वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 100
From जैनकोष
भुंजेइजह लाहं जइ णाणसंजमणिमित्तं।
झाणज्झयणणिमित्तं अणयारो मोक्ख मग्गरओ।।100।।
साधुवों का निर्दोष यथालब्ध आहार―संसार में चतुर्गति में परिभ्रमण करने वाले जीवों को मनुष्य भव का लाभ एक बहुत दुर्लभ है और आज हम आप मनुष्य भव में आये हैं तो एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि अपने को कोई एक ऐसा काम करना चाहिये जिससे संसार के संकट सदा के लिए टल जायें? वह काम क्या है? ज्ञान और ध्यान। अपने आत्मा के स्वरूप की जानकारी और उसही सहज अविकार स्वरूप का ध्यान। इसके लिये जो विवेकीजन हैं वे अधिक से अधिक पौरुष करते हैं और सर्व परिग्रहों का त्याग कर केवल इस ही आत्मा की उपासना में समस्त जीवन बिताते हैं। तो जो एक इस ज्ञायक स्वरूप आत्मा की साधना में सर्वपरिग्रहों का त्याग करते हैं वे कहलाते हैं अनगार घर रहित गृहत्यागी साधु पुरुष तो उन साधु पुरुषों की कैसी प्रवृत्ति होती हैं उसका अब वर्णन चल रहा है। उनका कार्य है कि ज्ञाता दृष्टा रहे उनकी ऐसी श्रद्धा है भावना है कि यह मैं तो हूँ एक ज्ञायक पदार्थ जाननहार और यह सब पदार्थ हैं ज्ञेय। बस ज्ञान और ज्ञेय की ही बात है यहाँ कोई पदार्थ मेरा रंच भी नहीं है सब बाहर ही बाहर पड़े हुए है बाहर ही बाहर भटक रहे हैं ऐसा जिसकी दृष्टि में स्पष्ट आ रहा है वह ज्ञाता दृष्टा रहता है तो इस ही ज्ञायक स्वभाव की उपासना से साधन हैं अध्ययन स्वाध्याय ध्यान आदिक ये सब कर्तव्य करते हैं अब एक प्रश्न और रह जाता है कि शरीर की स्थिति के लिए कुछ आहार पान चाहिए। ज्ञान संयम के निमित्त साधुजनों द्वारा आहार ग्रहण―साधु तो सही रीति से हो गए और अपने ज्ञान ध्यान का ही प्रोग्राम रचा। संसार के किसी भी परिग्रह से राग नहीं है फिर भी संसार तो है न। क्या इस शरीर को असमय में हटा दें याने क्या आत्मा खुदकुशी कर ले, यह तो उचित नहीं। इससे लाभ भी क्या? हैं असमय में गुजरे और देवगति में भी कोई उत्पन्न हुए तो आगे का और क्या पता? और देवगति में भी कोई धर्म मार्ग में लगा रहे शांति पाता रहे यह तो बात नहीं है तो शरीर की स्थिति बनी रहे इसके लिए साधु आहार ग्रहण करते हैं आरंभ परिग्रह का उनके त्याग है तो बनायेंगे नहीं, स्वयं उसकी सामग्री साधन संचित करेंगे नहीं किंतु वे नगर में भ्रमण कर भिक्षाचर्या के लिए निकलेंगे, किसी विवेकी धर्मात्मा श्रावक ने प्रतिग्रहण कर लिया बोल लिया कि मेरे यहाँ शुद्ध आहार है ग्रहण कीजिए तो वह साधु उस घर पहुँचता है और निर्दोष आहार एक बार लेता है और सारा समय ज्ञान ध्यान में बिताते हैं। तो वे भोजन कैसे लेते हैं? यथालब्ध याने सरस मिले नीरस मिले रूखा मिले ऐसा आहार साधु ले लेते हैं। उनके आहार लेने का प्रयोजन मौज नहीं शरीर पुष्टि नहीं किंतु शरीर बना रहे तो धर्म साधना किया जा सकेगा। सो यह भी आहार ग्रहण क्यों करते? ज्ञान और संयम के निमित्त करते हैं इस जीव के साथ कर्म का बंधन है जिसके फल में यह जीव नाना प्रकार के शरीर को धारण करता है जन्म लेता है मरण करता है यह ही अनादि से करता चला आया है तो यह परिपाटी जीव के लिए क्या लाभदायक है? जन्मे मरे लाभ क्या मिला? तो इस परिपाटी को नष्ट करने में समर्थ है तो अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव ही समर्थ है इसीलिये साधु जीवन समझता है ज्ञान संयम के लिये और जीवन के लिये आहार लेता है। मोक्षमार्गरत अनगार साधुवों द्वारा पूर्ण निर्दोष आहार का ग्रहण―यह ‘अनागार’ साधु मोक्षमार्ग में रत होता है और ध्यान अध्ययन के लिये ही वे आहार ग्रहण करते हैं कैसे आहार ग्रहण करते हैं वह कुछ आयगा आगे। सामान्य बात यह समझलो कि जिसमें निर्दोष माँस अतिचार भी न हों माँस की बात तो दूर ही है माँस अतिचार क्या हैं? अमर्यादिक भोजन खाना यह है अतिचार। जो यह परिपाटी है कि आटा दूध आदिक चीजें इतने समय के अंदर ही भक्ष्य हैं इसके आगे अभक्ष्य हैं उसका कारण यह है कि म्याद से बाहर की वस्तु में जीवोत्पत्ति का प्रारंभ होने लगता है उसको ग्रहण करने में माँस अतिचार लगता है माँस नहीं हैं वह पर उसमें दोष चलता है तो ऐसा निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं और किस प्रयोजन से ग्रहण करते हैं वह बताया ही गया है कि ज्ञान ध्यान और अध्ययन इनके लिये ही जीवन बनाया है आहार ग्रहण करते हैं सो वे किस-किस दृष्टि से करते हैं इसका अब कथन किया जा रहा है।