वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-9
From जैनकोष
क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयांचालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ।। 9-9 ।।
संवरहेतुभूत परीषह विजय का वर्णन―क्षुधा परीषह आदिक 32 परीषहें होते हैं । ये बहिरंग और अंतरंग द्रव्य के परिणमन रूप हैं, और शारीरिक मानसिक प्रकृष्ट पीड़ा के कारणभूत हैं । परीषहों का सहन साधारण पुरुषों से संभव नहीं है, उन परीषहों के विजय में विद्वान, संयमी, मोक्षार्थी पुरुषों को भले प्रकार पौरूष करना चाहिये, क्योंकि परीषहों के आ पड़ने पर धीरता खो दी जाये, संक्लेश परिणाम किया जाये तो उससे पुण्यरस घटता है, पापरस बढ़ता है, और उसके दुःख संभाव हो जाया करते हैं । तो जो विवेकी पुरुष हैं उनका यह कर्त्तव्य है कि परीषहें कैसे भी आयें चाहे प्रकृत्या आ जायें, चाहे दूसरे जीवों के आक्रमण से आ जायें, सभी प्रकार परीषहों पर विजय करने का ज्ञान रूप पौरुष करना चाहिए । एक ढंग से सोचा जाये तो जितने भी परीषह हैं वे सब परतत्त्व हैं । कोई शरीर पर आक्रमण कर रहा, शरीर परतत्त्व है, कहीं सम्मान अपमान में कुछ सोच रहा है तो वह भी परतत्त्व है । आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है, इस कारण जिसको दृढ़ भेद विज्ञान हो गया है उनके परीषह विजय करने में कोई कठिनता नहीं होती । ये परीषह 22 हैं, जिनमें प्रथम परीषह का स्वरूप कहा जा रहा है ।
संवरहेतुभूत क्षुधा परीषह का वर्णन―प्रथम परीषह विजय का नाम है ‘क्षुधा परीषह विजय’ भूख का दुःख आया हो तो उस परीषह पर विजय करना क्षुधा परीषह विजय है । क्षुधा परीषह पर कौन विजय कर पाते? मुनिजन, जिन्होंने शरीर के समस्त संस्कार छोड़ दिया है और शरीर मात्र जिनका उपकरण है, किसी भी बाह्य परिग्रह का जिनके संबंध नहीं है, जो दोषों को दूर करने में निरंतर सावधान रहते हैं । साधु की साधना के प्रसंग में चूंकि पूर्वबद्ध कर्म का उदय तो चल ही रहा है, अनेक प्रकार के विघ्न और दोष आया करते हैं, तप और संयम का भी विनाश कर दे ऐसे भी दोष संभव है पर ये साधुजन उन समस्त दोषों को दूर करने में तीव्र उत्सुक रहा करते हैं । आहार संबंध में भी उत्कृष्ट आदिक दोष आते हैं अर्थात्―आहार को करना, कराना, अनुमोदन करना, मन से वचन से काय से उस ओर अभिमुख होना यह उद्दिष्ट कहलाता है, तो साधुजन नवकोटि से विशुद्ध आहार ग्रहण किया करते हैं, तो उसके दोष को भी टालते हैं, और भी अनेक दोष जैसे आहार से पहले दाता की प्रशंसा करना, आहार के बाद दाता की प्रशंसा करना जिससे कि उसको आकर्षण रहे और वह आहार व्यवस्था बनाते रहे । ये समस्त भाव दोष रूप हैं, इन समस्त दोषों को टालने में
दृढ़ संकल्पवान हैं, ऐसे ज्ञानी के क्षुधा परीषह आया करते हैं और वे उन पर विजय पाते हैं । क्षुधा परीषह पर विजय प्राप्त करने वाले मुनि, देश, काल, प्राण आदिक की व्यवस्था भलीभांति समझते हैं तब ही वे निर्दोष आहार की प्रक्रिया बना पाते हैं, और आहार संबंधी दोषों को टाल पाते हैं, तो ऐसी स्थितियों में मुनि कभी अधिक अनशन का नियम कर लें या बहुत अधिक मार्ग चलने का श्रम हो जाये या कोई ऐसा रोग हो जाये जिसमें क्षुधा विशेष लगा ही करे, या ऊनोदर व्रत ले लिया हो, मतलब किसी भी ऐसी कठिन स्थिति में असाता वेदनीय के तीव्र उदय और उदीर्णा से क्षुधा उत्पन्न हुआ करती है, तो उस क्षुधा का प्रतिकार न तो स्वयं करते हैं और न किसी से कराते हैं । वे मन में यह विचार करते हैं कि मेरे को यह क्षुधा वेदना का भयंकर रोग लगा हुआ है, कैसे इसे सहन किया जाये? ये इस कारण विषाद को प्राप्त नहीं होते कि चूंकि उनका चित्त ज्ञानानंद के निधान अंतस्तत्त्व में बना रहता है । चाहे क्षुधा परीषह विजय इन साधु संतों के शरीर में अत्यंत दुर्बलता आ जाये, हड्डी नशाजाल झलकने लगें अस्थिपंजर मात्र ही रह जाये, ऐसी स्थिति में ये मुनि आवश्यक क्रियाओं को बराबर नियम से किया करते हैं, और अपने धैर्यरूपी जल से इस क्षुधा रूपी अग्नि का प्रशमन करते हैं । चूंकि इनका ज्ञानबल इतना प्रकृष्ट है, ज्ञानमात्र स्वरूप का उन्होंने बराबर अनुभव किया है इसके कारण ये क्षुधा की भयंकर पीड़ा को कुछ भी नहीं समझते । इस प्रकार क्षुधा परीषह को समता द्वारा विजय प्राप्त करना क्षुधा परिषह विजय है ।
संवरहेतुभूत तृषा परीषहजय का वर्णन―दूसरा परीषह है तृषा परीषह जय । साधुओं को किन्हीं परिस्थितियों में तीव्र प्यास की बाधा आ जाये तो वहाँ भी वे अपने नियम को भंग नहीं करते हैं और तृषा परीषह को समता से सहन करते हैं । मुनिजन स्नान के त्यागी हैं, जल में डूबने के त्यागी हैं । इन पर कोई अभिषेक करे, पानी डालें, उसके भी त्यागी हैं, तो जिनके जल स्नान का त्याग है तो एक प्रसंग तो यही हुआ कुछ प्यास बनने का, फिर पक्षियों की तरह मुनिजनों का निवास है । उनका अनियत निवास है । कहाँ ठहरते हैं? भिन्न-भिन्न जगहों में ठहरते हैं तो फिर भी श्रम प्रतिकूलतायें होती है, तो प्यास होने का यह भी कारण बनता है, ये मुनिजन समता से आहार ग्रहण करते हैं चाहे वह खट्टा हो, चिकना हो, रूखा हो, मन के विरूद्ध आहार हो, गर्मी पित्त, ज्वर अनशन आदिक कारणों से जहाँ खूब प्यास बढ़ रही हो, जो प्यास शरीर और इंद्रिय को मथ देने वाली हो ऐसी भंयकर प्यास को भी वे कुछ नहीं गिनते हैं और न उसके प्रतिकार की अभिलाषा और कोशिश करते हैं । ऐसे मुनिजन तृषा परीषह पर विजय प्राप्त करते हैं । जेष्ठ की दोपहर हो, सूर्य का तीव्र आताप हो, ऐसी स्थिति में भी कदाचित वे जंगल में जलाशय के समीप भी पहुंच जायें, वहाँ ध्यान धर रहे या वहीं पास में जलाशय हो तो भी वे उस जल से प्यास बुझाने की इच्छा नहीं रखते, क्योंकि वहाँ जलकायिक जीवों की हिंसा होती है । तो ऐसी हिंसा के सूक्ष्म रूप से जो भी त्यागी हैं वे क्षुधा परीषह पर विजय प्राप्त करें इससे तृषा अंदाज बनाओ कि कितना विशिष्ट ज्ञानबल होता होगा, जिससे ऐसे प्रसंगों में भी वे तृषा परीषह पर विजय प्राप्त करते हैं । पानी न मिलने से मुर्झायी हुई लता की तरह जिनका शरीर मुरझा गया है वे भी शरीर की परवाह न करके तपश्चरण की मर्यादाओं का पालन करते हैं और ऐसे संयमी साधु धैर्यरूपी कुंभ के फैलते हुए शील सुगंधित ज्ञान जल से उस तृष्णा रूपी अग्नि की ज्वाला को शांत कर देते हैं और अपने संयम की साधना में तत्पर रहते हैं । यह है मुनियों का तृषा परीषह जय ।
क्षुधा परीषह व तुषा परीषह में अंतर का दिग्दर्शन―यहां एक बात और ज्ञातव्य है कि क्षुधा में भी कष्ट, प्यास में भी कष्ट और भूख और प्यास दोनों एक ही जगह होते हैं और करीब-करीब प्राय: एक साथ होते है, फिर इसको दो परीषहों में क्यों गिना? एक ही परीषह गिन लेना । तो समाधान यह है कि क्षुधा और तृषा में सामर्थ्य भेद है, भूख और प्यास की सामर्थ्य जुदी-जुदी है और दोनों के शांत करने के साधन भी जुदे-जुदे हैं, इस कारण इनका जुदा-जुदा निर्देश किया गया है । और समझिये क्षुधा परीषह में दो भेद हैं―मंद और तीव्र । किसी की क्षुधा मंद है किसी की तीव्र, पर प्यास के चार भेद हैं―मंदतर, मंद, तीव्र और तीव्रतर । प्यास का विदित होना अत्यंत मंद प्यास होने पर भी बन जाता है और प्यास की तीव्रतर वेदना, मंदतर वेदना से भी बुरी होती है । ऐसा क्षुधा और तृषा में स्पष्ट अंतर है । इस कारण परीषह विजय में दोनों का नाम दिया गया है । जिन मुनिजनों का चित्त शरीररहित अमूर्त ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व पर रहता है । और इस तत्त्वदृष्टि के कारण प्रसन्न रहा करते है उनको क्षुधा तृषा जैसे परीषह और उपसर्ग सह लेना सुगम बात है जैसे कोई धनी बड़े लाभ के लिए छोटे लाभ का त्याग सुगमता से कर देता है, ऐसे ही ध्यान के इच्छुक मुनिजन इन परीषहों का विजय सुगमता से कर लेते हैं ।
संवर की कारणभूत शीत परीषह विजय―साधुजन बड़ी तेज सर्दी में शीत परीषह विजय करते हैं । ये साधु वस्त्ररहित हैं तब शीतपरीषह का इन पर और विशेष प्रभाव होता है । ये पक्षियों की तरह अनियत निवास वाले हैं । कहीं एक ही जगह रहना हो तो वहाँ शीत से बचने की कोई सुविधा भी बना सकते हैं, पर ये तो अनियत निवास वाले हैं । शरीर मात्र ही आधार है ओट कोई ओर है ही नहीं ऐसे साधु शिशिर ऋतु, बसंत ऋतु और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे ठहरें, मार्ग पर ठहरें, गुफा आदिक स्थानों में ठहरें और वहाँ बरफ भी गिरती हो, तुषार भी पड़ रहा हो और बड़ी प्रचंड शीतल मर्मभेदनी वायु भी चल रही हो तो ऐसी स्थिति में शीत का बड़ा प्रकोप होता है, उस समय भी समतापूर्वक शीत परीषह पर विजय प्राप्त करते हैं । ये साधु शीत ऋतु में तीव्र कंपकपी भी आ जाये तो भी इस ठंड को मिटाने के लिए अग्नि आदिक की अभिलाषा नहीं करते, किंतु उस समय वे नरक दुस्सह तीव्र शीत वेदना का स्मरण करते हैं कि उसके सामने यह शीत परीषह कुछ भी कष्ट नहीं है और अनेक प्रकार के विवेकमयी चिंतन से चित्त को समाधान करते हैं । इसमें इतना सामर्थ्य है कि विद्या मंत्र के प्रताप से ये शीत को दूर कर दें पर ऐसा भी नहीं करते । औषधि, पत्ते, वल्कल, तृण, चर्म आदिक की आकांक्षा नहीं करते और देह को पर पदार्थ समझते हैं । ऐसे साधु पुरुष धैर्यरूपी वस्त्र के द्वारा ही विषादरहित होकर संयम का पालन करते हैं । ये साधुजन राजघराने धनी सेठ घराने के भी बहुत होते हैं । जो अपनी पूर्व अवस्था में श्रीमान और राजा थे, अब निर्ग्रंथ दिगंबर हुए हैं लेकिन वे पूर्व में अनुभव किए गए उत्तम घर का, या स्त्री पुत्रादिक का किसी का स्मरण भी नहीं करते । और समतापूर्वक शीत परीषह पर विजय करते हैं ।
संवर की कारणभूत उष्ण परीषह विजय―उष्ण परीषह विजय―कैसी भी ज्येष्ठ की दोपहर हो, जिसमें सूर्य का बड़ा कठिन ताप हो, अंगारे की तरह शरीर जल रहा हो और प्यास, अनशन पित्त, रोग, घाम, परिश्रम आदिक के कारण असह्य गर्मी भी पड़ रही हो, उस गर्मी की वेदना से पसीना टपक रहा हो, ओठ सूख रहे हों, जलन हो रही हो, ऐसी पीड़ा भी हो रही हो जिस पर ये भेद विज्ञानी साधु संतजन न तो जल मंगाने की इच्छा करते हैं न जल में प्रवेश की इच्छा करते हैं, न कोई ठंडी चीज का लेप कराने की इच्छा करते, न कमल पत्र, केले का पत्र या ठंडी वायु जो पदार्थ दाह को मेटते हैं और शीतलता उत्पन्न करते हैं उन पदार्थों के उपचार की ओर उनकी दृष्टि नहीं होती । चंद्रकिरणें कोमल मुक्ताहार ऐसे बड़े-बड़े उपचार पूर्व गृहस्थी के समय में किए गए हों तो भी उनका अनुभव वे नहीं करते, उनके प्रति तिरस्कार का ही भाव रखते, ऐसे साधुजन इतनी भयंकर गर्मी में यह ही विचार करते हैं कि हे आत्मन् ! तूने बहुत बार नरकों में जा जाकर अत्यंत दुस्सह उष्ण वेदनायें सही हैं, अब यहाँ जो उत्पन्न हो रहा है यह तो तेरे कर्मों के क्षय का साधन है, इसे तू अपने स्वतंत्र भावों से तप, ऐसा पवित्र विचार करके साधुजन उस उष्णता की पीड़ा का प्रतिकार नहीं चाहते । और अपने आत्मानुभव के साधक संयम की रक्षा करते रहते हैं ।
संवर की कारणभूत दंशमशक परीषह विजय―दंशमशक परीषह जय―ये साधुजन कैसे ही स्थान पर पहुँचे हों और वहाँ मच्छर आदिक का प्रकोप हो तो भी उस परीषह में धैर्य रखते हैं और उस पर विजय प्राप्त करते हैं । ये साधु दिगंबर हैं । उनके शरीर पर किसी भी प्रकार का आच्छादन नहीं है । वहाँ मच्छरों का काटना तो बहुत ही सुगम है । वे निजी बनायी हुई कुटी में नहीं रहते कि उस पर जाली आदिक लगाकर साधन ठीक बना लिए जायें वे तो दूसरों के द्वारा बनाये गए क्षीण आवास में रहते हैं, पर्वतों की गुफा आदिक में रहते हैं तो ऐसे साधुवों को रात्रि में और दिन में भी डांस मच्छर काटे, मक्खी, बिच्छू, कीड़ी, जुए, खटमल आदिक काटें, तो ऐसे काटे जाने पर भी वे साधु अधीर नहीं होते । और अपने भेद विज्ञान के बल से अंतस्तत्व की दृष्टि करके अंत: संतुष्ट रहते हैं । वे उसे कर्मफल मानकर मणिमंत्र, तंत्र, औषधि आदिक से उसके प्रतिकार की इच्छा नहीं करते । और वे कर्मशत्रु की सेना के विजय के लिए ही तैयार रहते हैं । ऐसे साधुजन समता के धनी डंस मसक परीषह पर विजय प्राप्त करते हैं । इस डंस मसक परीषह में जो डंस शब्द दिया है वह सभी डसने वाले जंतुवों के ग्रहण करने के लिए दिया है । जैसे दही के संरक्षण के लिए कोई दूसरे से यह कहे कि देखना भाई इस दही को कौवे न खा जायें, तो क्या कोई कुत्ता, बिल्ली वगैरह खाने को आ जाये तो वह खा लेने देगा? अरे वह तो उपलक्षण शब्द है, भले ही केवल कौवे की बात कहा, पर भाव उसका यह है कि दही को खाने वाला कोई भी प्राणी उस दही को न खा जाये, सो डंस मसक शब्द दिया है, पर अर्थ उसका यह है कि शरीर को डसने वाले डाँस मच्छर की तरह पक्षी, मक्खी ततैया आदिक कोई भी प्राणी हों तो उनसे उत्पन्न हुए परीषह पर विजय प्राप्त करते हें । ये साधुजन चारित्र को प्रकट किया करते हैं ।
संवर की कारणभूत नाग्न्य परीषह विजय―नग्नता परिषह जय जो चारित्र मोक्ष का साधनभूत है, मोक्ष हो परिपूर्ण ब्रह्मचर्य है । वह परिग्रह की निवृत्ति से बढ़ता है और गुप्ति समिति का यह समस्त अविरोधी चारित्र को पुष्ट करने वाला है । जैसे बालक उत्पन्न हुआ ऐसी नग्नता इस चारित्र का मूर्तिमान रूप है, अविकारी है, संसार से रहित है, स्वाभाविक है । यद्यपि मिथ्या दृष्टियों द्वारा इस निर्ग्रंथ भेष पर द्वेष प्रकट किया गया है, किंतु यह तो परम मंगलरूप है । इस नग्नता को धारण करने वाले साधुजन स्त्रीरूप को अशुचि निरखते हैं, वीभत्स भयानक देखते हैं, मुर्दा की तरह ‘कंकाल’ जैसा देखते हैं, ये पुरूष सदा वैराग्य भावना से मन के विकार को जीतते हैं, ऐसा जो यह नग्नता का परीषह है उस पर साधुजन बड़ी प्रसन्नता से विजय प्राप्त करते हैं । दूसरे लोगों की दृष्टि में नग्नता एक घृणा का रूप बनता है । वे अपमान करते हैं तो भी उसका ध्यान नहीं धरते और अपना ब्रह्मचर्य पुष्ट करने के लिए परिग्रह त्याग इनमें ठीक बनता है । वे प्रसन्नता से नग्नता का परिषह विजय करते हैं । यह यथारकात रूप मोक्ष प्राप्ति का कारण है । अन्य तापसीजन मन के विकार को नहीं रोक सकते तो अपने लिंग को ढकने के लिए चीवर आदिक आवरण को लेते हैं, वल्कल भी लेते हें, कोई टाट लपेटते हैं, क्योंकि उनके मन में विकार है, उस विकार को रोकने में समर्थ नहीं है, और जब विकार होते हैं तब अंगों में भी विकार होने लगता है, उससे लज्जित होकर अन्य तापसीजन साधु का नाम धराकर भी अपने गुप्त लिंग को वल्कल से, टाट, पत्थर आदिक से ढकते हैं, सो वे तापसीजन अंगों का ही तो संवर करते हैं कर्म का संवरण नहीं कर सकते ।
संवर की कारणभूत अरति परीषह विजय―अरति परीषह विजय―ऐसे ऐसे प्रसंग आये साधुजनों से कि जिनमें द्वेष-भाव अप्रीतिभाव, भीतर ग्लानि का भाव आये तो भी उन परिस्थितियों में वे अरति का भाव नहीं लाते । जैसे कभी बड़े तपश्चरणों के कारण क्षुधा आदिक की बाधा हो जाये तो उस समय धैर्य नष्ट हो सकता है । इंद्रियाँ बड़ी दुर्जय हैं, इन विषयों का रोकना बड़े ज्ञानबल से साध्य है फिर भी हर परिस्थिति में वे इंद्रियों पर विजय रखते हैं । व्रतों का सही पालन करते हैं, संयम की रक्षा करते हैं । अपने आप गौरव से अपनी सही दृष्टि बनाते हैं । किसी भी समय वे अपने आप में अरति भाव उत्पन्न करते । अनेक देशों में उनका विहार होता है । सभी देशों की भाषा समझने में नहीं आती है, ऐसे मौकों पर चित्त में ग्लानि आना, दुःख सा होना संभव है, पर जिन्होंने केवल अंतस्तत्व की ही दृष्टि बनाया है उनके लिए कुछ भी बाधायें नहीं आती । साधुजन बड़े चंचल जंतुओं से व्याप्त भयंकर कठोर गहन वन में रहते हैं, सकल बिहारी भी रहते हैं और इस कारण से उनको संयम में प्रीति न रहे । उनका धैर्य नष्ट हो जाये, ऐसे भी प्रसंग आते हैं, किंतु उनसे वे प्रभावित नहीं होते । और अरति परीषह पर वे विजय प्राप्त करते हैं । वे साधु पुरुष संयम विषयक प्रीति में रहा करते हैं और विषय सुख की प्रीति को विष के आहार की तरह समझते हैं । ऐसे इस परम संयमी धीर वीर पुरूषों के अरति परीषह जय होता है । फिर पृथक कहने की जरूरत क्या थी? फिर भी यहाँ यह विशेषता बताने के लिए अरति परीषह का नाम दिया है कि ये साधुजन तृषा आदिक परीषहों के न होने पर भी मोह के उदय से जो अरति की प्रवृत्ति हुआ करती है, मोह के उदय के कारण चित्त आकुलित होने से जो इसको संयम में अरति उत्पन्न हो सकती हे उस अरति पर विजय प्राप्त करते हैं ।
संवर की कारणभूत स्त्री परीषह विजय―स्त्री परीषह विजय―ये साधुपुरूष एकांत स्थान में रहते हैं । बगीचा छोड़े हुए आवास आदिक पर्वतों में रहते हैं और वहाँ पर किसी कारण से स्त्री बाधा का प्रसंग आये राग-द्वेषवश जवानी के मद के कारण रूप, मद, उन्माद आदिक कारणों से कोई स्त्रीबाधा उत्पन्न हो तो भी उनके नेत्र विकार आदिक कुछ भी विकार नहीं होते, नहीं तो कामवासना के प्रसंग में भौंहें चलाना, शृंगार बनाना, हाव-भाव विलास करना आदिक बातें स्त्रीजन किया करती हैं । हँसना, कटाक्ष करना, और शरीर के सुकुमाल, चिकने अंगों को देखना, क्षीण उदर होना, जंघा रूप, आभूषण, गंध, वस्त्र, माला आदिक भी जिनको देखने में आये तो भी उनको देखकर साधुजनों के चित्त में कामविकार नहीं होता और उनके प्रति विग्रह का ही भाव रहता है । साधुजन तो उन स्त्रीजनों के दर्शन स्पर्शन आदिक इच्छाओं से पूर्ण रहित हैं । ये स्निग्ध, मृदु, शब्द, तंत्र, तंत्री वीणा आदिक के मधुर गानों के सुनने से विरक्त हैं । वे विचार करते हैं कि स्त्री प्रसंग के अनर्थ बहुत बुरे होते हैं । यह संसाररूपी समुद्र के बड़े भयंकर भँवरों में गिरा देते हैं, ऐसे परम विवेकी साधुजनों के स्त्री परीषह विजय होती है । भले ही बड़े देव और ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध अनेक जिनशासन से बहिर्मुख लोगों ने अप्सराओं के रूप को देखकर विकार से मलिनता पायी थी, वे स्त्री परीषह रूप कीचड़ से ऊपर न उठ सकते थे, पर निर्ग्रंथ मुद्राधारी साधु स्त्री परीषह पर पूर्णतया विजय प्राप्त करते हैं।
संवर की कारणभूत चर्या परीषह विजय―चर्या परीषह विजय―चर्या अर्थात् गमन करते में दोष न आने देना और अपने आत्मसंयम की रक्षा बनाये रहना चर्या विजय कहलाती है । जिन साधुवों ने बहुत लंबे समय तक गुरुकुल में ब्रह्मचर्यवास किया था, जो बंध मोक्ष तत्त्व के बड़े मर्मज्ञ हैं, कषायों के नष्ट करने में तत्पर हैं, सही आत्मभावना से जिनका चित्त भरा हुआ है, ऐसे वे साधु शिष्य जब गुरु की आज्ञापूर्वक आहार के लिए जायें, विहार के लिए जायें तो उस चलने के प्रसंग में मार्ग में बड़े कठोर, कंकड़, कंटक आदिक से पैर कट जायें, छिल जायें, तिस पर भी ये साधुजन खोटा अनुभव नहीं करते, यह ही है उनका चर्या परीषह विजय । अनेक देशों के व्यवहार के ज्ञाता साधु जानते हैं कि छोटे गाँवों में एक रात ठहरने का नियम है, बड़े नगरों में 5 रात तक ठहरने का नियम है । वे इतना ही ठहरते हैं और आगे वायु की तरह निसंग होकर गमन कर जाते है तो जिनका राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए विहार करने का काम है वे भयंकर जंगल आदिक में सिंह की तरह निर्भय होकर दूसरे की सहायता की अपेक्षा न करके अपनी चर्या में सावधान रहते हैं ।
संवर की कारणभूत निषद्यापरीषह विजय―निषधा परीषह जय―निषधा कहते हैं बैठने को । साधुजन जो संयम की विधि जानने वाले हैं, जिनमें अद्भुत धैर्य है, जो मोक्षमार्ग के उत्साह से संपन्न हैं वे श्मशान, उद्यान, पर्वत, गुफा, आदिक नये-नये स्थानों में जिस आसन से बैठते हैं, बैठे रहे, उसी आसन से और कोई उपसर्ग या रोग विकार आया, उस आसन से विचलित न हुए और न मंत्र विद्या आदिक से उपसर्ग आदिक का प्रतिकार ही करना चाहते हैं, अनेक विषम देशों में इनका विहार होता है । जहाँ छोटे बड़े जंतु हों काठ या पत्थर के, पर आसन जमीन हो वहाँ कितना ही कष्ट होता हो, लेकिन बहुत बड़े कोमल शय्या पर बैठा करते थे, उनका स्मरण तक भी न करते थे, अब तो उनके प्राणिहिंसा नहीं होती है, पर विशेष ध्यान है । ज्ञान ध्यान भावना से उनका चित्त भरा हुआ रहता है, पर अधिक ध्यान है सो ये पद्मासन, वीरासन, सुखासन आदि किसी भी आसन से बैठते हैं उस आसन को निर्दोष रूप से बाँधते हैं और वहाँ आसन का कोई दोष नहीं लगता । ऐसे आसनों के दोष को जीतना निषद्या परीषह जय है ।
संवर की कारणभूत शय्या का परीषह जय―शय्या परीषहजय―जब साधुजन को स्वाध्याय के कार्य से शरीर में खिन्नता आ जाती है । ध्यान से मार्ग में चलने के श्रम से शरीर में खेद आता है तो वे साधु किसी भी धूल पर, रेत पर, कंकरीली पथरीली जमीन पर एक मुहूर्त तक एक करवट से काय को निश्चल रखते हुए सोते हैं । संयमरक्षा का इतना भाव है इसलिए उस समय वे किसी भी अंश को, नहीं हिलाते हैं और निश्चल रहते हैं । कभी व्यंतर आदिक की बाधा हो तो उससे डरकर भागने की या उसके प्रतिकार की इच्छा नहीं रखते, और जहाँ के तहाँ निश्चल काय से लेटे रहते हैं । इन साधुजनों को मरण का भय नहीं है अतएव वे निसंग मृतक की तरह निश्चल पड़े रहते हैं । इन साधुजनों के चित्त में ऐसी शंका नहीं होती कि यह प्रदेश सिंह व्याघ्र साँप आदिक दुष्ट जंतुओं से भरा है । यहाँ से हम को जल्दी भाग जाना चाहिए । न जाने कब रात पूरी होगी? ऐसा संकल्प विकल्प भी नहीं करते और कदाचित कभी आराम की जगह मिल जाये, वहाँ सोये तो वहाँ कहीं हर्ष से उन्मत्त नहीं हो जाते कि आज तो बहुत मौज आया है । ये साधुजन बहुत अनुभव किए गये कोमल शय्या का स्मरण तक भी नहीं करते, और जो शास्त्र विधि में बताया गया है उस प्रकार से ये शयन करते हैं और शयन संबंधी दोष नहीं लगते । ऐसा शय्या परीषह पर विजय करना शय्या परीषह जय है ।
संवर की कारणभूत आक्रोश परीषह विजय―आक्रोश परीषह जय―इन साधुजनों को कोई गाली दे, कोई मिथ्या दृष्टि जीव मोह से भरे हुए दुष्ट मायाचारी, उन्मत्त, पागल, संकिट आदिक दुष्टों के द्वारा कठोर गाली भी दी जायें । उन्हें कोई हृदयभेदी बात बोल दी जाये, क्रोध की अग्नि को बढ़ा दें, धिक्कार और गाली के शब्द ऐसे वचनों को सुनकर भी जिनका चित्त अस्थिर नहीं होता वे-वे जानते हैं कि अज्ञानीजन अपनी कषाय में पड़े हुए हैं और कषाय के कारण ऐसी प्रवृत्ति करते हैं, उन्हें वे क्षमा कर देते हैं । इन साधुजनों में ऐसा आत्मबल प्रकट है जिनके कारण अनेक शक्तियाँ प्रकट हुई हैं । चाहे तो आंख से देखकर ही दूसरों को भस्म कर दें, ऐसी शक्ति होती तो भी वे साधुजन क्षमाशील रहते हैं । जो भी उनके प्रति कडुवे, कठोर वचन बोल जाते है उनके अर्थ पर विचार भी नहीं रखते और भीतर चिंतन चलता है कि मेरा पूर्वकृत अशुभ कर्म का उदय ऐसा ही है जिससे मेरे प्रति इन लोगों को द्वेष हो गया है, ऐसी पवित्र भावनाओं से भरे हुए साधुजन को दूसरों के अनिष्ट वचन सुनकर भी उनके चित्त में खेद नहीं होता । वे जानते हैं कि यह जीव स्वरूप में तो अविकार है इस जीवस्वरूप का कोई विरोधी नहीं है, पर अनादिसिद्ध इस जीव पर ऐसा ही कर्मविपाक का उदय छाया है जिससे इसकी ऐसी वृत्ति बनी है । अब यह अज्ञानी बन गया है । तो जो अज्ञानी है उसके वचनों का क्या बुरा मानना? जैसे कोई बालक के वचनों का बुरा नहीं मानता ऐसे ही दूसरों के द्वारा दी गई गाली को सुनकर वे अधीर नहीं होते, और अपनी आत्मभावना में निरंतर सावधान रहते हैं । यह है आक्रोश परीषह विजय ।
संवर की कारणभूत वधपरीषह विजय―कोई पुरुष पूर्व शत्रुता के कारण अथवा किसी कारण से द्वेष भर जाने के कारण क्रोधपूर्वक मुनिराज का ताड़न करे, आकर्षण करे, बंधन करे, शस्त्र से अविघात करे, इतने पर भी उस आक्रामक के प्रति वैरभाव न होना बल्कि क्षमा रूपी अमृत से उस मारने वाले में मित्रता का भाव करना बधपरीषहजय है । साधुजन विहार करते रहते हैं । किसी गाँव में, बगीचे में, जंगल में, शहर में कहीं भी विराजे हों रात अथवा दिन एकाकी निरावरण देखकर कोई चोर अथवा कोतवाल या म्लेच्छ भील वगैरह उसका ताड़न करे ऐसे अनेक मौके मिलते हैं, उन सब अवसरों में समतापरिणाम रखना बधपरीषहजय है । जिस समय कोई साधु को सताता है, ताड़ता है उस समय वह यह विचार करता है कि यह शरीर अवश्य ही नष्ट होने वाला है, यह तो कुशलता है कि हमारे व्रत शील भावना आदिक नष्ट नहीं हुए, केवल शरीर ही नष्ट हो रहा है, अतएव मेरा यहाँ क्या बिगाड़ है? अपने ज्ञानानंद परिपूर्ण अंतस्तत्त्व में ही निवास करूँ वही मेरा काम है, वही मेरा नाता है और व्यवहार में हमारा धर्म यह ही है कि जलाने पर भी जैसे चंदन सुवास फैलाता है ऐसे ही ताड़ित किए जाने पर भी हमारा धर्म है कि हम उसको प्रेम मित्रता का ही अनुराग करें । और समतापूर्वक यह सहन किया जायेगा तो उससे कर्मों की निर्जरा ही हो रही है, वह तो भले के लिए हो रहा है । ऐसा चिंतवन करके बध करने वाले पुरुष पर द्वेष न जगना और समता से परीषह सहना बधपरीषहजय है ।
संवर की कारणभूत याचना परीषह विजय―कैसी ही विषम स्थिति मुनिराज पर आ जाये तब भी वे किसी आवश्यक वस्तु की याचना नहीं करते, यह ही उनका याचना परीषहजय है । ऐसे क्षुधा अनशन आदिक के कारण तीव्र लग रही हो, मार्ग का बड़ा श्रम कर लिया गया हो अथवा तप विशेष किया गया हो या रोग आदिक हो गया हो तो इन कारणों से साधुवों के अंग ऐसे सूख जाते हैं जैसे कि सूखा रूख होता है । इन साधुवों के तपश्चरण आदिक के कारण इतना सूखा हुआ शरीर है कि हाड़ और नसें ऊपर नीचे हो रही हैं । आंखें धस गई हैं, ओंठ सूख गए हैं, सारे शरीर की चमड़ी सिकुड़ गई है । जाँघ पैर आदिक अवयव अत्यंत शिथिल हो गए हैं, ऐसे हैं वे परम स्वाभिमानी मुनिराज । इतनी विषम परिस्थिति में भी वे इन सब दुर्बलतावों का प्रतिकार नहीं चाहते । आगम में कही गई विधि से भिक्षा लेने वाले, मौन व्रत से रहने वाले साधु के शरीर में परमक्षीणता होने पर भी और प्राण जाने का समय आने पर भी कभी दीनता पूर्वक आहार बसति औषधि आदिक की याचना नहीं करते । यह ही उनका याचना परीषहजय है । ये मुनिराज भिक्षा के समय केवल अपने को एक दिखाते भर हैं, पर मुख पर कभी भी कोई उदासी नहीं आती । वे हीन वचनों का प्रयोग नहीं करते । किसी प्रकार से भी याचना का संकेत साधुजन नहीं करते । जैसे कोई जौहरी मणि दिखाता है उसी प्रकार ये मुनिजन अपना शरीर दिखा देते हैं भिक्षा चर्या के समय, इतना ही पर्याप्त समझते हैं । मुनिराज के याचना के लिए हाथ नहीं फैलाते । केवल वंदना करने वालों को आशीर्वाद देने के समय ही उनके हाथ फैलते हैं, ऐसा जिनका अद्भुत पराक्रम है, प्रज्ञा से जिनका संतुष्ट मन है, ऐसे साधुजन किसी भी परिस्थिति में किसी वस्तु की याचना नहीं करते ।
संवर की कारणभूत अलाभपरीषह विजय―भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए अनेक दिन भी भ्रमण करते रहें फिर भी निरंतराय भिक्षा न मिले तो उस पर भी वे चित्त में उद्विग्न नहीं होते, इस ही कारण उस ग्राम को छोड़कर अन्य ग्राम जाने की आकांक्षा नहीं करते । सो ऐसे अलाभ के समय चित्त में रंच मात्र संक्लेश न होना अलाभविजय है । अलाभविजय की पात्रता उन साधुवों में है जो वायु की तरह अनेक देशों में विहार कर रहे हैं । अपनी शक्ति का प्रकाश नहीं करते । एक बार जिनके आहार की प्रक्रिया है । मुझे आहार दो ऐसे दीन वचन जिनके मुख से कभी नहीं निकलते । केवल अपने शरीर के दर्शन मात्र से संकेत बन ही जाता है कि ये गोचरी के लिए निकले हैं, ये मुनिराज शरीर से सर्वथा उदासीन हैं । किसी भी आहार आदिक के विषय में यह आज भोगा है यह कल भोगेंगे आदिक संकल्प नहीं रहता । हाथ में ही आहार लेते हैं । याने जो करपात्री हैं, संतोषी हैं, ऐसे साधुवों को भी बहुत दिनों तक अनेक घरों में घूमने पर भी निरंतराय भिक्षा न मिले तो उस पर उनको संक्लेश नहीं होता । यह ही अलाभ परीषह विजय है । ये मुनिराज यह नहीं सोचते और न कहते हैं कि यहाँ दाता नहीं है वहाँ बड़े-बड़े दानी दाता थे आदिक कुछ भी आहार विषयक चर्चा नहीं करते । वे सदा लाभ से अलाभ को ही उत्कृष्ट तप समझते हैं स्वावलंबी जीवन बनने के कारण ।
संवर की कारणभूत रोगपरीषह विजय―यह शरीर वात, पित्त, कफ और सन्निपातजन्य अनेक रोगों और वेदनाओं से घिरा है । अनेक दुःखों का कारणभूत है एवं अपवित्र है । यह शरीर जीर्ण वस्त्र की तरह अवश्य ही छोड़ने योग्य है । ऐसा जानने वाला यह साधु अपने शरीर में परशरीर की तरह उपेक्षा धारण कर सर्व प्रकार की चिकित्सावों से अपना चित्त हटा लेता है । ये मुनिराज अपने शरीर में पर शरीर की तरह उपेक्षा धारण किए हुए ही होते हैं । समस्त प्रकार की चिकित्सावों से चित्त को हटाये हुए होते हैं । हाँ शरीर मात्रा के लिए विधिवत आहार ग्रहण करते हैं और ऐसे साधुजनों के जल औषधि आदिक अनेक औषधि ऋद्धियाँ प्रकट हो जाती हैं तिस पर भी शरीर से निस्पृह रहकर पूर्वकृत पाप का यह फल है इसे भोगकर ऋण हो जाना ही चाहिए, ऐसे विचार के कारण रोग का प्रतिकार न कर उसे समता पूर्वक सहन कर लेते हैं । यह ही है रोग परीषहजय ।
तृणस्पर्शपरीषहजय―साधुजन किसी प्रकार के श्रम को दूर करने के लिए कभी शयन करते, कहीं बैठ जाते, आसन लगाते, तो ऐसे साधुजनों को कोई तृण आदिक के चुभने से बाधा हो जाये या खुजली आदिक के जलने से दुःख हो जाये तो उसे दुःख न मानना और निश्चल रहना यह ही तृणस्पर्शपरीषहजय है । इन साधुवों का शयन और आसन प्राकृतिक स्थान पर होता है । जहाँ सूखे तृण पड़े हों, पत्ते पड़े हों, भूमि पर ही वे बैठते हैं, शयन करते हैं, वहाँ काँटे हों और उनके कोई चुभने की बाधा हो तिस पर भी वे मन में आकुलित नहीं होते । जिनकी मात्र आत्मा के अंतस्तत्व पर ही उपयोग जमा हुआ है वे पुरुष बाहरी बाधावों को बाधा नहीं समझते और इसी कारण ठंड गर्मी आदिक के कारण कोई श्रम हुआ हो, उसे दूर करने के लिए शय्यासन ग्रहण तो करते हैं पर उनसे व्याकुल नहीं होते हैं यह है दिगंबर साधुवों का तृणपरीषहजय ।
संवर की कारणभूत मलपरीषह विजय―साधुजन स्नान नहीं करते, ऐसा उनका व्रत है, इस व्रत का कारण है कि जीव जंतुवों की हिंसा का परित्याग रहना । सो एतदर्थ स्नान का व्रत है अर्थात् वे स्नान नहीं करते । उन परम अहिंसक मुनिजनों को पसीने के मल से समस्त अंगों के जल जाने पर दाद खाज आदिक चर्म रोग का प्रकोप होने पर नख, रोम, मूछ आदिक में अनेक बाह्यमलों का संबंध हो जाने से कोई चर्मविकार होने पर स्वयं उस मल को हटाने की या दूसरों के द्वारा हटवाये जाने की रंच भी इच्छा नहीं करते और सदा कर्ममल को हटाने की भावना बनाये रहते हैं । उन निर्ग्रंथ दिगंबरों का मल परीषहविजय नाम का यह परीषह है । ये साधु यह स्मरण नहीं करते कि मैंने पहले की स्थिति में बहुत स्नान किया, लेपन किया, और न अपने देह संबंधी मलिनता से हीनता का ही अनुभव करते हैं । तभी ये केशलुंच करते हैं, केशों का कभी संस्कार नहीं करते । उससे भी कुछ खेद होता है, पर मलपरीषहविजय के अधिकारी साधुजन कैसी भी प्रक्रिया में खेद नहीं करते, यह है मलपरीषहविजय । सो यह खेद भी मलपरीषह में ही अंतर्भूत है । सो केशलुंचन कृत खेद को मलपरीषहविजय से अलग नहीं कहा गया है ।
संवर की कारणभूत सत्कार पुरस्कार परीषहजय―जो मुनि चिरकाल से ब्रह्मचर्य का धारण करने वाले हैं, महान तपस्वी है, स्वसमय और परसमय का निश्चय द्वारा जिन्होंने कुछ विवेचन पाया है, हित का उपदेश करने वाला है, कथा मार्ग में कुशल है, अर्थात् कथा द्वारा जनता को उपदेश करे तो उसमें जिसकी रंच भी चूक नहीं है, ऐसे शास्त्रार्थ में जिन्होंने विजय प्राप्त की है ऐसे पुरुष भी मुझे कोई प्रणाम भक्ति आदर नहीं देता, आसन प्रदान नहीं करता, ऐसी दुर्भावना मुनिराज के मन में नहीं आती । और, भी मान अपमान में समान चित्त रखकर सत्कार पुरस्कार की आकांक्षा नहीं करते । मात्र मोक्ष मार्ग का ही विचार करते, यह ही उनका सत्कार परीषह विजय है । पूजा प्रशंसा आदिक होना सत्कार है और स्थान देना, आमंत्रण देना आदिक पुरस्कार है । सत्कार में तो वचनों की मुख्यता है । और पुरस्कार में उनको आगे स्थान देने की मुख्यता है ।
संवर की कारणभूत प्रज्ञा परीषह जय―मैं प्रज्ञा में निपुण हूँ, अंग पूर्ण प्रकीर्णक आदिक पूर्व का ज्ञाता हूं, मैं भूत, वर्तमान, भविष्यत अर्थ को जानने वाला हूँ, शब्द शास्त्र में, न्याय शास्त्र में, अध्यात्मशास्त्र में मैं निपुण हूँ मेरे सामने अन्य वादी ऐसा निस्तेज हैं जैसे सूर्य के सामने पटबीजना निस्तेज हो जाती है । इस प्रकार का ज्ञानमद पाकर प्रज्ञा ज्ञानगुण होने पर भी उनका कुमार्ग में न पहुँचने का जो पौरुष है वह प्रज्ञा परीषह जय है ।
संवर की कारणभूत अज्ञान परीषह जय―जिन मुनियों के अनेक पौरुष करने पर भी अध्ययन और अर्थग्रहण में बहुत कुछ प्रयोग करने पर भी ज्ञान प्रकट नहीं हुआ । अज्ञान ही रहा । तो तो ऐसी स्थिति में परीषह पर विजय करना अज्ञान परीषह जय है । कोई लोग मुनि को अज्ञ कहते हैं, पशुसम कहते है आदिक आक्षेप वचन बोलते हैं लेकिन वे मुनिराज उन वचनों को शांति से सहन करते हैं और कभी अपने चित्त में यह हीनभावना नहीं आने देते कि ऐसे परीषहों को सहकर भी आज तक ज्ञानातिशय नहीं हुआ, और ये मुनिराज जिन्होंने मौलिक प्रकाश पा लिया है वे अपने में अज्ञानभाव से हीनभावना नहीं होने देते । तो कभी अज्ञपने की भी स्थिति प्राप्त हो तो उसमें भी दु:खी न होना यह अज्ञान परीषह जय है ।
संवर की कारणभूत अदर्शन परीषह जय―बड़े-बड़े व्रत तप करने पर भी कोई ज्ञानातिशय मुझे उत्पन्न न हुआ ऐसे विचार द्वारा चित्त में अश्रद्धा उत्पन्न न होने देना और अपने सम्यक्त्वभाव को दृढ़ता से पालना अदर्शन परीषह जय है । ये साधुजन संयम प्रधानी है। बड़े दुष्कर तप तपने वाले हैं । वैराग्य भावना से इनका हृदय शुद्ध हुआ है । समस्त तत्त्वों के वेदी है, शुद्ध धर्म की पूजा करने वाले हैं और चिर काल से दीक्षा लिए हुए हैं उनके आज तक भी कोई ज्ञानातिशय उत्पन्न नहीं हो तो भी वे ऐसा ध्यान नहीं धरते कि आगम में जो लिखा है कि महान उपवास करने से अतिशय होता है यह सब झूठ है, यह दीक्षा व्यर्थ है, व्रत पालन निरर्थक है, ऐसी चित्त में अश्रद्धा उत्पन्न नहीं होने देते और अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ता से अनुभवते हैं यह है अदर्शन परीषह जय। अदर्शन परीषह में जो दर्शन शब्द दिया है सो यद्यपि दर्शन शब्द के दो अर्थ होते हैं―(1) श्रद्धान और (2) आलोचन आलोचन के मायने सामान्य प्रतिभास, किंतु यहाँ पर श्रद्धानरूप दर्शन का ग्रहण है । आलोचनरूप दर्शन श्रुत और मन:पर्यय ज्ञानों में नहीं होता और श्रद्धान पाँचों ज्ञानों के साथ चलता है, इस कारण जो पाँचों ज्ञानों के साथ चले उस श्रद्धान का यह ग्रहण है कि अपना श्रद्धान न बिगड़ने देना अदर्शन परीषह है, क्योंकि श्रद्धान न बिगड़ने की संभावना ज्ञानातिशय न होने पर हो रही है । तो इस अदर्शन परीषह में ज्ञानातिशय से संबंध श्रद्धान का है याने ज्ञानातिशय न होने पर भी श्रद्धान न बिगड़ने देने का यहाँ प्रयोजन है इसलिए दर्शन का अर्थ आलोचन नहीं है । फिर दूसरी बात यह है कि जब आगे बताया जायेगा कि कौन सा परीषह किस कर्म के उदय से होता है, तो वहाँ यह कहा जायेगा कि अदर्शन परीषह दर्शन मोह के उदय से होता है, इस कारण दर्शन का अर्थ श्रद्धान करना । केवल कल्पना से कही हुई यह बात नहीं है, किंतु वास्तविकता ही यह है । यद्यपि अवधिदर्शन आदिक नहीं उत्पन्न हुए, वहाँ पर भी वे गुण प्रकट नहीं हुए, ऐसा परीषह माना जा सकता है, किंतु आलोचन वाली बात चूंकि ज्ञानों के साथ-साथ रहती है अत: अज्ञान परीषह में इसका अंतर्भाव हो जाता है । जैसे कि सूर्य के प्रकाश के अभाव में प्रताप नहीं होता ऐसे ही अवधिज्ञान के अभाव में अवधिदर्शन नहीं होता, इसलिए आलोचन अर्थ वाला दर्शन अज्ञान परीषह में अंतर्भूत होगा । यहाँ श्रद्धान का ही ग्रहण करना है । इस प्रकार ये 22 परीषहों पर मुनिराज विजय प्राप्त करते हैं और कर्मों का संवर करते हैं ।