वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 16
From जैनकोष
प्रतिक्षणं भंगिषु तत्पृथक्त्वान्न-
मातृ-घाती स्व-पति: स्व-जाया ।
दत्त-ग्रहो नाऽधिगत-स्मृतिर्न न
क्त्वार्थ-सत्यं न कुलं न जाति: ।।16।।
(58) क्षणिकवाद में माता का वध कर देने पर भी उसको मातृघाती सिद्ध करने की असंभवता―यह क्षणिकवादियों के दर्शन की समालोचना चल रही है । जो क्षण-क्षण में पदार्थ को निरन्वय विनष्ट मानते हैं याने पहले समय में हुए पदार्थ का कुछ भी लगार आगे नहीं रहता, आगे दूसरा पदार्थ आगे पीछे लगार बिना अपने समय में होता है और बिना कारण ही नष्ट हो जाता है, ऐसा मानने पर यह तो स्पष्ट हो गया कि प्रत्येक चित्त पृथक्-पृथक् है । एक ही देह में जितने चित्त विचार जीव उत्पन्न होते हैं वे सब अपने-अपने उस समय में ही पूर्ण और स्वतंत्र हैं । उनका पूर्व और पीछे समय में कुछ भी संबंध नहीं है तब फिर बतलाओ इस दर्शन वाले अगर माता का वध कर दें तो भी उन्हें मातृघाती नहीं कहा जा सकता । जिसने मातृघात का विचार किया वह तो तुरंत नष्ट हो गया । हाथ किसी दूसरे ने चलाया, वध किसी दूसरे के क्षण में हुआ तो कोई भी मातृघाती नहीं
हो सकता । दूसरी बात―जिस समय पुत्र उत्पन्न हुआ वह तो उसी समय पुत्र था, अगले समय न वह पुत्र रहा, न वह माता रही । तब फिर कोई संबंध हो न रहा ।
(59) क्षणिकवाद में स्वपति, स्वजाया, दत्तग्रह व अधिगतस्मृति की असंभवता―क्षणिकवाद में काई किसी का पति भी नहीं बन सकता, क्योंकि जो विवाहित पति है, जिस क्षण पति बना वह उसी समय नष्ट हो गया । अब तो आगे कोई दूसरा अविवाहित ही जीव आ रहा है । इसी तरह कोई किसी की पत्नी भी नहीं ठहरती, क्योंकि उस विवाह में की गई स्त्री का उसी समय विनाश हो गया । अब तो कोई अविवाहिता स्त्री ही उत्पन्न हुई है और इसके अतिरिक्त सभी को परस्त्रीसेवन का दोष आता है, क्योंकि जिनका परस्पर विवाह हुआ वे जीव तो उसी क्षण नष्ट हो गए, अब तो अविवाहित ही चल रहे हैं । क्षणिकवाद के सिद्धांत की विपत्ति बता रहे हैं कि क्षणिकवादियों में लेन-देन भी नहीं बन सकता, क्योंकि जिसने धन लिया, ऋण लिया वह तो उसी समय नष्ट हो गया । अब तो कोई दूसरा ही जीव है और इसी तरह जिसको ऋण दिया वह भी उसी समय नष्ट हो गया तो अब देने वाला भी और रहा, लेने वाला भी और रहा और उनका कोई साक्षी भी स्थिर नहीं रह सकता, क्योंकि वह भी उसी क्षण नष्ट हो गया । और भी आपत्तियां देखिये―क्षणिकवाद के अनुसार किसीने किसी शास्त्र का अध्ययन किया, तो अध्ययन करने वाला जीव तो उसी समय नष्ट हो गया । अब उसको उसके अर्थ की स्मृति कैसे रहेगी, दूसरे को स्मृति कैसे बन जायेगी? तो शास्त्र क अध्ययन करना भी निष्फल हुआ ।
(60) क्षणिकवाद में असमाप्ति क्रिया के प्रयोग की अशक्यता―और भी आपत्ति देखिये । क्षणिकवाद में जो वाक्य बोलते हैं कि यह मनुष्य खा करके दूकान गया तो ‘करके’ वाली असमाप्ति की क्रिया सही नहीं बनती, क्योंकि जिसने खाया वह तो नष्ट हो गया, दूकान जाने वाला कोई दूसरा ही है तो ‘क्त्वा’ प्रत्यय का अर्थ ही नहीं बन सकता है, क्योंकि पूर्व जो क्रिया की उसका करने वाला भी वही हो और आगे जो क्रिया की उसका करने वाला भी वही हो तब तो ‘करके’ ऐसा बोलना ठीक बैठेगा । तो क्षणिकवाद में ‘क्त्वा’ प्रत्यय का भी कोई अर्थ नहीं बनता ।
(61) क्षणिकवाद में कुल, जाति आदि सभी व्यवस्थावों व व्यवहारों की असंभवता―और भी आपत्ति देखिये―क्षणिकवाद में न कोई कुल बनता और न कोई जाति बनती । जैसे सूर्यवंश, चंद्रवंश आदिक जैसे कुल में किसी क्षत्रिय का जन्म हुआ, उस कुल का तो निरन्वय नाश हो गया, क्योंकि क्षणिक सिद्धांत में तो कुल संबंध कुछ रहता नहीं तो उसके जन्म में उसका कोई कुल न रहा । यही बात जाति के संबंध में समझना । तो क्षणिकवाद में एक चित्त अगले समय जब नहीं ठहरता तो वहाँ कुछ भी व्यवहार नहीं बन सकता । न कोई विधिरूप व्यवहार बनेगा और न कोई क्रियारूप व्यवहार बनेगा । यह क्षण-क्षण में नया-नया जीव का होना न तो अनुभव में उतरता है, न युक्तियों से सिद्ध होता है और न आगम से सिद्ध होता है । एक कल्पनाभर से मान लिया जाये तो यह तो मानने वाले की खुद की कल्पनामात्र है ꠰ तो क्षणिकवाद में सर्वथा एकांतवाद है, वह प्रभु का शासन नहीं है । यथार्थ तो यह है के जीव एक है और प्रति समय में उसके विकल्प बनते रहते हैं, सो जिसने बंध किया वही आगे पुरुषार्थ करके मोक्ष पा लेता है । एक जीव के बंध, मोक्ष की व्यवस्था अनेकांत दर्शन में तो है, पर न तो सर्वथा नित्यवाद में बंध, मोक्ष की व्यवस्था है और न सर्वथा क्षणिकवाद में बंध, मोक्ष की व्यवस्था है ।