वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 81
From जैनकोष
उद्धद्धमज्झलोए केईमज्झं ण अहयमेगागी ।
इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं ꠰꠰81꠰।
स्वभावभावना से मुक्तिलाभ―इस गाथा में उस भावना का वर्णन किया है जिस भावना के प्रसाद से जीव निर्वाण को प्राप्त होते हैं । मोक्ष होना शरीर के आधीन बात नहीं है । मोक्ष का अर्थ है कि जीव का इन देह, कर्म, विकार आदिक के फंदों से जुदा हो जाना । तो इन फंदों से जीव को जुदा करने में समर्थ शरीर की क्रिया नहीं है । इस मोक्ष को देने में समर्थ बाहरी साधनों का संचय भी नहीं है, पर साक्षात् मोक्ष का साधन तो जैसा अपना स्वभाव है उस रूप अपने को मानना और ऐसा ही निरखकर संतुष्ट रहना, यह भावना मोक्ष का कारण है ꠰ बाहर में गृहस्थी में अनेक काम बताये गए धर्म के लिए―देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान । मुनियों के लिए भी समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण आदिक अनेक कार्य बताये गए । चरणानुयोग की विधि से उन क्रियावों को करना चाहिए, पर ये-ये कार्य मोक्ष को दे देंगे, ऐसी जिनकी श्रद्धा है उनको मोक्ष नहीं मिलता । पर करना क्यों पड़ता है क्योंकि इनको ऐसी योग्यता मिली कि हम अपने स्वभावरूप अनुभव सकते, यह बात पाप की क्रिया में नहीं बनती, व्यसन आदिक खोटे भावों में नहीं बनती, पर शुभोपयोग के भाव हों ऐसी स्थिति में स्वभाव-भावना की बात बन पाती है ꠰ इसलिए ये क्रियायें करने मात्र से ही मुक्ति होती है यह श्रद्धा न रखना । मुक्ति होती है सहज स्वभावमय आत्मतत्त्व में अपने आपको अनुभवने से । जितना जिनको मोक्षमार्ग मिला है गृहस्थ को या मुनि को, वह स्वभावभावना में ही मिला है ।
अपने परमार्थ एकत्व का परिचय―अपने आपको कैसा अनुभव करना जिससे तत्काल शांति लाभ हो, वस्तु का यथार्थ परिचय हो और संसार संकटों से छुटकारा हो? अपने आपको देखिये मैं अकेला हूँ, सत् ही मैं अकेला हूँ, कुटुंबादिक से निराला हूँ, यह तो ठीक ही है, पर देह से भी निराला हूँ, कर्म से भी निराला हूँ, विकार से भी निराला हूँ, केवल मैं अपने स्वरूपमात्र हूँ, यहाँ तक जिसकी पहुंच है वह बड़ा पवित्र पुरुष है ꠰ और यहाँ तक जब तक पहुंच नहीं बनती तब तक धर्म के प्रसंग में या बाह्य प्रसंग में श्रम और विकल्प अधिक चलते हैं । पर यह उपयोग फिट नहीं बैठता । कितने ही लोग जब ऐसा पूछते हैं कि हम पूजा करते, सामायिक करते मगर उपयोग यहाँ-वहाँ भ्रमण करता है, उपयोग स्थिर नहीं होता, फिट नहीं बैठता तो उसका कारण क्या है? उपयोग क्या है? उपयोग कहां से निकलता है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका जब तक परिचय नहीं है तब तक उपयोग तो घूमेगा । जिसको अपने घर का परिचय नहीं है वह तो अनेक घरों में डोलेगा और वहाँ से दुतकारा जायेगा, कहीं स्थिर न रह पायेगा, ऐसे ही जिसको अपने घर का, अपने स्वरूप का, अपने भगवान-आत्मा का परिचय नहीं है वह उपयोग बाहर में यत्र-तत्र डोलेगा और सभी जगह से दुतकारा जायेगा, यह स्थिर न रह पायेगा । तो क्या काम करना चाहिए? जो अनंत काल में किया न हो, जिसके बिना अब तक संसार में भटक रहे हैं, वह काम क्या है? अपने वास्तविक स्वरूप का परिचय पाना । अगर दो-चार चीजें कहीं मिली हुई हैं जैसे पानी, तेल और रंग, तो उस मिले हुए होने पर भी यह विवेक तो किया जा सकता कि पानी का वास्तविक स्वरूप क्या है । क्या रंग स्वरूप है पानी का अथवा क्या चिकना स्वरूप है पानी का? नहीं । तब फिर क्या स्वरूप है? यह ज्ञान में है, पर मुख से नहीं बोल पाते । उस मिले हुए पानी, तेल, रंग की हालत में भी जानते हैं कि पानी का स्वरूप पानी में है, तो ऐसे ही कर्म, देह और जीव इनकी मिली हुई हालत में भी जीव का स्वरूप तो जीव ही होगा, अन्य रूप तो न होगा, बस उसी को तो पहिचान है कि वह जीव का स्वरूप क्या है? जो इस जीव में अपनी सत्ता के कारण है इसको जिसने पहिचाना उसे धर्म मिलेगा और उसे यदि न पहिचान पाया तो वास्तविक धर्म न मिलेगा । जिससे मोक्ष मिलता है, जिससे उपयोग स्थिर होता है वह बात न मिल पायेगी ।
दुर्लभ श्रेष्ठ मानवजीवन में आत्महित के उपाय से दूर रहने की महती त्रुटि का दुष्परिणाम―एक बात मोटे रूप से सोचिये ꠰ आज मनुष्य हुए, यदि और कुछ होते तो हो न सकते थे क्या? आज जिन गधा, कुत्ता, बिल्ली वगैरह को देखते हैं, कीड़ा-मकोड़ों को देखते हैं ये भी तो जीव ही हैं, मेरी ये भी तो कभी पर्यायें हुई । आज दुर्लभ मनुष्य पर्याय पायी है तो अब तुलना करके देख लो, हम आपने इन पशुपक्षी, कीट-पतिंगा आदि की अपेक्षा कितनी उत्कृष्ट स्थिति पायी है । मनुष्य हुए, ऊ̐चा कुल पाया, जैनशासन पाया, पर ये सब पाकर भी अगर अन्य जीवों की भांति ही विषय-कषायों में यह जीवन गमा दिया; नामवरी, कीर्ति, यश, प्रतिष्ठा आदि ऐसे ही वाहियात विकल्पों में अपना जीवन गमा दिया तो इस मनुष्यभव का पाना-न-पाना बराबर रहा । यह भव कुटुंबियों से मोह करने के लिए नहीं है, बिल्कुल निश्चित समझिये । अगर न समझ में आयेगा तो जैसे दुःख अभी तक भोगते आये वही दुःख बना रहेगा । यह कुटुंब सदा न रहेगा, घर सदा न रहेगा, देह भी सदा न रहेगा, इन थोड़े दिनों को मिली हुई माया में अगर मोहित रहे तो चिरकाल के लिए अपना विघात बना लिया । यह भव परिग्रह संचय के लिए नहीं है ꠰ मान लो, जोड़ते चले गए लाखों-करोड़ों का धन और उसे देख-देखकर खुश हो रहे, तो इसके लिए यह मनुष्यभव नहीं है । यद्यपि गृहस्थावस्था में जब तक हैं तब तक कुटुंब से भी राग करना पड़ता है, कुछ थोड़ा परिग्रह के अर्जन का भी काम करना पड़ता है, पर यह समझो कि परिस्थितिवश करना पड़ता है, और उससे केवल इतना ही लाभ है कि हमें क्षुधा आदिक से निवृत्ति होकर एक जीवन सा बना रहे और इस जीवन में हम ज्ञान संयम की आराधना में बढ़ सकें꠰ केवल एक जीवन बनाये रहने के लिए यह आवश्यक हो गया है कि कुटुंब में भी सद्व्यवहार करें और परिग्रह का भी साधारणतया अर्जन करें, पर ऐसा लक्ष्य रखें कि एक यह मनुष्य जीवन बना रहे इसके लिए ही ये काम किए जा रहे हैं, और मनुष्य जीवन किसलिए बना रहे? यह हम को श्रेष्ठ मन मिला है, उस मन के द्वारा हम आत्मा का सही बोध कर सकें और उसमें अपना ज्ञान जमा सकें तो यह जितना संकट लगा है यह सब छूट जायेगा ꠰ जन्म लेना यह संकट नहीं क्या? शरीर में यह भगवान-आत्मा फंसा है, यह इस भगवान-आत्मा पर संकट नहीं है क्या? अपने-अपने लिए सोचिये सब बात, यदि यह मैं अकेला ही रहता, कोई प्रसंग न होता तो बस यह ही तो सिद्ध भगवान कहलाता । सिद्ध भगवान होने से पहले, अरहंत प्रभु होने से पहले ये सारे झंझट हैं, इन झंझटों को ही लोग सुख का साधन मानते हैं । तो जहाँ यह भ्रम लगा है वहाँ इसको कोई सिद्धि नहीं होती ।
स्वभाव-भावना से ही आत्मकल्याण होने के निर्णय की प्रथमावश्यकता―भैया ! पहले एक निर्णय तो बनायें कि मेरा यह मनुष्य-जीवन आत्मा के स्वभाव का परिचय करने और उस ही की दृष्टि देकर तृप्त रहने के लिए है, अन्य बातों के लिए यह मनुष्य जीवन नहीं है । यह अपना पक्का निर्णय बनाइये । यह निर्णय हुए बिना धर्म का प्रारंभ नहीं, एक कायदे से काम होना और एक अललटप काम होना, जैसे इन दो बातो में अंतर है ऐसे ही धर्मपालन की भी दो बातें चल रही हैं―एक अललटप धर्मपालन और एक कायदेपूर्वक धर्मपालन । तो कायदेपूर्वक जो कार्य होता है वह भली-भांति सफल होता है, अललटप के कार्य में केवल श्रम-ही-श्रम रहता है । तो कायदे का धर्मपालन यह है कि जो सदाचार है वह तो करना ही पर उस सदाचार से सुरक्षित रहते हुए अपने में अपने स्वरूप को निरखना । लोग कहते हैं कि हमें आत्मा आंखों से नहीं दिखता, हम आत्मा को कैसे मानें? सो ठीक है उनका कहना । आत्मा आंखों से दिख ही नहीं सकता । आत्मा तो जाननहार है, केवल समझे, समझता कौन है? मैं समझता हूँ, ऐसा तो बोलते हैं लोग । तो मैं तो यह एक समझने वाला पदार्थ हूँ, तो समझाने के द्वारा समझने वाले पदार्थ को जाना जा सकता है, आंखों से नहीं जाना जा सकता । और बहुत सीधी-सी तरकीब है, वह यदि कर सके तो उससे भी पता पड़ जायेगा अपने आत्मा का । बह सीधी तरकीब क्या है कि इतना तो निर्णय है ही थोड़ा-थोड़ा कि ये जितने बाहरी समागम हैं ये सब झंझट हैं, फिर इसी को जरा और दृढ़ता से समझ लीजिए । कोई-कोई लोग तो ऐंठ में आकर कहते कि ये बाहरी समागम सारे झंझट हैं, किंतु इसको मन से सोच लीजिए । जो-जो भी समागम मिले हैं इनका क्या होगा? ऐसा प्रश्न करके उसके बारे में समझ लीजिए कि मेरे लिए ये बेकार हैं । लाखों का धन कमाया, इससे मेरे को क्या मिलेगा अंत में? कुछ नहीं मिलता, और जब तक जिंदार्थ तब तक कष्ट हो मिला । कुटुंब का समागम है तो यह कल्पना की बात है कि ये मेरे कुछ लगते हैं । जैसे जगत् के जीव निराले हैं वैसे ही घर के जीव निराले हैं, वे मेरे कुछ भी नहीं हैं । केवल कल्पना ही करते हैं, उनके संबंध से मेरे को क्या मिलेगा? मोह रागद्वेष झंझट कर्मबंध मिलेगा व अंत में यह सब समागम छोड़ जाना होगा । तो सारे पदार्थों के बारे में यह निर्णय बना रखें कि मेरे लिए सब बेकार हैं और इसी कारण मेरे को सबका त्याग करके निर्ग्रंथ दिगंबर एकाकी केवल अपने आत्मा से ही अपना नाता रखना, इतनी ही बात रहनी चाहिए । पर नहीं बन पा रही है, नहीं इतना उत्साह है, घर में रहना पड़ रहा है तो घर में रहना द्वेष करके न बनेगा, प्रेम करके ही बनेगा, आपसी व्यवहार सही करके ही बनेगा । तो यह आपसी व्यवहार सही रखना पड़ रहा है, पर मेरा कुछ नहीं है, मेरे लिए ये सब समागम बेकार हैं, इस बात का खूब निर्णय बनायें पहले । अगर इसमें कसर है तो पहले इसी को पूरा कीजिए कि मेरे लिए सब बेकार है । शरीर का समागम भी मेरे लिए बेकार है, क्योंकि इससे मिलता क्या है? रोग, क्षुधा, सम्मान, अपमान आदिक कितनी ही बातें कल्पना में चलती हैं तो कष्ट-ही-कष्ट मिलता है । उससे कोई आनंद और शांति भी मिलती है क्या? आनंद और शांति का धाम तो आत्मस्वरूप है । इसके ही ध्यान से आनंद और शांति मिलेगी, तो मेरे लिए जगत् का सारा समागम बेकार है, यह निर्णय पहले अच्छी तरह बना लीजिए ।
आत्मा को हम सुगमतया कैसे परख लें, इसके उपाय में बात कह रहे हैं ꠰ जब दृढता से पूरा निर्णय बन जाये कि मेरे आत्मा के लिए आत्मातिरिक्त समस्त समागम मेरे लिए बेकार हैं, वे मेरे में कुछ आनंद नहीं दे सकते हैं, यह निर्णय बन चुके, फिर आप एक ऐसा आग्रह करके बैठें कि जब समग्र बाह्य पदार्थ मेरे लिए बेकार हैं तो मैं अब किसी भी पदार्थ में ध्यान न दूंगा, उपयोग न दूंगा, ख्याल न करूंगा, मैं किसी भी पदार्थ का फोटो यहाँ नहीं रखना चाहता । बारबार ऐसा अभ्यास बनावें, यदि किसी क्षण यह अभ्यास बन सकेगा कि कोई भी बाह्य पदार्थ मेरे ज्ञान में न आये । तो मेरा यह ज्ञानस्वरूप आत्मा कहीं न फिंक सकेगा, यहीं ज्ञान में रहेगा । तो कभी इस तरह का चिंतन बने, और इस साधना के द्वारा आत्मा का परिचय पा सकते हैं । सब बातों को भूल जाइये, किसी का ख्याल न रहे, देखिये―रात-दिन के चौबीसों घंटे के लिए भूलने की बात नहीं कह रहे किंतु जब ध्यान करने के लिए बैठे हैं और जब आपको आत्मा के परखने की उमंग लग रही है उस समय इतना कार्य करें कि कोई भी बाह्य पदार्थ मेरे उपयोग में न आये । किसी भी बाहरी पदार्थ से मेरे को क्या लाभ है? उसे हटायें और जिस क्षण कोई बाहरी पदार्थ यहाँ उपयोग में न रहेंगे तो ज्ञानस्वरूप भगवानआत्मा आपके ज्ञान में आयेगा और एक सहज आनंद का अनुभव करायेगा जिससे आपको दृढ़ निश्चय हो जायेगा कि सारभूत बात है तो मेरे आत्मा के स्वरूप का परिचय परिज्ञान, यह ही सारभूत बात है दुनियां में, और कोई सारभूत बात नहीं है । मेरे लिए बड़ा मैं ही हूँ, मेरे लिए सुखदायी मैं ही हूँ, मेरे लिए सर्वस्व मैं ही हूँ, पर कौन-सा मैं? यह हाथ-पैर वाला मैं नहीं, किंतु मेरा जो अपना सहज स्वरूप है, चैतन्यमात्र । आखिर जब मैं हूँ तो मेरा स्वयं कुछ स्वरूप तो है, बस उसी को पहिचानना है । वह परिचय में आये तो समझिये कि मंगल, लोकोत्तम और शरण तीनों बातें अपने में प्राप्त कर ली जाती हैं, सो उस स्वभाव में अपने आपका उपयोग लगाने से धर्मपालन होता है ।
शाश्वत सुखप्राप्ति का उपाय व्यवहारधर्मपालन से सुरक्षित होकर निश्चयधर्म का पालन―धर्मपालन तो स्वभावाश्रय में है, फिर जो कुछ धर्म के नाम पर काम करने पड़ रहे हैं वे सहयोगी बनते हैं । क्योंकि हम सदाचार से रहेंगे, प्रभुभक्ति में रहेंगे तो हमारे में वह पात्रता बनी रहेगी कि हम आत्मा के स्वभाव की आराधना कर सकें, सो वे सब बातें एक ध्येय बनाने से हो सकेंगी । मनोविनोद से धर्म न मिलेगा और आराम और मौज में जिंदगी गुजरे यदि यह ही लक्ष्य रहे तो धर्म न मिलेगा । मानना ही होगा कि मेरा जीवन आत्मधर्म के पालन के लिए है, फिर आप कोशिश करेंगे, ज्ञान सीखेंगे, किसी से पढ़ेंगे, स्वाध्याय करेंगे, मनन करेंगे ꠰ स्वाध्याय भी आप फिर इस विधि से करने लगेंगे कि एक-एक लाइन का स्वाध्याय करेंगे, भीतर भाव समझते हुए ओर उसको अपने हृदय में उतारते हुए स्वाध्याय करेंगे । चाहे एक लाइन के स्वाध्याय में एक घंटा समय लगे, आपने वहाँ सब कुछ पाया, जब स्व का अध्ययन हुआ तब स्वाध्याय हुआ । सो जैसे कहा है―“धन कन कंचन राजसुख, सबहिं सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में एक यथारथ ज्ञान ।” याने सब कुछ मिलना सुलभ है, पर आत्मा के सही स्वरूप का ज्ञान होना दुर्लभ है । तो इस मोक्षपाहुड़ ग्रंथ में आचार्यदेव योगियों को कह रहे कि हे योगी ! तू ऐसा निरख कि मेरा मेरे ज्ञानस्वरूप के अतिरिक्त तीनों लोक में कहीं कुछ नहीं है । तू अपने में ऐसी स्वरूप की भावना बना जिसके प्रताप से शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है ।