वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 112
From जैनकोष
वयुगुण्सीलपरीसीजयं च चरियं तवं छडावसयं।
झाणल्झयणं सव्वं सम्मविणा जाण भववीय।।112।।
सम्यक्त्वरहित पुरुष के व्रतों की भी भवबीजरुपता―जैसे वस्त्र मलिन हो या काला नीला हो तो उस पर उत्तम रंग नहीं चढ़ता ऐसे ही जिसका उपयोग मलिन है। मिथ्यात्व से वासित हैं उस पर व्रत तप आदि का भी रंग ठीक नहीं ठहरता। यद्यपि व्रत को कोई बाह्य विधि से पालो तो भी उसमें कुछ परिणाम शम ओर कुछ विशुद्ध रह जाते हैं मगर मुक्ति का प्रयोजन तो सिद्ध नहीं होता। भले ही स्वर्ग गति मिल जाय, मेरा भूमि मिल जाय लेकिन कर्म कैसे कहते हैं और वास्तविक आनंद कैसे मिलता है इस पर उनका रंच भी अधिकार नहीं रहता। व्रत अनेक प्रकार के होते हैं। पाक्षिक शरण का व्रत अष्टमूक्त गुण का पालन श्रावक का व्रत निरविचार मूल गुण का फिर प्रती पावक बारह व्रतों का पालन पावक के बाद महाव्रत समिति गुप्ति का पालन। ऐसे व्रत नाना प्रकार के होते हैं वह उनका पालन है पर जिनके सम्यक्त्व नहीं है उनका यह ध्येय ही नहीं बनता कि मैं तो आत्मा में रमने का वातावरण पाने के लिए इन व्रतों को पाल रहा हूँ। हे व्रत मैं तुमको तब तक पाल रहा हूँ जब तक तुम्हारे प्रसाद से मैं अपने विशुद्ध स्वभाव में न रम जाऊँ ऐसे लक्ष्य अज्ञान में नहीं बन पाता। तो जो सम्यक्त्व से रहित पुरुष हैं। उनके व्रत मन के ही बीज हैं। जैसे अज्ञानियों का पुण्य दुर्गति का ही कारण बनता है। वह कैसे पूर्वभव में पुण्य कार्य बना पुण्य बंध हुआ और बन गए राजा सेठ तो उस भव में यह अन्याय करेगा अपने में घमंड लायेगा उसमें नम्रता कि वृत्ति न बनेगी तो उससे जो पाप का बंध होगा उसका फल है दुर्गति। नरक जाए विकलमय बने दुर्गति होती है तो अज्ञानी का पुण्य भव का बीज है। तो जिस को सम्यक्त्व नहीं हैं उनके ये व्रत आदिक भव के बीज बनते हैं। इसी प्रकार व्रतों को पुष्ट करने वाले गुण श्रावकों के लिए शील तीन गुण व्रत चार शिक्षा व्रत और मुनिराज के लिए उत्तर गुण और इनका पालन भी होवे और वह है सम्यक्त्व से रहित तो ऐसे बड़े गुणों का पालन भी भव का बीज है। मोक्ष का मार्ग नहीं हैं। जैसे पशु पक्षी विषयों में लगते हैं और मनुष्य जों पढ़े लिखे होते हैं साहित्य की कला जानते हैं। बोल चाल वाणी जिनको मिली हैं तो पशु तो साधारण भाव से भोगों को भोगते पर ये मनुष्य अपने उस ज्ञान के बल से जो कि राग रंग में इनसे उस के तीव्र पाप का बंध होते हैं तो ऐसे ही समझिये जैसे दुकान पर बैठे और वहाँ इच्छा तो होती ही है कि आज मुनाफा होना चाहिये। तो कर लेता है नफा मगर मंदिर में आकर धर्मायतन में आकर पूजा यात्रा आदि करके उन साधनों की इच्छा बनाये तो इसमें विशेष पाप होता है, कहने के लिए तो यह है कि वहां मंदिर गया, मात्रा उसने की, तो कुछ अच्छा ही तो हुआ मगर दुकान पर बैठकर जो आकांक्षा होती है उसमें जितना पाप धर्म के एवज में संसार साधनों की इच्छा करना, इसमें उससे भी अधिक पाप होता है तो ऐसे ही समझिये कि जो पुरुष सम्यक्त्व से तो रहित है और बहुत व्रत तप आदिक का पालन करता है तो चूँकि उसका आशय खोटा है, वह संसार के सुख के उद्देश्य से ही कर रहा है, इसलिए उस भाव का बीज बनता है, इतना अंतर है कि सुधरने का अवसर है, कोई मंदिर में आता है अपनी मनोकामना द्वारा तो तत्काल तो वह ज्ञान जगे, चित्र बदल जाय सही आशय बन जाये तो उसको वातावरण ही है। जैसे कोई धनी पुरुष बड़ा कंजूस है, न अपने खाने में खर्च कर सकता, न किसी के उपकार में खर्च कर सकता तो उसका धन तो पत्थर की तरह है, न उसको लाभ है, न दूसरों को लाभ है, परंतु सामर्थ्य तो है यह कि कभी उसकी सुमति जगे तो वह सदुपयोग कर सकता है। तो इस वातावरण की संभावना की दृष्टि से इन धर्म कार्यों को कुछ भला कह लें मगर उनका जो तात्कालिक प्रभाव है वह तो भव का बीज है। और पाप का बंध करने वाला है। तो जिस पुरुष के सम्यक्त्व नहीं है उसके ये व्रत गुण शील ये सब भव के बीज बनते हैं। सम्यक्त्वविहीन पुरुषों के परीषहजय व चरित्र की भी भवबीजरुपता―इसी प्रकार परीषह विजय, यह भी बहुत भावना साध्य बात हैं उपद्रव आये, उपसर्ग हो परीषह हो और उनका प्रतिकार न चाहे, किसी से बदला लेना न चाहे, यह तो उत्तम बात है, किंतु एक सुख के बाद मरे को अगले भव में इंद्रपद मिलेगा, राज्य पद मिलेगा, मोक्ष सुख को भी कभी मुख से कह ले मगर सोचता उसे भी इसी तरह है कि जैसे यहाँ लोगों को सांसारिक सुख मिल रहे हैं इससे और भी अधिक सुख होगा। जाति वह यही समझता है। तो ऐसे इन सुखों की वांछा रखकर जो परीषह सह लिए जाते हैं। किसी ने गाली दी तो सुन लें, उसका जवाब न दें और अपने आप में समता से सह ले, अगर ऐसा न सहेंगे तो संसार के सुख न मिलेंगे तो ऐसे परीषह को सहने वाला पुरुष भी सम्यक्त्व से रहित है। तो वह परीषह विजय भी भव का बीज है। इसी तर चारित्र सराग चारित्र, सागर चारित्र और अनगार चारित्र अनेक प्रकार के जो आचरण हैं इन आचरणों को भी कोई कर रहा, मगर एक लोकेषणा से, इससे इस लोक में बड़ी ख्याति होगी, नाम होगा, लौकिक सुख मिलेगा, यह धर्म है, यह चारित्र है, इससे स्वर्गादिक सुख मिलते हैं। आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है और सांसारिक बातों का ही ध्यान है। तो ऐसे आशय वाले चारित्र का भी भली भाँति पालन करे तो भी वह भव का बीज है। एक बार ऐसा भी हो सकता है कि ज्ञानी पुरुष का जो चारित्र है वह सहज है। उसमें वह अधिक विकल्प करके नहीं पालता, किंतु सम्यक्त्व के और आत्मरूचि के प्रताप से उनको क्रिया प्रायः सहज हो जाती है, उनसे भी अधिक चरित्र ज्ञानी पाल सकता। जो देखने में बाहरी बात है उसमें जरा भी दोष न आये ऐसी कमर कसकर अज्ञानी पालता है चारित्र, मगर जिसके मूल में आशय खोंटा है, सांसारिक सुखों के लिए ही जिन्होंने यह सब चाहा है उसको यह चारित्र भव का बीज बनता है। सम्यक्त्वविहीन पुरुष को तप की भी भव बीज रूपता―12 प्रकार के तप लौकिक दृष्टि से तो बड़े ऊंचे तपस्वी कहलाते हैं। हर एक का चित्त कह उठता है कि इसकी साधना बड़ी ऊंची है। कभी कोई विरोधी से चर्चा करे तो उत्तर यह ही मिलता कि हम से तो अच्छे हैं ही। जिसका तप बाहर में विशेष दिखता है, बहुत अनशन कर रहे हैं, रस परित्याग भी खूब चल रहा है, गर्मी सर्दी की बाधा भी सह लेते हैं। लेकिन प्रयोजन ही जिसे न विदित हो कि तपश्चरण कर क्यों रहा हूँ, मुझे वास्तव में इसका फल क्या चाहिए? कुछ नहीं चाहिए। तो ज्ञानी जीव भी तप क्यों करता है? ज्ञानी जीव इच्छा से तप नहीं करते, अर्थात ऐसा तप मैं सदा करता रहूँ ऐसी भावना नहीं है तप में, किंतु वह परिस्थिति है ऐसा कि जिसमें इस तरह की उपेक्षा करने और तप करना एक आवश्यक बन गया है, किसके लिए आवश्यक बन गया है कि मेरा वातावरण ऐसा ही रहे कि जिससे मैं अपने अविकार सहज ज्ञान स्वरूप में उपयोग को सुगमतया लगा सकूँ? यह भावना है उनकी जिनको अपने लक्ष्य का पता है। कोई पुरुष किसी गली में बड़ी तेजी से चल दे और यह मन में कोई उद्देश्य ही नहीं कि मुझे जाना कहाँ है तो उसके चलने का क्या फल है? जैसे को साम के समय नाव में बैठकर खुद नाव चलाये और चंद्रमा चल चलकर कुछ दूर बसे पश्चिम की ओर ही गया तो नाव वाला सोचता कि मैं बहुत दूर चला गया हूँ देखो चंद्रमा को मैंने पीछे कर दिया इतना भी तेज सोच रहा हो, पर रात्रि व्यतीत होने पर जब देखता है कि नाव तो हमारी उसी किनारे पर है, जहाँ की तहाँ ही है। वह सोचने लगा कि ऐसा क्यों हुआ? वहाँ कोई विचारक देखता है तो उसकी समझ में आया कि खूँटे से नाव बँधी है, इसने खूँटे से नाव को तो खोल ही नहीं है। किनारे पर नाव रहती है और नाव के कड़े से रस्सी खूँटे से बाँध दी जाती है तो वह नाव वही रहती है। तो मोह मिथ्यात्व के खूँटे से बँधा हुआ है जीव, उस खूँटे से तो निकलता ही नहीं है और धर्म के नाम पर प्रवृत्ति और आचरण बहुत तेज किया गया है लेकिन फल क्या होता है कि जहाँ था वहाँ ही रह गया। तो सम्यक्त्व हीन पुरुष का तप भी भव का बीज है। अज्ञानी जनों के षडावश्यक कर्मों की भी भवबीजरूपता―छः आवश्यक होते हैं अपने विशुद्ध प्रभावों की प्रगति के लिए। मुनियों के भी छः आवश्यक हैं, श्रावकों के भी छः आवश्यक है। सो छः आवश्यकों को खूब तो बोला जाय बड़े नियम से, बड़े उत्साह से छः आवश्यक बोल रहे हैं मगर आवश्यक क्या चीज है और यह किस लिए किया जाता है इसका कुछ परिचय ही नहीं है। करते आर्य सो कर रहे हैं, उनका यह ही मंत्र है, दूसरे ज्ञानियों की क्रियायें को देखकर कि तुम जपा सो हम जपा स्वाहा, और कुछ अधिक नहीं मालूम। वह कर रहे हैं और उससे उनका लोक में वंश चल रहा है तो वही हमको करना है। सुखशांति के लिए यह ही करना होता है, ऐसा ध्यान बन गया, पर मुझे अविकार सहज ज्ञान स्वरूप में मग्न होना है यह ध्यान में ही नहीं है तो उनको ये बड़ी रूचि के छः आवश्यक कर्त्तव्य भी भव के बीज बनते हैं। क्योंकि उन सभी कर्त्तव्यों में इस अज्ञानी का ध्येय रहता है सांसारिक सुख का लाभ, विषयों के संपर्क और भोगोपभोग के सुख के सिवाय अन्य कुछ आनंद का या सहज ज्ञान का ज्ञानी को परिचय ही नहीं है। तो उसकी ओर वह मुड़े ही कैसे? तो जो सम्यक्त्व से रहित पुरुष है उनके छः आवश्यक कर्त्तव्य भी भव के बीज बनते हैं। अज्ञानी जनों के ध्यान व अध्ययन की भी भवबीजरूपता―अज्ञानी जनों का ध्यान और अध्ययन भी संसार का बीज बनता है, क्योंकि ध्यान बढ़ायेंगे तो अज्ञानीजन मिथ्यात्व का पोषक ही ध्यान बना पायेंगे। अध्ययन करें तो उसके अर्थ भी विषय पोषण जैसे ही वैसे करेंगे, क्योंकि उपदेश तो कुछ होता है मगर आशय आदि सही है तो उस उपदेश से वह सही लाभ पाता है और आशय मगर गंदा है अज्ञान भरा है तो उससे वह कुछ लाभ नहीं पाता मोक्षमार्ग का। तो जो सम्यक्त्व से रहित पुरुष है उसका ध्यान और अध्ययन भी भव का बीज बनता है। बहुत पुरानी बात है कि अजैर्यष्टंव्य एक होई ऋचा जिसका अर्थ तो सीधा यह है कि जो उत्पन्न न हो ऐसे धान्य का यज्ञ करे, पर पर्वत ने जो कि गुरू का पुत्र था उसने अर्थ लगाया कि अज मायने तो बकरा होता है, उसकी कुछ उसी ओर ही सुध थी। उसमें ही कुछ उनका स्वार्थ था, अनर्थ कर दिया। बहुत सी चर्चायें होती है ऐसी, निश्चय की व्यवहार की, तो चर्चायें कुछ है मगर आशय खोंटा है तो जिस तरह स्वच्छंद वृत्ति हो, विषयों में फर्क न आ पाये उस तरह से उसका अर्थ लगाता है और अगर आशय अच्छा है तो जैसे आत्महित बने उस तरह से उनका अर्थ लगाता है। तो जिसके आत्महित का भाव नहीं, आत्मा के सहज ज्ञान स्वभाव का अनुभव नहीं उसका तो ध्यान करना और अध्ययन करना यह भी संसार में मलने का कारण बनता है, क्योंकि वह उस ध्यान और अध्ययन में अपने दोष को पुष्ट करने का ही अर्थ करेगा, दोष से बचने का अर्थ नहीं लगा सकता। तो सम्यक्त्व हीन पुरुष ध्यान अध्ययन भी करें तो भी वह संसार का बीज होता है। तो प्रधान बात हुई सम्यक्त्व। मैं अकेला क्या हूँ इस को पहिचान लेना सम्यक्त्व है। इस पुद̖गल शरीर कर्म को साथ लेकर जो उसका मायारूप बनता है तो वह मैं वास्तविक नहीं हूँ, किंतु इन बाह्य संपर्कों से रहित यह मैं अकेला किस स्वरूप में हूँ, उस स्वरूप का अनुभव बने उसे कहते हैं, सम्यग्दर्शन तो सम्यक्त्व इस जीव, का शरण है, मित्र हे, गुरू है, देव है, सर्वस्व है, यह ही हमारा शरण है। तो सुख शांति के लिए जो अन्य अनेक उपायों के श्रम किए जाते हैं तो वह अधिक अन्य श्रम न बनकर एक सुगम स्वाधीन अपने आप में बसा हुआ उपाय भी तो करके देख लें। ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हों मैं अन्य को न जानूँ। इस जाननहार अपने अंतस्तत्त्व को जानूँ, ऐसा उपयोग तो लगा दे। बाह्य पदार्थों का ख्याल हटा दें, पास परम विश्राम से बैठें तो अपने आप ही निजज्ञान स्वरूप का इसे अनुभव बनेगा। उस एकत्व विभक्त आत्मस्वरूप का अनुभव बने उससे संसार के सारे संकट टल जाते हैं।