वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-34
From जैनकोष
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ।। 9-34 ।।
आर्तध्यान के स्वामियों का वर्णन―वह आर्तध्यान अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत, प्रमत्तविरत इन जीवों के होता है । याने पहले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक होता है । विशेषता यह जानना कि छठे गुणस्थान में निदान नाम का आर्तध्यान नहीं होता और रौद्रध्यान भी नहीं होता, इस सूत्र में अविरत शब्द देने से पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक के जीवों का ग्रहण होता हे । तो व्रतरहित होने की दृष्टि से ये चारों गुणस्थान समान हैं । यहाँ केवल व्रत के अभाव से ही देखा गया है । तो पहले गुणस्थान में विशेष आर्तध्यान है और जैसे-जैसे ऊपर के गुणस्थान होते गये वैसे-वैसे आर्तध्यान कम होते जायेंगे । जो श्रावकजन हैं उनके भी ये चारों आर्तध्यान पाये जाते है क्योंकि उनके परिग्रह का संग है, और इस स्थिति में इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग आदिक होना सुगम ही रहता है । तो 5वें गुणस्थान में एक यह आर्तध्यान चलता रहता है किंतु निदान हो तो प्रशस्त धर्म संबंधित होता है । जो छठे गुणस्थानवर्ती मुनिजन हैं उनके निदान तो नहीं होता, पर शेष तीन आर्तध्यान होते हैं । सुयोग्य शिष्य चल बसा अथवा गुरुजन चले गए तो उस वियोग में मुनियों को भी कष्ट होता है । कोई शिष्य उद्दंड है, शिथिलाचारी है, अनेक बार समझाया जाने पर भी सुधरता नहीं है तो उसे देखकर भी थोड़ा दुःख आचार्यों को होता है । तो ऐसा आर्तध्यान मुनियों के भी हो जाता है । यद्यपि वे अनेक परीषहों के विजयी होते हैं किंतु कदाचित् तीन कर्म विपाक होने से कठिन रोग आ जाये सो अनेक मुनिराज तो समतापूर्वक सह लेते हैं, कभी किसी मुनि को उसमें खेद भी होता है । तो ऐसा प्रसंग होने के कारण छठे गुणस्थान में भी ये तीन आर्तध्यान होते हैं । आर्तध्यान प्रमाद स्थिति में ही संभव है । जहाँ अप्रमत्त होगा वहाँ आर्तध्यान नहीं? । प्रमाद का अर्थ है मोक्षमार्ग में प्रगतिशील न होना और ऐसी कषाय रहना कि जिससे मोक्षमार्ग में वृद्धि न हो सके । उन कषायों को प्रमाद कहते हैं । तो प्रमाद जिनके हैं उनके ही आर्तध्यान संभव है । इस प्रकार ध्यान नामक तप के प्रकरण में प्रथम आर्तध्यान का वर्णन किया । अब आगे रौद्र ध्यान का वर्णन किया जा रहा है ।