वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-29
From जैनकोष
परे मोक्षहेतू ।। 9-29 ।।
धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान की मोक्षहेतुता―अंत के दो ध्यान मोक्ष के कारण हैं, इस सूत्र में परे शब्द द्विवचनांत है जिससे अंत के दो ध्यान यह अर्थ लिया जाता है । अंत का ध्यान तो शुक्ल ध्यान है और जब अंत के दो ध्यान कहे तो शुक्ल के निकट ही जो नाम हो वह लिया गया है । तो ये दो ध्यान मोक्ष के कारणभूत हैं । यहाँ दो ध्यानों को मोक्षहेतु कहा इससे यह अर्थ लेना कि पहले के दो ध्यान संसार के कारण हैं । वास्तविक धर्मध्यान और शुक्लध्यान सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव के ही होता है शुक्लध्यान तो समाधि वाले मुनि के होता है, पर धर्मध्यान वस्तुत: ज्ञानी के होता है । अज्ञान में भी लोगों का धर्म की इच्छा होती है, प्रवृत्ति होती है, पर वे बाह्य क्रियाओं को धर्म मानकर उसकी क्रिया करते हैं । धर्म आत्मा का कषायरहित परिणाम है । जितने अंश में कषाय न रहे उसके कारण जो आत्मा में निर्मल परिणति होती है वह धर्मध्यान है उस परिणति में होने वाला मनन धर्मध्यान कहलाता है, इसकी खबर अज्ञानी को नहीं है । कितने ही लोग मुख से ऐसे वचन भी कहने लगे किंतु उसका अनुभव और परिचय नहीं बन पाता । धर्म आत्मा का स्वभाव है । धर्म किसी अन्य पदार्थ से नहीं आता, बाजार में खरीदने से नहीं मिलता, तीर्थों में मस्तक रगड़ने से नहीं मिलता, किंतु आत्मा को स्वभाव आत्मा में है और उसकी दृष्टि से धर्मपालन होता है । धर्मपालन के लिए तीर्थवंदना, पूजा आदिक हुआ कुरते हैं, तो यह धर्मध्यान साक्षात् तो मोक्ष का हेतु नहीं है, पर धर्म ध्यानपूर्वक ही शुक्लध्यान होता है इस कारण धर्मध्यान भी मोक्ष का परंपर्या हेतु है । अब आर्तध्यान का लक्षण कहते हैं।