वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 93
From जैनकोष
सपरावेक्खं लिंग राई देवं असंजयं वंदे ।
मण्णइ मिच्छादिट᳭वी ण हु मण्णइ सुद्धसम्मत्तो ।।93।꠰
मिथ्यादृष्टि जीव का स्वपरापेक्षलिंग एवं रागी असंयत देव को वंदन―स्व और पर की अपेक्षा सहित लिंग को, रागी और असंयमी देव को मिथ्यादृष्टि आदर देता है, वंदन करता है, किंतु जिसके शुद्ध सम्यक्त्व प्रकट हुआ है ऐसा पुरुष अर्थात् ज्ञानी भव्यपुरुष किसी भी कुगुरु और कुदेव को नहीं मानता है । जिनकी गुरुरूप में प्रसिद्धि कर रखी है, किंतु है स्त्री पुत्र आदि से सहित सो कुटुंब के अधीन है और नानाविध वस्त्र मृगचर्म आदि रखने से अचेतन वस्तुवों के आधीन हैं ऐसे कुगुरुवों की सेवा में न तो पुण्य ही मिलता है और न मोक्षमार्ग की दिशा ही मिलती है उनकी भक्ति वंदना अज्ञानीजन ही करते हैं । ऐसे ही जिनकी देवरूप में प्रसिद्धि कर रखी है, किंतु हैं असंयमी और कुटुंब आदि बनाकर उनमें रागी है, अविकार स्वभाव का परिचय ही नहीं है ऐसे कुदेवों की मान्यता आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ अज्ञानी पुरुष ही करते हैं । तथा यक्ष, भूत, प्रेत, चंडी, भवानी आदि अनेक देवताओं को बलि चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं व मांसभक्षण करते हैं आदि अनेक कुधारणा बनाकर उनकी मान्यता करते हैं वे सब अज्ञानविमूढ़ हैं । ज्ञानीजन तो कुगुरु कुदेव की मान्यता नहीं करते हैं । ज्ञानियों की दृष्टि में वीतराग सर्वज्ञ ही देव है और परिग्रहरहित दिगंबर आत्मध्यान करने वाले महाव्रती ही गुरु हैं ।