वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 97
From जैनकोष
बाहिरसंगविमुक्को ण वि मुक्को मिच्छभावणिगंथो ।
कि तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसमभाव ꠰꠰97।।
बाह्यपरिग्रहमुक्त मिथ्यादृष्टि के मौनादि बाह्य चेष्टावों की व्यर्थता―जो साधु बाह्य परिग्रह से तो मुक्त है, किंतु मिथ्याभाव से मुक्त नहीं है, उस साधु का खड़े रहना याने कायोत्सर्ग व मौन आदि का क्या उठता है । आत्मा का आत्मस्वभाव में उपयुक्त रहना कल्याणकारी है, कल्याणमय है । इस कल्याणमय अवस्था का मूल बाधक मिथ्याभाव है । परपदार्थ में, परभाव में आत्मत्व स्वीकार करना, मानना मिथ्याभाव है । कोई साधु बाह्यपरिग्रह का तो त्याग कर दे किंतु अंतरंग में परपदार्थ में व परभाव में अहंकार’ममकार की वासना रखे, देह में व कषाय-विकल्पों में प्रीति रखे और बाह्य तपश्चरण व मौन आदि भाव कितने ही करे तब भी आत्मकल्याण न होने से उन बाह्य चेष्टावों से कोई लाभ न हुआ । मिथ्यादृष्टि आत्मा के प्रशमभाव को, अपने आत्मा के स्वरूप के समान अन्य आत्मावों के स्वरूप को नहीं जानता है, जैसा मैं परमार्थत: सहजसिद्ध अविकारस्वभाव ज्ञानमात्र है ऐसा बोध मिथ्यादृष्टि के नहीं है । मिथ्यात्व का विनाश हुए बिना, सम्यक्त्व का लाभ हुए बिना जीव कल्याणमार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता है ।