वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-35
From जैनकोष
हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयो: ।। 9-35 ।।
रौद्रध्यानों के लक्षण व स्वामी―हिंसा, झूठ, चोरी और विषयों का संरक्षण इनके कारण से रौद्रध्यान होता है और वह रौद्रध्यान अविरत अर्थात पहले गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक एवं देश विरत में होता है । यहाँ प्रथम पद में चार का समास करके फिर अंत में पंचमी विभक्ति दी है जो हेतु के अर्थ में प्रयुक्त है, जिसका अर्थ यह बना कि रौद्रध्यान इनके कारण से होता है । हिंसा, झूठ आदिक रौद्र ध्यान की उत्पत्ति में निमित्त होते हैं । और फिर इनके साथ स्मृति सम्वाहार: का संबंध लगाया गया कि इसके कारण से जो बराबर उस ही में ख्याल जाये तो वह रौद्र ध्यान है । यहाँ एक जिज्ञासा हो सकती कि इन चार रौद्रध्यानों के स्वामी बताया है अविरत और देशविरत, तो अविरत में रौद्रध्यान हो यह तो ठीक है किंतु देशविरत गुणस्थान में तो व्रत किया गया है तो व्रती श्रावक के रौद्रध्यान कैसे संभव है? इसके समाधान में कहते हैं कि देशविरत गुणस्थान में चूंकि परिग्रह का संबंध है । आरंभ करना पड़ता है तो उन सब परिस्थितियों में किसी समय आरंभी हिंसा आदि का कुछ आवेश संभव है और धन आदिक की रक्षा करना, कमाना आदिक तो उनका कर्तव्य बन गया है । लोकदृष्टि से तो उसके आधीन ही रौद्रध्यान चलता है तो अहिंसा आदिक का आवेश होने से धन आदिक के संरक्षण में एक विवशता होने से कभी देशविरत में भी रौद्रध्यान संभव है लेकिन देशविरत गुणस्थान में होने वाला रौद्रध्यान नरकादिक दुर्गतियों का कारण नहीं बन पाता, क्योंकि वहाँ सम्यग्दर्शन है । सम्यक्त्व में नरकायु का बंध नहीं हुआ करता, इस प्रकार ये चारों रौद्रध्यान अविरत और देशविरत के होते हैं ।
संयत आत्माओं के रौद्र ध्यान की असंभवता व रौद्रध्यान के स्वामियों की विशेषता―अब यहाँ जिज्ञासा होती है कि संयमी जीवों के रौद्रध्यान क्यों नहीं बताया गया? किसी समय उनके भी आवेश आ सके तो वहाँ भी रौद्रध्यान संभव हो सकता है । समाधान करते हैं कि संयमीजनों में अगर किसी समय हिंसा आदिक का आवेश आ जाये या किसी धन के संरक्षण अर्जन का अभिप्राय आ जाये तो उनके संयम ही न टिकेगा । सो संयम है तो रौद्रध्यान नहीं है, अगर रौद्रध्यान आता है तो उनके संयम नहीं रह सकता है । जिस ही समय में जीव के रौद्रध्यान हो जायेगा बस फिर संयम नहीं ठहर सकता । तो यह रौद्रध्यान चार प्रकार का है, और वह अधिक कृष्ण, नील, कापोत लेश्या वालों के संभव है । कदाचित् मामूली सा रौद्रध्यान पीतलेश्या वाले श्रावक के भी संभव है, पर अत्यंत कृष्ण, नील, कापोत लेश्या वाला रौद्रध्यान अतीव क्रूर परिणाम में होता है और उसका फल नरक गति का पाना है । सो जैसे लोहे का गरम पिंड पानी को खींच लेता है ऐसे खोटे ध्यान में परिणत आत्मा कर्मों को ग्रहण कर लेता है । अब जैसे कि पहले कहा था कि अंत के दो ध्यान मोक्ष के कारण हैं सो उन ही की संज्ञा भेद वगैरह बताने के लिए आगे सूत्र कहते हैं ।