वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-21
From जैनकोष
नवचतुर्दशपंचद्विभेदं यथाक्रमं प्रावध्यानात् ।। 9-21 ।।
प्रायश्चित से व्युत्सर्ग तप तक के पांच अंतरंग तपों की भेद संख्या का निर्देश―ध्यान से पहले अर्थात व्युत्सर्ग नाम के तप तक क्रम से 9, 4, 10, 5 और 2 भेद हैं । प्रायश्चित के 9 भेद, जिनका वर्णन आगे सूत्र में आयेगा । विनय के 4 भेद हैं, वैयावृत्य के 10 भेद हैं, स्वाध्याय के 5 भेद हैं और व्युत्सर्ग के दो भेद हैं, इन सभी भेदों का वर्णन आगे के सूत्रों में आयेगा । इस सूत्र में जो प्रथम पद है सो उसमें संख्या पद के साथ भेदों का समास किया गया है । और वह बहुब्रीहि समास है, जिसका अर्थ है 9, 4, 10, 5 और 2 भेद हैं जिसके ऐसा वह तप है । इन संख्याओं में किसी संख्या का अक्षर कम है, किसी का अधिक है तो यहाँ यह शंका न करना कि पहले यह कहना चाहिये । बाद में यह कहना चाहिए । यहाँ तो पूर्व सूत्र में कहे गए आभ्यंतर तपों के क्रम से भेद बताये जा रहे हैं इसलिये क्रम से ही इनकी संख्या दी गई है । यहाँ ध्यान को छोड़ दिया गया है, उसके भेद नहीं बताये गये हैं, क्योंकि ध्यान का प्रकरण बड़ा है और उसके भेद और भेद के प्रभेद हैं और बहुत ही उपयोगी प्रकरण हैं इस कारण वह अगले पूरे प्रसंग में ही आया ऐसा ख्याल करके यहाँ ध्यान को छोड़ दिया है । ध्यान के अतिरिक्त जो शेष 5 अंतरंग तप है उन अंतरंग तपों के भेद का इसमें वर्णन है । अब अंतरंग तप का जो प्रथम भेद है, जिसके कि 9 भेद कहे गये हैं उस प्रायश्चित नामक तप के भेद का निर्देश करते हैं ।