वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 9
From जैनकोष
णियदेहसरिस्स पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण ।
अच्चेयणं पि गहिय झाइज्जइ षरमाभाएण ।।9꠰꠰
स्वदेह में स्वत्व की मान्यता की तरह अज्ञानी का परदेह में जीवत्व का अध्यास―दूसरे के देहों को देखकर ज्ञानी क्या चिंतन करता और अज्ञानी क्या चिंतन करता । ये दोनों ही अर्थ इस गाथा से ध्वनित होते हैं । अज्ञानी मूढ़दृष्टि तो अपने देह के समान इन दूसरे देहों को देखकर जैसे कि वह अपने देह को आत्मा मानता है ऐसे ही पर देहों को देखकर पर आत्मा मानता है । मान तो लिया कि ये दूसरे जीव हैं मगर जीव को निरखकर नहीं सोच रहा ज्ञानी कि ये दूसरे जीव है, किंतु इस शरीर को देखकर कह रहा कि ये दूसरे जीव है । वहाँ दूसरे जीव कह कर भी सम्यग्ज्ञान नहीं, क्योंकि दूसरे देहों को यह दूसरा जीव समझ रहा । जैसे अपने देह में अपने आत्मत्व की बुद्धि है अतएव मूढ़दृष्टि है और ज्ञानी कैसा चिंतन करता है कि जैसे कि यह शरीर जिसमें मैं मौजूद हूँ, यह मल, मूत्र, रुधिर, मांस, हड्डी, चमड़ी आदिक दुर्गंध वाली अपवित्र चीजों से भरा है । इस शरीर को देखो तो सही ऊपर से भीतर तक । यह अपवित्र चीजों से भरा है । यह देह महा अपवित्र है तब ही तो इसकी शोभा के लिए, इसके शृंगार के लिए नाना प्रकार के वस्त्राभूषण धारण किए जाते हैं । वे सब साज शृंगार शायद इसीलिए तो किए जाते होंगे कि इनसे इस शरीर की अपवित्रता, मलिनता, गंदगी ढकी रहे । यह देह महाघिनावना और भयंकर है । तब ही तो इस देह के घिनावनेपन को ढाकने के लिए सोना, चांदी जवाहरात आदिक के नाना प्रकार के आभूषणों का निर्माण हुआ और उनका पहनावा चला । चमकता हुआ हीरा या कांच का नग पहन लिया जिससे लोगों की दृष्टि उस चमकते हुए नग पर जायेगी न कि उस अंग की गंदगी पर । तो ये साज-शृंगार किसलिए चले ? इस देह की पोल ढकने के लिए । ऐसा यह देह अपवित्र है । भीतर से बाहर तक सारी दुर्गंधित चीजों से भरा हुआ है । जैसे यह देह अपवित्र है, अचेतन है इसी प्रकार ये परशरीर भी अपवित्र वस्तुओं से भरे हुए हैं । और, यह जीव निराला है, यह देह निराला है पर मोही जीव ऐसे अपवित्र देहों को धारण करता है और उनरूप अपने आपको मानता है । ज्ञानी अन्य हेतुवों को पर रूप से चिंतन करता है । अज्ञानी जैसे स्व देह को स्व मानता ऐसे ही परदेह को पर जीव मानता । अज्ञानी को अपने बारे में भी अंधेरा और पर के बारे में भी अंधकार याने अज्ञानदशा रहती है ।