वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 56
From जैनकोष
जो कम्मजादमइओ सहावणाणस्स खडदूसयरो ।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो ꠰꠰56।।
स्वभावज्ञान में दूषण थोपनेवाले की जिनशासनदूषकता―ज्ञान को आप तीन प्रकारों में देखें―एक तो हैं कर्मजन्य ज्ञान, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान जो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होते, तो एक तो यह ज्ञान और एक भगवान का केवलज्ञान, वह कर्म के नाश से हुआ और तीसरा देखिये आत्मा में शाश्वत् एक रूप रहने वाला ज्ञानस्वभाव ꠰ सो दूषित ज्ञान कौन है इन तीन में से? वह कर्मजन्य ज्ञान, जो हम आपको होता है । मतिज्ञान कर्मजन्य ज्ञान है, उसमें कमियां हैं, अधूरापन है, एकदम साफ प्रत्यक्ष नहीं है कल्पनारूप भी है, पर जो भगवान का केवलज्ञान है वह है निर्दोषज्ञान । उसमें दोष नहीं है, जैसा ज्ञानसामर्थ्य है जीव में वही-का-वही पूर्ण प्रकट हुआ है, और तीसरा कहा है ज्ञानस्वभाव । वह तो न मलिन था, न मलिन है और न मलिन होगा, वह तो शक्तिरूप है, तो जो जीव कर्मजन्य मतिज्ञान में तो घमंड करता है, मैं ज्ञानी हूँ, समझदार हूँ, मैंने बहुत ज्ञान कमाया है, मेरे समान कोई ज्ञानी नहीं । सो इस कर्मजन्य ज्ञान में तो गौरव करता है और केवलज्ञान का खंडन करता या भगवान को दोष लगाता या प्रभु के स्वरूप का मजाक करता, या आत्मा की मान्यता के बारे में भी मजाक करता वह पुरुष अज्ञानी है और जैनधर्म में भी अगर वह उत्पन्न हुआ है तो वह उसका दूषक ही है, वह जैनधर्म का उपासक नहीं है, जैसे यहाँ भी कितने ही लोग जैन कुल में उत्पन्न हुए, जो चाहे चीजें खाये-पियें, भक्ष्य-अभक्ष्य का कोई विचार नहीं करते, रात्रिभोजन भी करते और साथ ही शुद्ध आचरण से रहने वालों का मजाक भी करते हैं, जैसे वह देखो बड़े ऊ̐चे भगतजी आ रहे हैं, तो ऐसा कहने वाले लोग जैनधर्म के दूषक हैं ।
धर्माचरणविहीन उद्दंड मनुष्य के मिथ्यात्व की तीव्रता―जहां इतनी स्वच्छंदता आ गई कि धर्माचरण तो रंच भी न करे और धर्माचरण करने वालों का मजाक करें तो समझिये कि उसमें जैनधर्म का कोई अंश नहीं । कोई बालक पिता की भी मानो उपेक्षा करता हो या उसकी कोई आज्ञा न मानता हो फिर भी यदि थोड़ी बहुत आन है,पिता के प्रति उसमें श्रद्धा है तब तक तो वह सम्हल सकता है और जब आन ही खतम हो गयी तो उसका सम्हलना कठिन है, ऐसे ही आजकल के नवयुवक जो कि रात्रिभोजन करना पसंद करते हैं, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करना पसंद करते हैं वे पुरुष दूसरों का मजाक भी खूब करते हैं साधुजनों का, अच्छे श्रावकजनों का या सदाचार से रहने वालों का, तो आप यह अंदाज करें कि उन युवकों का मन कितना स्वच्छंद हो गया कि वे जैनधर्म के तत्त्व की भी मजाक करते हैं । तो जो जैनधर्म के तत्त्वों का, प्रभु के स्वरूप का मजाक करते हैं वे जैनधर्म के दूषक हैं, उनका उद्धार होना कठिन है ꠰ हाँं तो ज्ञान दो तरह से कहा―(1) इंद्रियजंय ज्ञान और (2) आत्मा के स्वभाव से, आत्मा के सहारे से उत्पन्न होने वाला ज्ञान । केवलज्ञान तो आत्मा के सहारे से ही होने वाला ज्ञान है और ये दुनियांभर के ज्ञान, ये इंद्रिय से उत्पन्न होने वाले ज्ञान हैं । तो इनमें दूषित ज्ञान तो इंद्रियजंय ज्ञान है मगर जो केवलज्ञान का निषेध करे, अजी ! किसके हो सकता है ऐसा ज्ञान कि जो सारी दुनियां को जाने या प्रत्यक्ष रहे, सब गप्प की बात है । कहां हैं प्रभु? कौन है भगवान? अपने आप में उसको ऐसी चतुराई का भ्रम हो गया है कि अपने को बड़ा चतुर मानता है । केवलज्ञान का निषेध करता है, तो ऐसा पुरुष अज्ञानी है और वह जैनशासन में दूषण लगाने वाला है । पहले लोग होते थे कोई जैनशासन का व्रत ज्ञान न निभा सके तो अपनी कमजोरी मानते थे कि मैं धर्म में कहे अनुसार नहीं चल पा रहा हूँ, मगर आज जो स्वच्छंदता बनी है, वे धर्म के अनुसार चलते भी नहीं और धर्म के अनुसार जो चलते हैं उनकी मजाक भी करते, तो उनमें ऐसी स्वच्छंदता जो आयी है वह प्रबल मिथ्यात्व को जाहिर करती है कि उनके तीव्र मिथ्यात्व का उदय है ।