अनुरागी बनकर आज तक कभी शांति पायी क्या ? जब बहुत अंतर्दृष्टि करके विचार किया जायेगा तो पता पड़ेगा कि ये सब बाहरी चमक-धमक ये सब आकुलता के ही कारण हैं, ये सब साथ न जायेंगे, सब यों के यों ही पड़े रह जायेंगे । यह जीव अकेला ही यहाँ का सब कुछ छोड़कर चला जायेगा । फिर जो रहना ही नहीं, उसमें आसक्ति व्यर्थ है ।
परिग्रह की स्पष्ट भिन्नता―एक बार कोई चार चोर कहीं से दो लाख का धन चुराकर लाये और किसी
जंगल में उस धन को रखा । रात का समय था, चारों चोरों के पास बंदूकें थीं । उन चोरों ने परस्पर में सलाह किया कि अब धन तो बाद में बांटा जाये, पहले कहीं से मिठाई खरीदकर लायी जाये, खूब खायी जाये, बाद में आराम से बांटा जाये, ठीक है । आखिर दो चोर तो रह गए उस धन की रखवाली करने के लिए और दो चोर गए मिठाई खरीदने । अब देखिये क्या घटना घटी कि मिठाई खरीदने जाने वाले दोनों चोरों के मन में आया कि अपन लोग यहाँ से मिठाई में विष मिलाकर ले चलें । वे दोनों मिठाई खाकर मर जायेंगे और हम तुम दोनों एक-एक लाख का धन ांट लेंगे । ठीक है अब वे दोनों तो चले विष मिली मिठाई लेकर, इधर धन की रखवाली करने वाले दोनों चोरों ने परस्पर में सलाह किया कि उन दोनों को अपन दोनों गोली से सूट कर दें, उन दोनों के गुजर जाने पर एक-एक लाख का धन बांट लेंगे । आखिर वही किया, उन दोनों को गोली से सूट कर दिया, वे तो यों गुजर गए और इधर दोनों ने खूब छककर वह विष मिली मिठाई खायी जिससे वे दोनों भी गुजर गए । सारा धन ज्यों का त्यों पड़ा रह गया । तो ठीक यही हाल हो रहा है यहाँ के भौतिक पदार्थों के संबंध में । सारे जीवन ये संसारी प्राणी इन भौतिक पदार्थों की ओर दौड़ मचाते रहते हैं, न्याय-अन्याय कुछ नहीं गिनते, खूब संचय करते, पर अंत में एक दिन वह आता कि सब कुछ छोड़कर चले जाते । समस्त बाह्य पदार्थ यों ही धरे रह जाते ।
मानवता से आत्मगुणदर्शन का पोषण पाकर आध्यात्मिकता रमने से कल्याण की अवाप्ति―देखिये इस आत्मा का शृंगार है मानवता । आज का मानव अपनी मानवता को भूल गया । यहाँ तक कि बड़े-बड़े पदाधिकारी भी बेइमानी रिश्वतखोरी पर उतारु हो गए, उन्होंने भी अपनी-अपनी मानवता को खो दिया है । इतिहास इस बात का साक्षी है कि बहुत पुराने जमाने में ऐसे-ऐसे राजा महाराजा हो चुके जिन्होंने केवल टोपी बना-बनाकर या केवल अपने लिए थोड़ीसी खेती का साधन रखकर अपने परिवार का पालन-पोषण किया और बाकी सारा धन प्रजा के हित के लिए लगाया । राज्य का सारा धन उन्होंने अपने लिए काम में नहीं लिया, उनका विचार था कि राज्य का सारा धन प्रजा का है न कि मेरा । इस तरह से उन्होंने अपना जीवन गुजारा । इस तरह के अनेकों दृष्टांत मिलते हैं । आज के उच्च पदाधिकारी भी यदि उन राजा महाराजावों की भांति अपना जीवन बना ले तो इससे देश का उत्थान होने में कोई आश्चर्य नहीं । आज का सारा मानवसमाज यदि अपने में वैसी ही मानवता लावे तो सभी आत्मीय दृष्टि से भी बड़ा उत्थान कर सकते हैं । वैसे तो आज के युग में लोग इस धन वैभव को अधिक महत्त्व दे रहे हैं । धन वैभव के बढ़ने से ही अपनी प्रगति समझ रहे हैं, धन वैभव के संचय करने से ही अपनी महत्ता, अपनी प्रतिष्ठा समझ रहे हैं, पर ध्यान रहे, धन वैभव के संचय करने से प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती किंतु प्रतिष्ठा बढ़ती है धन को परोपकार में लगाने से । यदि इस धन-वैभव, आरंभ-परिग्रह के प्रति ममता, तृष्णा, लगाव रहेगा तो वहाँ मानवता न रहेगी । हाँं एक कर्तव्य हो जाता है गृहस्थी में रहने के नाते से सो कुछ धन वैभव का संचय करना भी आवश्यक हो जाता है, पर उसके लिए भी एक कोई न कोई परिमाण होना चाहिए । परिमाण न होने से धन वैभव का संचय करने की तृष्णा रहा करती है । इन बाहरी पदार्थों का संचय करने वाला व्यक्ति कभी अपने उद्धार का मार्ग नहीं पा सकता इससे अपने आपके अंदर मानवता आनी चाहिए । इसके लिए चाहिए अपरिग्रहता और आध्यात्मिकता । इन दो के बिना इस जीव को कभी भी शांति का मार्ग नहीं प्राप्त हो सकता । परिग्रह के प्रति लगाव न रहे और अपने आत्मा के स्वरूप का परिचय प्राप्त करें, समस्त परपदार्थों को असार अहितकर जानकर अपने आत्मस्वरूप की उपासना करें इससे कल्याण का मार्ग मिलेगा । यों भौतिकता से उठकर मानवता में आयें और मानवता से बढ़कर आध्यात्मिकता में आयें तो इस जीव का नियम से कल्याण होगा ।